स्वाधीनता
दिवस
के अवसर पर
स्वतंत्रता सेनानी
मदारी पासी
- डॉ. अशोक शुक्ल
भारत के
स्वतंत्रता संग्राम में हरदोई जनपद के योगदान की चर्चा करते
हुये संग्राम सेनानी मदारी पासी का नाम बरबस ही याद आ जाता है।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन पर जब राष्ट्रीय कांग्रेस का
कब्जा हो गया तो आम ग्रामीण भारतीयों की समस्या को आगे बढ़ाने
के लिये जो छोटे छोटे नेतृत्व और संगठन पनपे उन्हीं में से एक
था मदारी पासी का एका आन्दोलन। अवध क्षेत्र में जमींदारों के
उत्पीड़न से उपजा किसान आन्दोलन अलग अलग क्षेत्रों में भिन्न
भिन्न नामों से पनपा। प्रतापगढ़ में इसका नाम तीसा आन्दोलन रहा
और इसके नायक रमाचंदर किसान रहे तो अवध के संडीला मदारी पासी
के साथ जुड़कर इसका नाम एका आन्दोलन हो गया। तत्कालीन दलित
समाज की भूमि संबंधी समस्याओं और उनको संगठित करने के प्रयास
के रूप में इस आन्दोलन का ऐतिहासिक महत्व है। यह भी सच है कि
मदारी पासी के नाम को जनपद के इतिहास में वह स्थान नहीं मिल
सका जिसके वे हकदार थे। मदारी पासी के जन्म के सम्बन्ध में कोई
प्रमाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है परन्तु इनकी मृत्यु के
साक्ष्य के रूप में ग्राम पहाड़पुर, ब्लॉक भरावन, तहसील
सण्डीला, जनपद हरदोई में इनकी एक समाधि अवश्य उपलब्ध है जो
संरक्षण के अभाव में तिरस्कृत पड़ी है।
अवध क्षेत्र में मदारी पासी महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में
प्रसिद्ध रहे हैं और जमींदारों के विरूद्ध आजादी के एका आंदोलन
में अपनी एक बहुत बड़ी भूमिका के लिये याद किये जाते हैं। उनके
आन्दोलन के संबंध में अंग्रेजी गजेटियर में जो भाग अंकित हैं
उसका भावाअनुवाद इस प्रकार है- ‘’कांग्रेस के संरक्षण में सन
१९२१ के आरंभ में हरदोई में किसान सभा आन्दोलन जो एका के नाम
से प्रसिद्ध था आरंभ हुआ। जमींदारों द्वारा बुरी तरह शोषित और
सरकार द्वारा उपेक्षित निर्धनता के दलदल में दबा किसान वर्ग,
जिसकी स्थिति खेतिहर मजदूरों से थोड़ी भी अच्छी न थी, अपने
दोहरे मालिकों सरकार और जमींदारों के विरूद्ध शस्त्रहीन और
अहिंसक विद्रोह करने के लिये उठ खड़ा हुआ। पूरी तहसील सण्डीला,
आधी तहसील हरदोई और तहसील बिलग्राम के एक भाग में दिन प्रतिदिन
इस आन्दोलन का प्रभाव फैलता और तेजी पकड़ता चला गया आसामियों
की बड़ी बड़ी सभायें आयोजित की गई इनमें हजारों कांग्रेस के
चार आने के सदस्य बनाये गये और जमींदारों द्वारा दायर किये गये
बेदखली के मुकदमों को लड़ने के लिये एक सुरक्षित कोष आरंभ कर
दिया गया। जमींदारों के न्यायरहित मार्गों के विरूद्ध संगठित
होने, किसान भाइयों के विरूद्ध मुकदमेबाजी से बाज आने और अपराध
न करने की शपथें ली गयीं। पंचायते बनायी गयीं और आसामियों के
आपसी झगड़ों को निपटाने के लिये पंच नामजद किये गये। न्याय
विरूद्ध करों की अदायगी रोक दी गयी किन्तु खातों पर चढ़े लगान
की अदायगी हो जाने दी गयी। इस आन्दोलन की शक्ति और लोकप्रियता
का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अकेले एक ही पुलिस
सरकिल में तीन दिन में इक्कीस एका सभाएँ की जाने की सूचना जिला
कार्यालय को मिली। इन सभाओं में १५. से लेकर २... तक की संख्या
में व्यक्ति सम्मिलित हुये। मार्च १९२२ में पुलिस जब ऐका सभा
के बारे में पूछताछ कर रही थी उसे गोली चलानी पड़ी जिसमें दो
आदमियों की मृत्यु हो गयी थी और बहुत से घायल हो गये थे किसान
आन्दोलन के अंतर्गत प्रदर्शन प्रतिदिन होने लगे थे और सरकारी
दफ्तरों व अदालतों का घेराव किया जाने लगा।‘’
सुप्रसिद्ध कथाकार श्रदेय कामतानाथ जी ने मदारी पासी को आधार
में रखकर एक लोकप्रिय उपन्यास कालकथा लिखा है जिसमें कायस्थ
परिवार के कानूनगो के परिवार के माध्यम से मदारी पासी के
नेतृत्व की कथा को उजागर किया है। जिसका कथा सार इस प्रकार है-
''उन्नाव के एक गाँव चंदन पुर में कानून गो मुंशी रामप्रसाद
रहा करते थे। जिनके पास खेती के साथ-साथ कानून गो जैसी नौकरी
के कारण गाँव में काफी रसूख था और गाजी खेड़ा के ताल्लुकेदार
अब्दुल गनी जैसे लोग भी उन्हें बराबरी का मान देते हैं। मुंशी
जी के तीन बेटे हैं। जिसमें से बड़े लक्ष्मी गाँव में रहते हैं
और मझले लखनऊ कचहरी में पेशकार हैं तथा तीसरा दसवीं में कई बार
बैठता है पर हर बार फेल हो जाने के कारण लखनऊ चला जाता है
नौकरी के लिए। बड़े बेटे लक्ष्मी का बेटा बच्चन भी चाचा के पास
चला जाता है लेकिन जल्दी ही वह लखनऊ में चल रहे राजनीतिक
आंदोलनों के प्रभाव में आ जाता है। बस इसी बच्चन के सहारे पूरे
उपन्यास का तानाबाना बुना गया है। बच्चन कांग्रेस के विदेशी
वस्त्रों की होली जलाए जाने के आंदोलन से शुरू कर खुद को
क्रांतिकारियों के बीच जल्द ही पाता है और तब उसे पकड़ कर
लाहौर ले जाया जाता है जहाँ उसे फाँसी दे दी जाती है। लेकिन
इसके बीच उस समय अवध के गाँवों में चल रहे आंदोलन को भी बखूबी
उघाड़ा गया है।
सबसे ज्यादा अपील करता है मदारी पासी का आंदोलन, जो एक मिथकीय
चरित्र जैसा लगता है लेकिन उसके आंदोलन ने न सिर्फ सांप्रदायिक
सद्भाव पैदा किया वरन् गाँवों में नीची कही जाने वाली जातियों
में ऐसा रोमांच पैदा किया कि गाँवों के बड़े बड़े रसूख वाले
लोगों को उनसे बेगार लेना या उनकी औरतों के साथ बदतमीजी महँगी
पड़ऩे लगी। लेकिन इसके लिए मदारी ने उन्हें तैयार किया। मदारी
के पहले चंदन पुर के पास की अछूत बस्ती दुर्जन खेड़ा में मुंशी
जी के बेटे के रिश्ते के साले तेज शंकर, जो कांग्रेस के
समर्पित सिपाही हैं, एक चेतना पैदा करते हैं। बूढ़े खूंटी की
पुत्रवधू टिकुली के रूप में वहाँ तेजशंकर को ऐसी साहसी महिला
मिलती है जो उस पूरे इलाके में गाँधी जी के आंदोलन को हवा देती
है। टिकुली का ही साहस था कि वहाँ मदारी पासी अपनी सभा कर पाते
हैं वर्ना अब्दुल गनी और ठाकुर ताल्लुकेदार उस पूरी बस्ती को
तहस-नहस कर डालने पर तुले थे। उन्नाव, लखनऊ और सीतापुर व हरदोई
में मदारी पासी की लोकप्रियता बिल्कुल गाँधी जी की तर्ज पर कुछ
अलौकिक किस्म की थी। मसलन उनके बारे में कहा जाता था कि वो
हनुमान जी की तरह उड़कर कहीं भी पहुंच जाते हैं। गाँधी जी के
साथ उनका चरखा जाता था और मदारी पासी के साथ उनकी चारपाई और
छोटी कही जाने वाली अछूत जातियां उन्हें भगवान की तरह मानती
थी। पासी जातियां उन्हें अपना गाँधी ही मानती थीं और उनके बारे
में वे गर्व से कहती थीं कि – ‘’उईं हमार पंचन के गाँधी आंय’’
(उपरोक्त कथा सार श्री शंभूनाथ शुक्ल जी के आलेख से साभार)
यह कहा जा सकता है कि उपन्यास के एक चरित्र के रूप में
प्रदर्शित मदारी पासी का चरित्र अतिशयोक्तिपूर्ण व्याख्यानों से
भरा हो सकता है और यह प्रमाणिक इतिहास नहीं हो सकता इसमें
फिक्शन का तत्व अधिक हो सकता है परन्तु निर्विवाद रूप से यह
मदारी पासी के तद्समय दलित नेतृत्व के रूप में उभरने को तो
प्रमाणित ही करता है।
मदारी पासी के संबंध में जनपद सीतापुर के स्वतंत्रता संग्राम
सेनानी स्व. पं. मथुरा प्रसाद मिश्र वैद्य जी जो मेरे नाना थे
से सुना एक किस्सा याद आता है जब उन्होंने बताया था कि आजादी
के आन्दोलन के दौरान एक बार उनके गाँव कोदिकापुर में गाँधी जी
के आने की बहुत चर्चा थी। आदरणीय नाना जी राजवैद्य थे और साथ
ही कांग्रेसी नेता भी थे सो उन के गाँव में कांग्रेस का इतना
बड़ा नेता आने वाला हो और उन्हें इसकी सूचना का पत्र न मिले यह
असंभव था इसलिये उन्होंने उन दिनों संचार के साधन के एकमात्र
प्रतिनिधि डाकघर रामगढ़ से जानकारी ली तो पता चला कि गाँधी जी
का कोई कार्यक्रम नहीं है। उन्होंने बताया कि दो दिनों के बाद
स्थानीय साप्ताहिक बाजार स्थल मोहकमगंज में दलित समुदाय का एक
सम्मेलन हुआ जिसमें जमींदारों को लगान न देने और अस्पृश्यता के
विरूद्ध आवाज उठाने हेतु काफी संख्या में लोग इकट्ठा हुये थे।
इस सम्मेलन में मदारी पासी ने आकर दलितों को रोटी और मांस की
शपथ खिलायी संभवतः इसी प्रसंग से प्रेरणा लेकर कामतानाथ जी ने
अपने उपन्यास कालकथा में दलितों के गाँधी के रूप में मदारी
पासी को चित्रित किया है।
मदारी पासी के किसी गाँव में जाने के पहले उनके लोग उस गाँव
में जाते और इन नीची जातियों को एक पोटली को छुआकर कसम दिलाते
कि वे एक रहेंगे। इस पोटली में एक ज्वार की रोटी और एक टुकड़ा
मांस का होता। इसमें रोटी का मतलब होता- ‘’ईका मतलब है कि हमार
पंचन की लड़ाई रोटी की है या समझ लेव कि पेट की आय अउर मांस का
मतलब कि इस लड़ाई में अपने सरीर का मांस तक देंय पड़ सकत है।‘ |