समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
दीपक शर्मा
की कहानी-
बिगुल
“तुम्हें घोर अभ्यास करना होगा”, बाबा ने कहा, “वह कोई
स्कूली बच्चों का कार्यक्रम नहीं जो तुम्हारी फप्फुप फप्फुप को
वे संगीत मान लेंगे...”
जनवरी के उन दिनों बाबा का इलाज चल रहा था और गणतंत्र दिवस
की पूर्व-संध्या पर आयोजित किए जा रहे पुलिस समारोह के अंतर्गत
मेरे बिगुल-वादन को सम्मिलित किया गया था बाबा के अनुमोदन पर।
“मैं सब कर लूँगी, आप चिंता न करें...”मैंने कहा।
उनके सामने बिगुल बजाना मुझे अब अच्छा नहीं लगता।
वे खूब टोकते भी और नए सिरे से अपने अनुदेश दोहराते भी-
“बिगुल वाली बाँह को छाती से दूर रखो, तभी तुम्हारे
फेफड़े तुम्हारे मुँह में बराबर हवा पहुँचा सकेंगे...”
“अपने होंठ बिगुल की सीध में रखो और उन्हें आपस में भिनकने
मत दो...” इत्यादि...इत्यादि।
“कैसे न करूँ चिंता?” बाबा खीझ गए, “जाओ और बिगुल इधर मेरे
पास लेकर आओ। देखूँ, उसमें, लुबरिकेन्ट की ज़रुरत तो नहीं...”
बिगुल का ट्युनिंग स्लाइड चिकनाने के लिए बाबा उसे अकसर
लुबरिकेन्ट से ओंगाया करते।...आगे-
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अज्ञात की
लघुकथा-
गणतंत्र दिवस की परेड
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शशि पाधा की कलम से-
नतमस्तक हुआ हिमालय (कैप्टेन तुषार महाजन)
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भावना सक्सैना के साथ चलें
सूरीनाम जहाँ प्रेम का स्वर है
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डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली का
ललित निबंध -
भारत बोध |