१०
1०१२
स्वतंत्रता का पुजारी- राणा प्रताप
अनिता महेचा
वीर
शिरोमणि स्वदेश प्रेमी, दृढ़ प्रतिज्ञ महाराणा प्रताप
का नाम भारत के इतिहास में सदैव स्वर्ण अक्षरों में
अंकित रहेगा। इस रणबाँकुरे का जन्म मेवाड़ की वीर
वसुंधरा पर संवत् १५५६ को ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को
महारानी जयवन्ती देवी के गर्भ से हुआ। इनके पिता का
नाम महाराणा उदयसिंह और पितामह का नाम महाराणा साँगा
था। इन्हीं चूड़ामणि महाराणा साँगा का रक्त राणा प्रताप
की रगों में दौड़ रहा था। अपनी मातृभूमि की आन पर मिटने
की आकांक्षा रखने वाला भारत माता का यह सपूत अपने कुल
का उज्ज्वल दीपक था, जिसके गौरवशाली प्रकाश से आज भी
सिसोदिया वंश यश प्रतिष्ठा से आलोकित है।
राणा प्रताप के पिता उदयिंसंह ने अकबर से भयभीत हो
मेवाड़ त्याग कर अरावली पर्वत पर डेरा डाला और उदयपुर
को अपनी नई राजधानी बनाया। महाराणा उदय सिंह के
देहावसान के पश्चात् राजपूती आन-बान तथा शौर्य के
प्रतीक, महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पौत्र प्रताप को
विक्रम संवत् १६२८ फाल्गुन शुक्ल १५, तद्नुसार १ मार्च
सन् १५७३ को मेवाड़ की राजगद्दी पर बिठाया गया।
अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की
यह वह समय था जब लगभग पूरे राजपूताना ने अकबर की
अधीनता स्वीकार कर ली थी। यहाँ तक कि राणा प्रताप के
भाई शक्ति सिंह भी मुगल बादशाह से जा मिले थे। महाराणा
प्रताप ही एक मात्र ऐसे शासक थे जिन्होंने अकबर की
अधीनता स्वीकार नहीं की।
राणा प्रताप जब सिंहासनारूढ़ हुए तब उसकी राजधानी
चित्तौड़ एवं उसकी मैदानी भूमि पर विदेशियों का अधिकार
हो गया था। प्रताप ने यह प्रतिज्ञा ली कि जब तक
चित्तौड़ पर शासन स्थापित नहीं कर लूँगा, चैन से नहीं
बैठूँगा, सोने-चाँदी के बरतनों में षट्रस भोजन न
करूँगा, पंलग छोड़कर जमीन पर चटाई पर सोऊँगा और जंगली
कन्द-फल-मूल का आहार करूँगा तथा सभी प्रकार के राज
सुखों से दूर रहूँगा। यही प्रतिज्ञा उन्होंने अपने
सैनिकों से भी ली। थोड़े से राजपूतों और भीलों की वीर
सेना के साथ राणा प्रताप अकबर जैसे प्रतापी बादशाह के
खिलाफ सदा लोहा लेते रहे।
पहाड़ी क्षेत्रों को बनाया
केन्द्र
उदयपुर पर यवन आसानी से आक्रमण कर सकते हैं, ऐसा विचार
कर तथा सामन्तों की सलाह से प्रताप ने उदयपुर छोड़ कर
कुम्भलगढ़ और गोगुंदा के पहाड़ी इलाके को अपना केन्द्र
बनाया। राजपूत वहाँ के चप्पे-चप्पे से अवगत थे जबकि
यवन अपरिचित। शस्त्रास्त्र और धनाभाव की पूर्ति के लिए
उन्होंने मेवाड़ के रास्ते सूरत जाते हुए मुगल
व्यापारियों को लूटने की अनुमति दे दी। इस प्रकार
उन्होंने धन एवं शस्त्र पर्याप्त मात्रा में जुटा लिए।
सिद्धान्तों के धनी
अकबर के सेनापति मानसिंह शोलापुर विजय करके लौट रहे
थे। महाराणा ने उनके स्वागत का प्रबंध उदयसागर पर
किया। स्वागत-सत्कार एवं परस्पर बातचीत के बाद भोजन का
समय आया। मानसिंह भोजन के लिए पधारे, किन्तु महाराणा
को न देखकर आश्चर्य में पड़ गये और उन्होंने महाराणा के
पुत्र अमरसिंह से इसका कारण पूछा। उसने बताया कि पिता
जी के सिर में दर्द है, वे भोजन पर आपका साथ देने में
में असमर्थ हैं। उधर, महाराणा प्रताप मानसिंह (जिसकी
बुआ जोधा बाई अकबर जैसे विदेशी से ब्याही गई थी) के
साथ भोजन करना अपना अपमान समझते थे। मानसिंह इस बात को
समझ गए और अपने अपमान का बदला लेने का निश्चय कर बिना
भोजन किए वहाँ से चले गए। आगे चलकर यही घटना हल्दी
घाटी के युद्ध का कारण बनी। अकबर को राणा प्रताप के इस
व्यवहार के कारण मेवाड़ पर आक्रमण करने का मौका मिल
गया।
मुगलों की विशाल सेना टिड्डी दल की तरह मेवाड़-भूमि की
ओर उमड पड़ी। उसमें मुगल, राजपूत और पठान योद्धाओं के
साथ जबरदस्त तोपखाना भी था। अकबर के प्रसिद्ध सेना पति
महावत खाँ, आसफ खाँ, महाराजा मानसिंह के साथ शाहजादा
सलीम भी उस मुगल वाहिनी का संचालन कर रहे थे, जिसकी
संख्या इतिहासकार ८० हजार से १ लाख तक बताते हैं।
रक्तरंजित हो उठी हल्दी घाटी
उस मुगल सेना का मुकाबला राणा प्रताप ने अपने बीस-बाईस
हजार सैनिकों के साथ किया। सन् १५७६ ईसवीं में हल्दी
घाटी की भूमि पर भीषण युद्ध हुआ। हल्दी घाटी की भूमि
रक्त रंजित हो उठी। प्रताप ने अद्भुत वीरता का परिचय
दिया। अन्त में राणा प्रताप को मुगलों की सेना ने घेर
लिया और उन्हें आहत कर दिया। ऐसी विकट परिस्थिति में
झाला नाम के वीर पुरुष ने उनका मुकुट और छत्र अपने सिर
पर धारण कर लिया। मुगलों ने उसे ही प्रताप समझ लिया और
वे उसके पीछे दौड़ पड़े। इस प्रकार उन्होंने राणा को
युद्ध क्षेत्र से निकल जाने का अवसर प्रदान कर दिया।
जब शक्तिसिंह का हृदय परिवर्तित
हो गया
शक्ति सिंह ने यह सब देख लिया था। उसने प्रताप का पीछा
किया, पीछा करने वाले दो और मुगल सैनिक भी थे। अकस्मात
शक्ति सिंह का हृदय परिवर्तित हुआ। उसने मुगल सैनिकों
को मार गिराया, प्रताप से अपने कुकृत्य के लिए
क्षमा-याचना की। दोनों भाइयों का मिलन राम-भरत के मिलन
से कम नहीं था। चेतक अपने स्वामी को सुरक्षित स्थान पर
पहुँचा कर स्वर्ग सिधार गया। दोनों बन्धुओं ने चेतक के
शव पर स्नेह और श्रृद्धा के अश्रुसुमन अर्पित किए और
शक्ति सिंह उन्हें अपना अश्व सौंप कर वापस लौट गया।
हल्दी घाटी से २ मील की दूरी पर बलीचा नामक गाँव के
पास जिस स्थान पर घायल चेतक गिरा था, वहाँ आज
स्वामीभक्त चेतक की समाधि बनी हुई है।
विपत्तियाँ हो गईं परास्त
धीरे-धीरे महाराणा प्रताप के सारे दुर्ग मुगलों के
अधिकार में चले गये। गोगुंदा और कुंभलगढ़ के किले हाथ
से निकल जाने पर उन्हें जंगल का आश्रय लेना पडा। वे
अनेक वर्षो तक दुर्गम पहाड़ों और निर्जन जंगलों में
भटकते फिरे। अकबर की सेना उनका पीछा करती रहती थी।
परिणामस्वरूप उन्हें अनेक संकटों का सामना करना पड़ा,
लेकिन इन विपत्तियों ने उनके उत्साह और स्वाभिमान को
और बढ़ा दिया। जंगली फल-फूलों और घास की रोटियों पर
उनके परिवार को गुजारा करना पड़ता था।
भामाशाह का ऐतिहासिक योगदान
इसी समय मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा प्रताप के
कदमों में अपनी अतुल सम्पत्ति रख दी। महाराणा इस
प्रचुर सम्पत्ति से पुनः सैन्य संगठन में लग गए।
चित्तौड़ और माण्डलगढ़ को छोड़ कर महाराणा ने अपने समस्त
दुर्गों को शत्रु से मुक्त करवा लिया। उदयपुर उनकी
राजधानी बना। अपने २५ वर्षो के शासन काल में उन्होंने
मेवाड़ की केसरिया पताका सदा ऊँची रखी।
शरीर त्याग से पूर्व लिया वचन
जीवन में अनेक संकटों, बाधाओं और अभावों के रहते हुए
भी जो शूरवीर शत्रु सेना के सम्मुख नहीं झुका वह अपनी
मृत्यु के समय अत्यंत निराश हुआ। सलुम्बर के रावत
द्वारा पूछे जाने पर प्रताप ने कहा- ‘‘मैं अपने पुत्र
अमर सिंह का स्वभाव जानता हूँ। वह आराम पसन्द है।
इसलिए मुझे उससे अपेक्षा नहीं कि वह विपत्ति सहकर
मेवाड़ और वंश के उज्ज्वल गौरव की रक्षा कर सके। यदि आप
मेरे पीछे मेरे देश के गौरव की सुरक्षा करने का वचन
दें तो मेरी आत्मा शांति के साथ इस शरीर को त्याग सकती
है।‘‘
इस पर सभी सरदारों ने बप्पा रावल की गद्दी की शपथ खाकर
मातृभूमि की रक्षा की प्रतिज्ञा ली। इस प्रतिज्ञा से
आश्वस्त हो महाराणा प्रताप ने विक्रम संवत् १६५३ माघ
शुक्ल ११, तदनुसार २९ जनवरी सन् १५९७ को शांतिपूर्वक
अपनी देह त्याग दी।
सदियाँ गुनगुनाएँगी प्रताप की
गाथा
महाराणा प्रताप एक वीर क्षत्रिय, स्वतन्त्रता के
पुजारी, आदर्श देश भक्त, त्याग की प्रतिमूर्ति,
रण-कुशल, अतुल पराक्रमी, दृढ़ प्रतिज्ञ अवतार थे।
जन्मभूमि ही उनके लिए सबसे अधिक प्यारी अमूल्य निधि
थी, वही स्वर्ग, वही सर्वस्व थी। आज भी मेवाड़ के
पाषाण-खण्ड महाराणा प्रताप के शौर्य और त्याग की कहानी
कह रहे हैं। वहाँ की मिट्टी का जर्रा-जर्रा कह रहा है-
‘‘माही ऐहडा पूत जण, जेहडा राणा प्रताप।
अकबर सूतो ओझके, जाण सिराणैं साँप‘‘ ॥
१२ अगस्त २०१२
|