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सुभद्राकुमारी चौहान अपने नाटककार पति
लक्ष्मणसिंह के साथ शादी के महज़ डेढ़ साल के भीतर ही
सत्याग्रह में शामिल हो गईं और जेलों में ही जीवन के
अनेक महत्वपूर्ण वर्ष गुज़ारे। गृहस्थी और नन्हे-नन्हे
बच्चों का जीवन सँवारते हुए उन्होंने समाज और राजनीति
की सेवा की। देश के लिए कर्तव्य और समाज की
ज़िम्मेदारी सँभालते हुए उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ
की बलि चढ़ा दी-
न होने दूँगी अत्याचार, चलो मैं हो जाऊँ बलिदान।
सुभद्राकुमारी की कविता
'झाँसी की रानी' महाजीवन की महागाथा है। कुछ पंक्तियों
की इस कविता में उन्होंने एक विराट जीवन का महाकाव्य
ही लिख दिया है। इस कविता में लोकजीवन से प्रेरणा लेकर
लोक आस्थाओं से उधार लेकर जो एक मिथकीय संसार उन्होंने
खड़ा किया है उससे 'झाँसी की रानी' के साथ सुभद्रा जी
भी एक किंवदंती बन गई हैं। भारतीय इतिहास में यह
शौर्यगीत सदा के लिए स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो
गया है-
सिंहासन हिल उठे,
राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
आज हम जिस
धर्मनिरपेक्ष समाज के निर्माण का संकल्प लेते हैं और
सांप्रदायिक सद्भाव का वातावरण बनाने के लिए
प्रयत्नशील हैं- सुभद्रा जी ने बहुत पहले अपनी कविताओं
में भारतीय संस्कृति के इन प्राणतत्वों को रेखांकित कर
दिया था-
मेरा मंदिर, मेरी
मस्जिद, काबा-काशी यह मेरी
पूजा-पाठ, ध्यान जप-तप है घट-घट वासी यह मेरी।
कृष्णचंद्र की क्रीड़ाओं को, अपने आँगन में देखो।
कौशल्या के मातृमोद को, अपने ही मन में लेखो।
प्रभु ईसा की क्षमाशीलता, नबी मुहम्मद का विश्वास
जीव दया जिन पर गौतम की, आओ देखो इसके पास।
सुभद्राकुमारी चौहान
का जन्म नागपंचमी के दिन १६ अगस्त १९०४ को इलाहाबाद के
पास निहालपुर गाँव में हुआ था। पिता का नाम ठाकुर
रामनाथ सिंह था। सुभद्राकुमारी की काव्य प्रतिभा बचपन
से ही उजागर हो गई थी। १९१३ में नौ साल की उम्र में
सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका
मर्यादा में छपी थी। 'सुभद्राकुँवरि' नाम से छपी यह
कविता 'नीम' के पेड़ पर लिखी गई थी। सुभद्रा अपनी
बहनों के साथ स्कूल जाती और स्कूल की चारदीवारी के
भीतर दौड़-भाग और खेलकूद की पूरी स्वतंत्रता थी।
सुभद्रा चंचल और कुशाग्र बुद्धि थी। पढ़ाई में अव्वल
आने का उसको इनाम मिलता था। सुभद्रा अत्यंत शीघ्र
कविता लिख डालती, गोया उसको कोई प्रयास ही न करना
पड़ता हो। स्कूल के काम की कविताएँ तो वह साधारणतया घर
से आते-जाते इक्के में लिख लेती थी। इसी कविता की वजह
से भी स्कूल में उसकी बड़ी चाहत थी।
सुभद्रा और महादेवी
वर्मा दोनों बचपन की सहेलियाँ थीं। बड़ी होने पर इन
दोनों ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत नाम कमाया।
दोनों ने एक-दूसरे की कीर्ति से सुख पाया। ईर्ष्या की
मलिनता उनके बचपन की मैत्री को मलिन नहीं कर पाई।
सुभद्रा की पढ़ाई
नवीं कक्षा के बाद छूट गई। गांधी जी की असहयोग की
पुकार को पूरा देश सुन रहा था। सुभद्रा ने भी स्कूल से
बाहर आकर पूरे मन-प्राण से असहयोग आंदोलन में अपने को
झोंक दिया- दो रूपों में। एक तो देश-सेविका के रूप में
और दूसरे, देशभक्त कवि के रूप में। 'जलियांवाला बाग'
(१९१७) के नृशंस हत्याकांड से उनके मन पर गहरा आघात
लगा। उन्होंने तीन आग्नेय कविताएँ लिखीं। 'जलियाँवाले
बाग़ में वसंत' में उन्होंने लिखा-
परिमलहीन पराग
दाग़-सा बना पड़ा है
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना
यह है शौक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर।
भाई ने जब सुभद्रा का विवाह नाटककार लक्ष्मण सिंह के
साथ तय कर दिया तो सुभद्रा की अध्यापिका ने कहा कि आप
इस लड़की का विवाह न करें, यह तो एक ऐतिहासिक लड़की
होगी। इसका विवाह करके आप देशका बड़ा नुकसान करेंगे।
आगे चलकर यही लड़की सुभद्राकुमाही चौहान हुई,
जिन्होंने 'झाँसी की रानी' जैसी ऐतिहासिक कविताएँ
लिखीं और जो देश की आज़ादी के लिए अनेक बार जेल गईं।
सुभद्रा की शादी अपने
समय को देखते हुए क्रांतिकारी शादी थी। न लेन-देन की
बात हुई, न बहू ने पर्दा किया और न कड़ाई से छुआछूत का
पालन हुआ। दूल्हा-दूलहन एक-दूसरे को पहले से जानते थे,
शादी में जैसे लड़के की सहमति थी, वैसे ही लड़की की भी
सहमति थी। बड़ी अनोखी शादी थी- हर तरह लीक से हटकर।
ऐसी शादी पहले कभी नहीं हुई थी।
जबलपुर से दादा
माखनलाल चतुर्वेदी कर्मवीर निकालते थे। उसमें लक्ष्मण
सिंह को नोकरी मिल गईं। सुभद्रा भी उनके साथ जबलपुर आ
गईं। सुभद्रा जी सास के अनुशासन में रहकर मात्र सुघर
गृहिणी बनकर संतुष्ट नहीं थीं। उनके भीतर जो तेज था,
काम करने का उत्साह था, कुछ नया करने की जो लगन थी,
उसके लिए घर की चारदीवारी की सीमा बहुत छोटी थी।
सुभद्रा जी में लिखने की प्रतिभा थी और अब पति के रुप
में उन्हें ऐसा व्यक्ति मिला था जिसने उनकी प्रतिभा को
पनपने के लिए उचित वातावरण देने का प्रयत्न किया।
दोनों पति-पत्नी
मन-प्राण से कांग्रेस का काम करने लगे। सुभद्रा
महिलाओं के बीच जाकर स्वाधीनता संग्राम का संदेश
पहुँचाने लगीं। वे उन्हें स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने,
पर्दा छोड़ने, छुआछूत और ऊँच-नीच की संकीर्ण भावनाओं
से ऊपर उठने की सलाह देती थी। स्त्रियाँ सुभद्रा की
बातें बड़े ध्यान से सुनती थीं। १९२०-२१ में मध्यवर्ग
की बहुओं में प्रगतिशील मूल्यों का संचार करने में
सुभद्रा ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
१९२०-२१ में सुभद्रा
और लक्ष्मण सिंह दोनों अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के
सदस्य थे। १९२०-२१ में सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह ने
नागपुर कांग्रेस में भाग लिया और घर-घर जाकर कांग्रेस
का संदेश पहुँचाया। त्याग और सादगी के आवेश में आकर
सुभद्रा जी सफ़ेद खाकी की बिना किनारी धोती पहनती थीं।
गहनों और कपड़ों की बहुत शौकीन होते हुए भी उनके हाथों
में न तो चूड़ियाँ थीं और न माथे पर बिंदी। आखिर बापू
ने सुभद्रा जी से पूछ ही लिया, ''बेन! तुम्हारा ब्याह
हो गया है?'' सुभद्रा ने कहा, ''हाँ!'' और फिर उत्साह
में आकर बताया कि मेरे पति भी मेरे साथ आए हैं। इस बात
को सुनकर बा और बापू जहाँ आश्वस्त हुए वहाँ कुछ नाराज़
भी हुए। बापू ने सुभद्रा को डाँटा, ''तुम्हारे माथे पर
सिंदूर क्यों नहीं है और तुमने चूड़ियाँ क्यों नहीं
पहनीं? जाओ, कल किनारे वाली साड़ी पहनकर आना।''
कुछ न कुछ जादू
सुभद्रा जी में अवश्य था और यह जादू ऐसा था जिसका
प्रभाव अकेले उनके पति लक्ष्मण सिंह पर नहीं, बल्कि
अन्य सब लोगों पर भी पड़ा जो किसी भी उनके संपर्क में
आया और वह जादू था सुभद्रा जी के सहज स्नेही मन और
निश्छल स्वभाव का। उनका जीवन प्रेम से भरा था और
निरंतर निर्मल प्यार लुटाकर भी खाली नहीं होता था।
१९२२ का जबलपुर का
झंडा सत्याग्रह देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्रा
जी की पहली महिली सत्याग्रही थीं। रोज़-रोज़ सभाएँ
होती थीं और जिनमें सुभद्रा भी बोलती थीं। टाइम्स ऑफ
इंडिया के संवाददाता ने अपनी एक रिपोर्ट में उनका
उल्लेख 'लोकल सरोजिनी' कहकर किया था।
सुभद्रा जी में बड़े
सहज ढंग से गंभीरता और चंचलता का अद्भुत संयोग था। वे
जिस सहजता से देश की पहली स्त्री सत्याग्रही बनकर जेल
जा सकती थीं, उसी तरह अपने घर में, बाल-बच्चों में और
गृहस्थी के छोटे-मोटे कामों में भी रमी रह सकती थीं।
सुभद्रा जी की
जीवन-दृष्टि जीवन को नकारने की नहीं, बल्कि स्वीकारने
की थी। उनकी कविताएँ दस-ग्यारह वर्षों से
पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही थीं। कविता उनके मन की
तरंग थी। उनकी कविताएँ मन के भीतर छटपटाते भावों को,
सहज-सरल रूप में अभिव्यक्ति देने वाली हैं। उनमें
शिल्प का वैसा सौष्ठव नहीं है और न पच्चीकारी का वैसा
कोई चमत्कार ही है। अपनी सादगी और सहजता में सुभद्रा
जी की कविताएँ लोककाव्य के बहुत निकट की जान पड़ती
हैं। उनमें एक देशाभिमानी के साहस, त्याग और बलिदान की
भावना है।
प्रफुल्लचंद्र ओझा
'मुक्त' के सहयोग से सुभद्रा का पहला कविता संग्रह
मुकुल प्रकाशित हुआ और हिंदी संसार ने दिल खोलकर उसका
स्वागत किया।
उस समय हिंदी में आज
की तुलना में लेखक कम थे और लेखिकाएँ तो और भी कम थीं।
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर ही सुभद्रा जी की
कविताओं ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया
था। विशेषतः 'झाँसी की रानी' तो बहुत ही लोकप्रिय हुई
थी। अब 'मुकुल' के रूप में उनका संग्रह प्रकाशित होने
पर सब ओर से बहुत-बहुत बधाइयाँ मिलीं।
सुभद्रा जी ने
मातृत्व से प्रेरित होकर बहुत सुंदर बाल कविताएँ लिखी
हैं। इन कविताओं में भी उनकी राष्ट्रीय भावनाएँ प्रकट
हुई हैं। 'सभा का खेल' नामक कविता में, खेल-खेल में
राष्ट्र भाव जगाने का प्रयास देखिए-
सभा-सभा का खेल आज हम
खेलेंगे, जीजी आओ
मैं गांधी जी, छोटे नेहरु, तुम सरोजिनी बन जाओ।
मेरा तो सब काम लंगोटी गमछे से चल जाएगा
छोटे भी खद्दर का कुर्ता पेटी से ले आएगा।
मोहन, लल्ली पुलिस बनेंगे, हम भाषण करने वाले
वे लाठियाँ चलाने वाले, हम घायल मरने वाले।
इस कविता में बच्चों
के खेल, गांधी जी का संदेश, नेहरु जी के मन में गांधी
जी के प्रति भक्ति, सरोजिनी नायडू की सांप्रदायिक एकता
संबंधी विचारधारा को बड़ी खूबी से व्यक्त किया गया है।
असहयोग आंदोलन के वातावरण में पले-बढे़ बच्चों के लिए
ऐसे खेल स्वाभाविक थे।
प्रसिद्ध हिंदी कवि
गजानन माधव मुक्तिबोध ने सुभद्रा जी के राष्ट्रीय
काव्य को हिंदी में बेजोड़ माना है- 'कुछ विशेष अर्थों
में सुभद्रा जी का राष्ट्रीय काव्य हिंदी में बेजोड़
है। क्यों कि उन्होंने उस राष्ट्रीय आदर्श को जीवन में
समाया हुआ देखा है, उसकी प्रवृत्ति अपने अंतःकरण में
पाई है, अतः वह अपने समस्त जीवन-संबंधों को उसी
प्रवृत्ति की प्रधानता पर आश्रित कर देती हैं, उन जीवन
संबंधों को उस प्रवृत्ति के प्रकाश में चमका देती
हैं।... सुभद्राकुमारी चौहान नारी के रूप में ही रहकर
साधारण नारियों की आकांक्षाओं और भावों को व्यक्त करती
हैं। बहन, माता, पत्नी के साथ-साथ एक सच्ची देश सेविका
के भाव उन्होंने व्यक्त किए हैं। उनकी शैली में वही
सरलता है, वही अकृत्रिमता और स्पष्टता है जो उनके जीवन
में है। उनमें एक ओर जहाँ नारी-सुलभ गुणों का उत्कर्ष
है, वहाँ वह स्वदेश प्रेम और देशाभिमान भी है जो एक
क्षत्रिय नारी में होना चाहिए।''
सुभद्रा जी की बेटी
सुधा चौहान का विवाह प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय से हुआ
जो स्वयं अच्छे लेखक थे। सुधा ने उनकी जीवनी लिखी-
'मिला तेज से तेज'।
सुभद्रा जी का जीवन
सक्रिय राजनीति में बीता था। वे शहर की सबसे पुरानी
कार्यकर्ती थीं। १९३०-३१ और १९४१-४२ में होने वाली
जबलपुर की आम सभाओं में स्त्रियाँ बहुत बड़ी संख्या
में जमा होती थीं जो हिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए एक
नया ही अनुभव था। स्त्रियों की इस संख्या के पीछे,
स्त्रियों की इस जागृति के पीछे निश्चय ही सुभद्रा जी
का हाथ था और उनकी तैयार की हुई टोली के अनवरत उद्योग
का भी। सन १९२० से ही वे स्त्रियों की सभाओं में पर्दे
के विरोध में, अंधी रूढ़ियों के विरोध में, छुआछूत
हटाने के पक्ष में और स्त्री-शिक्षा के प्रचार के लिए
बराबर बोलती जा रही थीं। अपनी उन बहनों से बहुत-सी
बातों को अलग होते हुए भी वे उन्हीं में से एक थीं।
उनके भीतर भारतीय नारी का जो सहज शील और मर्यादा थी,
उसके कारण उन्हें वृहत्तर नारी समाज का विश्वास
प्राप्त था। विचारों की दृढ़ता के साथ-साथ उनके स्वभाव
में और व्यवहार में एक अजीब लचीलापन था, जिसके कारण
अपने से भिन्न विचारों और रहन-सहन वालों के दिल में भी
उन्होंने घर बना लिया था।
सुभद्रा जी ने कहानी
लिखना आरंभ कर दिया था क्यों कि उस समय कोई भी संपादक
कविताओं पर पारिश्रमिक नहीं देता था। उनसे संपादकगण
गद्य रचना चाहते थे और उसके लिए पारिश्रमिक भी देते
थे। समाज की अनीतियों से उत्पन्न जिस पीड़ा को वे
व्यक्त करना चाहती थीं उसकी अभिव्यक्ति का उचित माध्यम
गद्य ही हो सकता था, अतः सुभद्रा जी ने कहानियाँ
लिखीं। उनकी कहानियों में देश-प्रेम के साथ-साथ समाज
को, अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित करने के लिए
संघर्षरत नारी की पीड़ा और विद्रोह का स्वर मिलता है।
साल भर में उन्होंने एक कहानी संग्रह 'बिखरे मोती' ही
बना डाला। 'बिखरे मोती' छपवाने के लिए वे इलाहाबाद
गईं। इस बार भी सेकसरिया पुरस्कार उन्हें ही मिला-
कहानी संग्रह 'बिखरे मोती' पर। उनकी अधिकांश कहानियाँ
सत्य घटना पर आधारित हैं। देश-प्रेम के साथ-साथ उनमें
गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति मिलती है।
राष्ट्रीय आंदोलन में
सक्रिय भागीदारी और अनवरत जेल यात्रा के बावजूद उनके
तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- 'बिखरे मोती (१९३२),
उन्मादिनी (१९३४), सीधे-सादे चित्र (१९४७)। इन कथा
संग्रहों में कुल ३८ कहानियाँ (क्रमशः पंद्रह, नौ और
चौदह)। सुभद्रा जी की समकालीन स्त्री-कथाकारों की
संख्या अधिक नहीं थीं।
उनकी कहानियों को
किसी भी तराज़ू पर तौल लें, उनमें स्त्री सरोकारों की
बात दिखेगी तो वे सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों की
कसौटी पर भी खरी उतरेंगी। उनकी कहानियाँ स्वतंत्रता
आंदोलन के दौर की नारी का मानसिक पटल प्रस्तुत करती
हैं। आज़ादी के पूर्व की भारतीय नारी की दशा और दिशा
को सँभालने में वे हमारी बड़ी मदद करती हैं। उनकी नारी
केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं चाहती बल्कि सभी प्रकार की
गुलामी से मुक्ति चाहती है। वह 'स्वतंत्रता' नहीं,
'स्वराज्य' चाहती है। परतंत्रता नहीं, स्वानुशासन
चाहती है। रूढ़ियों-बंधनों से मुक्त होकर वह
स्वनियंत्रण में रहना चाहती है। सुभद्रा जी की सभी
कहानियों को हम एक तरह से सत्याग्रही कहानियाँ कह सकते
हैं। उनकी स्त्रियाँ सत्याग्रही स्त्रियाँ हैं। दलित
चेतना और स्त्रीवादी विमर्श को उठाने वाली
सुभद्राकुमारी चौहान हिंदी की पहली कहानीकार हैं-
दिखा गई पथ, सिखा गई
हमको जो सीख सिखानी थी।
पंद्रह अगस्त १९४७ को
जब देश आज़ाद हुआ तो सबने खुशियाँ मनाईं। सुभद्रा जी
ने भेड़ाघाट जाकर वहाँ के खान मज़दूरों को कपड़े और
मिठाई बाँटी। उस दिन वे अपना सिरदर्द भूल गई थीं,
थकावट भूल गई थीं, आराम करना भूल गई थीं।
गांधी जी की हत्या से
सुभद्रा जी को ऐसा लगा कि जैसे वे सचमुच अनाथ हो गई
हों। बगैर कुछ खाए-पिए चार मील पैदल ग्वारीघाट तक गईं।
जैसे कोई उनके घर का चला गया हो। सुभद्रा जी ने कहा,
''मैंने तो सोचा था कि मैं कुछ दिन गांधी जी के आश्रम
में बिताऊँगी लेकिन परमात्मा को वह भी मंज़ूर नहीं
था!''
१२ फरवरी १९४८ को
गांधी जी की अस्थियाँ नर्मदा में विसर्जन करने के लिए
लाई गई। सुभद्रा जी सदलबल गांधीजी की अस्थियाँ लेने
मदनमहल स्टेशन गईं और पुलिस का घेरा तोड़ा।
१४ फरवरी को वे
नागपुर में शिक्षा विभाग की मीटिंग में भाग लेने गईं।
डॉक्टर ने रेलगाड़ी से नहीं, कार से जाने की सलाह दी।
१५ फरवरी १९४८ को दोपहर के समय वे जबलपुर के लिए वापस
चलीं। सुभद्रा ने देखा कि बीच रास्ते में तीन-चार
मुर्गी के बच्चे हैं। उनका बेटा कार चला रहा था।
उन्होंने अचकचाकर बेटे से कहा, ''अरे बेटा! मुर्गों के
बच्चों को बचाओ!''
मोटर तेज़ी से काटने
के कारण सड़क किनारे के पेड़ से टकरा गई। सुभद्रा जी
बेहोश हो गईं। सुभद्रा जी ने बस 'बेटा' कहा और लुढ़क
गई। अस्पताल के सिविल सर्जन ने देखकर बताया कि उनका
देहांत हो गया है। उनका चेहरा एकदम शांत और निर्विकार
था जैसे गहरी नींद सोई हों।
१६ अगस्त १९०४ को
जन्मी सुभद्रा कुमारी चौहान का देहांत १५ फरवरी १९४८
को ४४ वर्ष की आयु में ही हो गया। एक संभावनापूर्ण
जीवन का अंत हो गया।
उनकी मृत्यु पर दादा
माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा कि 'सुभद्रा जी का आज चल
बसना प्रकृति के पृष्ठ पर ऐसा लगता है मानो नर्मदा की
धारा के बिना तट के पुण्य तीर्थों के सारे घाट अपना
अर्थ और उपयोग खो बैठे हों। सुभद्रा जी का जाना ऐसा
मालूम होता है मानो 'झाँसी वाली रानी' की गायिका,
झाँसी की रानी से कहने गई हो कि लो, फिरंगी खदेड़ दिया
गया और मातृभूमि आज़ाद हो गई। सुभद्रा जी का जाना ऐसा
लगता है मानो अपने मातृत्व के दुग्ध, स्वर और आँसुओं
से उन्होंने अपने नन्हे पुत्र को कठोर उत्तरदायित्व
सौंपा हो। प्रभु करे, सुभद्रा जी को अपनी प्रेरणा से
हमारे बीच अमर करके रखने का बल इस पीढ़ी में हो।''
जबलपुर के निवासियों
ने चंदा इकट्ठा करके नगरपालिका प्रांगण में सुभद्रा जी
की आदमकद प्रतिमा लगवाई जिसका अनावरण २७ नवंबर १९४९ को
एक और कवयित्री तथा उनकी बचपन की सहेली महादेवी वर्मा
ने किया। प्रतिमा अनावरण के समय भदंत आनंद कौसल्यायन,
बच्चन जी, डॉ. रामकुमार वर्मा औऱ इलाचंद्र जोशी भी
उपस्थित थे। महादेवी जी ने इस अवसर पर कहा, ''नदियों
का कोई स्मारक नहीं होता। दीपक की लौ को सोने से मढ़
दीजिए पर इससे क्या होगा? हम सुभद्रा के संदेश को
दूर-दूर तर फैलाएँ और आचरण में उसके महत्व को मानें-
यही असल स्मारक है।''
१०
अगस्त २००९ |