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संस्मरण

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मेजर सुधीर वालिया
- शशि पाधा


रिश्ते! ये साहचर्य और स्नेह के रिश्ते कभी-कभी खून के रिश्ते से भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं और हमारे हृदय के सुरक्षित कोने में अनायास ही घर कर लेते हैं। मेरे साथ ऐसा कई बार हुआ है। अपनी पलटन के अधिकारियों और उनके परिवार से सहज ही ऐसा अटूट सम्बन्ध जुड़ जाता है कि उनका सुख-दुःख हमारा सुख-दुःख हो जाता है और बरसों के बाद मिलने पर भी ऐसा कभी नहीं लगता कि हम कभी बिछुड़े भी थे। ऐसा ही एक अटूट रिश्ता जुड़ा था मेरा मेजर सुधीर वालिया के साथ।

वर्ष १९९२ की बात है। एक रात मेरे पति की पलटन ९ पैरा स्पेशल फोर्सेस के कमान अधिकारी का फोन आया। फोन मेरे पति के लिए था किन्तु वो ट्रेनिंग पर गए थे। सिग्नल अफसर ने बताया कि साहब आप से कोई आवश्यक बात करना चाहते हैं। मैं समझ गयी, फौज में आवश्यक बात करना है, यानी कुछ तो हुआ है। मैंने कर्नल रंधावा से सम्पर्क किया। वे कुछ चिंतित लगे और बोले, “मैम, हमारी पलटन के कैप्टन सुधीर वालिया दिवाली की छुट्टी पर मोटर साइकल से अपने घर जा रहे थे। पठानकोट-जम्मू राजमार्ग पर उनका एक्सीडेंट हो गया है। उन्हें मिलिट्री हास्पिटल में ले जाया गया है। आप या सर वहाँ जाकर उनसे मिल लें। पलटन से सेवादार भेजने में समय लगेगा।”

मैं सुधीर से पहले कभी नहीं मिली थी। किन्तु पलटन ही हमारा परिवार है। इस समय वो हमारी छावनी में है। मेरे लिए उसके पास जाना बहुत ज़रूरी था। मैं तुरंत ही एक सहायक भैया को साथ लेकर पठानकोट छावनी के हस्पताल के एमरजन्सी रूम में पहुँच गई। पूछ्ताछ के बाद पता चला कि सड़क पर किसी राहगीर को बचाते हुए सुधीर की मोटरसाइकल गिर गई, उसमें आग लग गई और सुधीर बुरी तरह झुलस गए हैं। उन्हें बर्न वार्ड में रखा गया था।

अभी वे होश में थे अत: मैंने उनसे मिलने की अनुमति माँगी। किन्तु किसी कारणवश मुझे अनुमति नहीं मिली। मैं डाक्टर से यह कह कर आ गई कि वे मेजर सुधीर को अवश्य बता दें कि उनके सैनिक परिवार के कोई सदस्य आए थे और उन्हें विश्वास दिलाइयेगा कि वे अपने को अकेला न समझें।
सुबह होते ही मैं फिर से अस्पताल पहुँच गई। बर्न वार्ड के एक कमरे की ओर मुझे जाने के लिए बताया गया। सुधीर के बिस्तर के चारों ओर जाली बँधी हुई थी और वो उकडूँ होकर आधे लेटे थे या बैठे थे। उनके सारे शरीर पर मलहम का लेप था और जाली जैसे कपड़े की चादर उढ़ाई हुई थी। उनके पास खड़े उनके सहायक ने उन्हें मेरा परिचय दिया। मैंने थोड़ी दूर खड़े होकर ही कहा, “सुधीर बहुत तकलीफ़ होगी, लेकिन हिम्मत तो रखनी पड़ेगी।”
सुधीर के शरीर का ऊपरी भाग ज्यादा जला नहीं था। चेहरा तो बिलकुल ठीक था। पीठ और टाँगे बुरी तरह झुलसी हुई थी। मेरी ओर मुस्कुरा कर देखते हुए उन्होंने मेरा अभिवादन किया। उनकी तकलीफ़, उनकी पीड़ा को तो मैं देख ही सकती थी, इसीलिए मैंने वहां ज्यादा रुकना ठीक नहीं समझा।
आते-आते मैंने बड़े स्नेह से कहा, "सुधीर, पलटन के सभी अधिकारी आपके विषय में चिंतित थे, उन्हें क्या बताऊँ?”

बड़ी निर्णायक आवाज़ में वे बोले, “मैम, पलटन में बता दें कि मेरे घर में इस एक्सीडेंट की सूचना ना दें। क्योंकि पता लगते ही मेरी माँ भागी- दौड़ी आ जाएगीं और यहाँ पर मुझे ठीक होने में पता नहीं कितना समय लग जाये। दीवाली है, मेरी बहिन भी वहीं है, सारे लोग चिंतित हो जायेंगे।”
मैंने उससे बस यही कहा, “हम नहीं बतायेंगे, आप जब ठीक समझो, बताना, पर यह मत समझना कि यहाँ आप अकेले हैं। माँ नहीं आ पाएँगी, तो कोई बात नहीं, मैं तो हूँ, मैं हर रोज़ आऊँगी। अपना ख्याल रखना।”
उस दिन के बाद मैं लगभग हर रोज़ घर से खाना लेकर सुधीर के कमरे में जाती थी। वो अभी भी उसी अवस्था में बैठता था, कभी मैं और कभी उसका सहायक उसे खाना खाने में सहायता करते थे। वो असीम पीड़ा से कराहता था तो हमें बहुत दुःख होता था। पहले तो वो मुझसे झिझकता था फिर थोड़ा सहज हो गया था। धीरे-धीरे उसके घाव भर रहे थे। मैं कभी कुछ पत्र- पत्रिकाएँ, संगीत की सी डी उन्हें दे आती थी। दीवाली पर मेरे पति और मैं मिठाई आदि लेकर उसके पास गए थे और कई घंटे बैठ कर बातचीत की थी। हमारे दोनों बेटे भी अमेरिका में थे। इस तरह सुधीर के साथ दीवाली मना कर हमारा भी दिल बहल गया था।

कुछ दिनों के बाद हमारी पूरी पलटन हमारे कैंटोनमेंट में पैराड्रॉप के अभ्यास के लिए आई। सुधीर से मिलने की इच्छा भी इस स्थान के चुनाव का एक कारण हो सकता था। सभी अधिकारी अपने परिवार सहित सीधे अस्पताल गये। शाम को हमारे घर में भोजन के लिए सभी का निमंत्रण था। अचानक मैं देखती हूँ कि अपने हास्पिटल वाला नीला गाउन पहने सुधीर भी जीप से उतर रहे थे। उन्हें यहाँ तक आने की अनुमति किसने दी होगी, नहीं जानती| पर, उन्हें वहाँ आया देख कर बहुत खुशी हुई। आते ही बहुत झिझकते हुए बोले- “मैम, क्षमा करना, मैं ऐसे ही किसी से बिना पूछे वहाँ से निकल आया हूँ।”

किसी अफसर ने चुटकी लेते हुए कहा, “अरे तू तो कमांडो है, तेरी तो ट्रेनिंग में ही चुपके चुपके, छिप छिप कर, आना-जाना सिखाया जाता है। अब जैसे आया है, वैसे ही चले जाना।”
बहुत ही खुशनुमा वातावरण था। सुधीर को स्वस्थ देख कर सभी प्रसन्न थे। वे कुछ दिनों में अपने घर छुट्टी जाने के लिए भी बहुत उत्सुक थे।
सैनिक जीवन में हम आपस में मिले तो मिले, ना मिले तो बरसों ना मिले, पर पलटन ऐसी जगह है जहाँ पर हर किसी का बरसों का लेखा-जोखा पूछ लो। हम जब भी पलटन गए, पता चला सुधीर 'सियाचन ग्लेशियर' पर तैनात हैं। यह दुनिया में शायद सबसे दुर्गम और ऊँचा युद्धस्थल है, जहाँ शत्रु से अधिक बर्फानी तूफानों से लड़ना पड़ता है। सुधीर अपनी टीम के साथ दो बार छह–छह महीने के लिए इस बर्फीले ग्लेशियर पर सीमा सुरक्षा कर चुके थे। उन्हें उन्हीं दिनों दो बार ‘सेना मैडल’ से भी अलंकृत किया गया था।

मैं वो क्षण कभी नहीं भूल सकती जब मेरी भांजी इंदु ने मुझे सुबह-सुबह फोन किया था। मैं अपनी बीमार माँ की देख-भाल के लिए जम्मू गई हुई थी। उसने बिना नमस्ते कहे, मुझसे सीधे पूछा, “मासी, आज की अखबार देखी?”
मेरे ‘नहीं’ कहने पर बोली, “कश्मीर में आतंकवादियों से मुठभेड़ में आपकी पलटन के एक मेजर के बलिदान का समाचार आया है, क्या आप उसे जानते हो?”

मुझे यह कभी भी समझ नहीं आयेगा कि मैंने यह क्यों कहा, “सुधीर वालिया तो नहीं?”
उसने बस ‘हाँ’ में उत्तर दिया। मैं अवाक सी शून्य में देखती रही। मैंने ऐसा क्यों कहा कि ‘सुधीर' तो नहीं! यह प्रश्न शायद मैं उम्र भर अपने से पूछती रहूँगी, किन्तु इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं होता। कभी कभी कोई अनहोनी कहीं अन्य स्थान पर घटती है और आपको दूर बैठे ही उसका अहसास हो जाता है। या शायद कभी पलटन में किसी से बातचीत करते हुए सुना होगा कि सुधीर श्रीनगर में तैनात हैं। अभी तक, जब यह सोचती हूँ तो पूरे शरीर में एक कंपकंपी सी होती है। मेजर सुधीर की शाश्वत जीवन गाथा कहाँ से आरम्भ करूँ! उनके जीवन का एक- एक पल वीरता, साहस और बलिदान की गाथा है। उनके महाप्रयाण के बाद जो भी मैंने पलटन में उनके मित्रों से सुना, पलटन के इतिहास में पढ़ा, वो आज आप सब के साथ साझा करते हुए मैं गर्व और दुःख दोनों का ही अनुभव कर रही हूँ।

कारगिल युद्ध के आरम्भिक दिनों में सुधीर उस समय के सेनाध्यक्ष जनरल वी.पी. मल्लिक के सुरक्षा अधिकारी के रूप में तैनात थे। ९ पैरा स्पेशल फोर्सेस उन दिनों युद्धक्षेत्र में तैनात थी। सुधीर नहीं चाहते थे कि वो अपनी टीम से दूर दिल्ली में रहें। उन्होंने जनरल मल्लिक से युद्ध क्षेत्र में जाने की अनुमति माँगी, जो उन्हें सहर्ष मिल गई। पलटन में आते ही केवल दस दिनों के बाद अधीर सुधीर को उनकी टीम के साथ कश्मीर के ‘ज़ुलु’ पहाड़ी क्षेत्र में भेज दिया गया। इस क्षेत्र में सुधीर के नेतृत्व में उनकी टीम का पाकिस्तानी सेना के साथ भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें शत्रु के १३ जवान मारे गये थे। इस मुठभेड़ में हमारी पलटन की कम से कम हानि हुई थी। युद्ध नीति के नियमों के अनुसार यह बहुत गर्व की बात थी। यह अभियान ज़ुलु क्षेत्र में २५ जुलाई १९९९ को पूर्ण हुआ था। इस अभियान के लिए मेजर सुधीर का नाम ‘वीर चक्र’ के पदक के लिए चयनित किया गया था। इस महत्वपूर्ण अभियान एवं पलटन के अन्य वीरतापूर्ण अभियानों को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने ९ पैरा स्पेशल फोर्सेज को ‘Bravest of Brave’ की गौरवपूर्ण उपाधि से विभूषित किया था। इस अभियान के केवल एक दिन बाद २६ जुलाई को विजय दिवस मनाने की घोषणा भी हुई थी।

सीमाओं पर तो युद्धविराम की घोषणा हो चुकी थी किन्तु सुधीर के लिए युद्ध की समाप्ति अभी नहीं हुई थी। कश्मीर घाटी के घने जंगलों में आतंकवादी अभी छिपे हुए थे। ढूँढ-ढूँढ कर उन्हें नष्ट करना ही अब भारतीय सेना का मुख्य ध्येय था और इस कार्य के लिए ९ पैरा स्पेशल फोर्सेस पूरी तरह समर्थ थीं। (जंगल वार फेयर, माउंटेन वारफेयर स्पेशल फोर्सेज के प्रशिक्षण का एक महत्वपूर्ण अंग है। घने जंगलों में या पहाड़ी गुहाओं में छिपे शत्रु के साथ युद्ध करना पारम्परिक युद्ध कला से भिन्न होता है। यहाँ छिपे शत्रु को ढूँढना पड़ता है, और उस पर अकस्मात वार करना होता है)

अगस्त १८-२९ १९९९ की रात ९ पैरा की टीम को मेजर सुधीर के नेतृत्व में कश्मीर के कुपवाड़ा क्षेत्र में ‘हाफरुदा’ नाम के घने जंगलों में छिपे आतंकवादियों के गिरोह को समाप्त करने के लक्ष्य से भेजा गया। अपनी युद्ध योजना के अनुसार सुधीर ने अपनी टीम को दो भागों में बाँट दिया। सारी रात शत्रु की टोह लेते हुए वो जंगलों में आतंकियों के होने के सुराग ढूँढते रहे। सुबह के झुटपुटे में उन्हें एक जंगली झरने के पास किसी के वहाँ थोड़ी ही देर पहले होने के चिह्न मिले। वो समझ गए कि शत्रु कहीं आस पास ही है। अगर कुछ देर हो जाए तो वे अपनी जगह बदल सकते हैं।

बिना समय गँवाए सुधीर अपने पाँच साथियों के साथ जंगल की ओर बढ़े। कुछ ही दूरी पर उन्होंने छिपे हुए आतंकवादियों की दबी दबी आवाजें सुनीं। आवाज़ के सूत्र को पकड़ते हुए सुधीर स्वयं अपने एक और साथी 'लांस नायक खीम सिंह’ को साथ लेकर रेंगते-रेंगते पहाड़ी के टीले पर पहुँच गये। वहाँ से केवल ४ मीटर की दूरी पर उन्होंने देखा कि दो आतंकी किसी स्थान की पहरेदारी में खड़े थे| बारीकी से देखने पर उन्होंने लगभग १५ मीटर नीचे जंगली पत्तों - टहनियों से ढका एक आश्रय स्थल देखा जो कि आतंकियों के छिपने का स्थान हो सकता था। निर्भीक सुधीर ने बिना समय गँवाए पहरेदार पर गोलियाँ दागनी शुरू कर दी। उनमें से एक तो वहीं पर ढेर हो गया और दूसरा घायल होकर उस आश्रय स्थल की ओर भागा। अब उन्हें यह यकीन हो गया कि शत्रु इसी स्थान पर छिपा है। सुधीर और उनके साथी गोलियाँ दागते हुए शत्रु के छिपने के स्थान की ओर बढ़े। आतंकी इस अकस्मात प्रहार से सकते में आ गए और अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। देखते ही देखते चार आतंकी सुधीर की गोलियों का निशाना बने और वहीं समाप्त हो गए। उनमें से किसी ने सुधीर और खीम सिंह पर जवाबी वार किया और यह दोनों भी घायल हो गए। सुधीर ने अपने रेडियोसेट पर टीम के बाकी साथियों को संदेश दिया कि अमुक क्षेत्र का घेरा डाले रहें ताकि दुश्मन वहाँ से बाहर भाग ना पाए।

सुधीर बुरी तरह घायल थे। उनके शरीर से रक्त प्रवाह हो रहा था किन्तु वे लगभग ३५ मिनट तक अपने रेडियो सेट पर अपने साथियों का नेतृत्व करते रहे। जब जवाबी गोली की आवाज़ बंद हुई तभी उन्होंने अपने को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए हामी भरी। तब तक बहुत समय हो चुका था। उन जंगलों की मिट्टी में परमवीर सुधीर का रक्त धीरे-धीरे विलीन होता जा रहा था। उनके साथी बताते हैं कि बलिदान के अंतिम क्षणों में भी वो बहुत सधे हुए शब्दों में अपनी टीम का नेतृत्व कर रहे थे और उनका रेडियो सेट उनके हाथ में ही था। सुधीर केवल ३१ वर्ष के थे। २९ अगस्त की सुबह भारत माँ ने एक और वीर सदा के लिए खो दिया था। भारत के राष्ट्रपति ने उनकी इस अतुलनीय वीरता के लिए उन्हें भारत के सर्वोच्च पदक ‘अशोक चक्र' से विभूषित करने की घोषणा की।

२६ जनवरी २०००, के गणतन्त्र दिवस के समारोह में मेजर सुधीर के पिता रिटायर्ड सूबेदार रुलिया राम ने जब यह पदक राष्ट्रपति से ग्रहण किया तो हजारों भारतीयों की ऑंखें नम तो थीं पर हृदय गर्व से परिपूर्ण था। मैं स्वयं अपने पति के साथ टेलीविजन के सामने बैठी इस रोमांचक पल को देख रही थी और सोच रही थी, “उस दिन तुम एक्सीडेंट में आग से इस लिए बच गये थे कि तुम्हें अपने जीवन में भारत माँ को आतंकियों से बचाने का श्रेयस्कर कार्य करना था।” टेलीविजन से उनके पिता का इंटरव्यू प्रसारित हो रहा था। भावुक हो कर उन्होंने कहा, “मैंने तो केवल उसे अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया था, पहाड़ियाँ चढ़ना तो वो स्वयं ही सीख गया।”

सुधीर के पिता अपने बेटे के बारे में बात करते हुए अक्सर यह बताते हैं कि सुधीर के प्रशिक्षण में उसके स्कूल ‘सैनिक स्कूल सुजानपुर टीरा’ का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। यहीं पर सुधीर ने कक्षा छह से दस तक की शिक्षा ग्रहण की। उन्हीं दिनों सुधीर मानसिक और शारीरिक रूप से एक सफल, कुशल एवं योग्य सैनिक अधिकारी के रूप में तैयार हो रहा था। यह एक ऐसा स्कूल है जहाँ कारगिल युद्ध के अन्य वीर कैप्टन विक्रम बत्रा (अशोक चक्र) और मेजर संजीव जामवाल भी छात्र थे। मैं अपने इस संस्मरण के माध्यम से उस स्कूल के अध्यापकों और प्रधानाध्यापक का भी नमन करना चाहूँगी जिन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों में निष्काम देश सेवा, चरम बलिदान, साहस और शूरवीरता की भावना कूट कूट कर भरी होगी।

जंगलों और पहाड़ियों में युद्ध के दाँव-पेंच में दक्ष सुधीर ने छह मास तक अमेरिका में भी प्रशिक्षण प्राप्त किया था। उनके पिता बताते हैं कि वहाँ ८० देशों से सैनिक अधिकारी कोर्स कर रहे थे और सुधीर ने अपनी लगन और मेहनत से वहाँ पर कोर्स में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। ९ पैरा स्पेशल फोर्सेस हर वर्ष १ जुलाई को अपना स्थापना दिवस मनाती है। हम जब भी वहाँ जाते हैं तो मेस की दीवार पर और मोटिवेशन हाल में सुधीर की तस्वीरें लगी हुई दिखती हैं। उसमें वो तस्वीर भी है जब वो अपनी पलटन के परिवार से मिलने अस्पताल का नीला गाउन पहन के चुपके से हमारे घर आए थे।
उधमपुर में मुख्य आफिस के ठीक बाहर और मेस के सामने एक स्तम्भ पर मेजर सुधीर वालिया, मेजर अरुण जसरोटिया और पैरा ट्रूपर संजोग छत्री की कांस्य धातु में गढ़ी हुई मूर्तियाँ लगी हुई हैं। मैं अपने पाठकों को याद दिला दूँ कि ये तीनों वीर अपनी वीरता और बलिदान के लिए प्रदान किये जाने वाले सर्वोच्च पदक ‘अशोक चक्र’ से अलंकृत हैं। उस दिव्य स्थान के पास खड़े होते ही हर प्राणी का शीश श्रद्धा से झुक जाता है।

हर दो-तीन वर्ष के बाद पलटन के अधिकारी और उनके परिवार बदलते रहते हैं। कई कोर्स पर जाते हैं और कइयों का स्थानान्तरण हो जाता है, किन्तु इन वीरों के बलिदान की शाश्वत गाथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाती रहेंगी। हर वर्ष स्थापना दिवस के भव्य समारोह में सुधीर के माता- पिता भी आमंत्रित होते हैं। सुधीर के मित्रों से मिल कर उन्हें बहुत सांत्वना मिलती है। सुधीर की माँ श्रीमति राजेश्वरी देवी ने एक बार सैनिक परिवार कल्याण केंद्र में सैनिक पत्नियों को संबोधित करते हुए कहा था, “यहाँ आकर लगता है सुधीर कहीं नहीं गया, वो यहीं कहीं आपके आस-पास, आपके बच्चों में बैठा हुआ है। अगर वो फिर से उठ कर आ जाए तो मैं उसे फिर से भारत माँ की सेवा के लिए इसी पलटन में भेज दूँगी।”
शब्द कम पड़ जाते हैं ऐसे वीरों और उनकी माताओं के सन्दर्भ में कुछ भी लिखने में। मुझे कभी-कभी लगता है ऐसी शूरवीरता, संकल्प और बलिदान के उपमान के लिए विश्व के किसी शब्दकोष में अभी तक कोई शब्द लिखा ही नहीं गया है। फिर मैं अपनी इस निर्जीव लेखनी से क्या लिखूँ! 

 

१५ जनवरी २०१७

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