१
राष्ट्रनेता के
नाम पत्र
शशि पाधा
मेरे जन्म दिवस पर मेरी एक सहेली ने मेरी रुचि का
ध्यान रखते हुए तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री अटल
बिहारी बाजपेयी द्वारा रचित कविता संग्रह "मेरी
इक्यावन कविताएँ" मुझे भेंट किया। श्री बाजपेयी जी के
ओजस्वी भाषणों के प्रभाव से कोई भी भारतवासी अछूता
नहीं रहा होगा। किन्तु मुझे तब तक यह नहीं पता था कि
वे प्रभावशाली वक्त्ता के साथ-साथ उच्चकोटि के
संवेदनशील कवि भी हैं। कभी कभी उनके भाषण में हम पद्य
की कुछ रोचक पंक्तियाँ सुनते तो थे लेकिन वे सभी विषय
के संदर्भ में ही होती थीं।
संग्रह पाकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उनके काव्य
में मैंने उनके संघर्षमय जीवन, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन,
जेलवास तथा राष्ट्रीय भावना आदि सभी अनुभूतियों की
अभिव्यक्ति पायी। उनकी रचनाएँ पढ़ते समय कभी- कभी मैं
भी कुछ नया लिखने के लिये प्रेरित होती। इस तरह इस
संग्रह के द्वारा एक विलक्षण काव्य प्रतिभा के धनी कवि
के साथ अपनी भावनाओं को शब्द रूप देने का प्रयत्न करती
हुई एक लेखिका का भावनात्मक संबन्ध बन गया।
इसी बीच कारगिल का युद्ध आरम्भ हो गया। कल तक जिस
भयंकर तबाही का अनुमान भी न था, ऊँचे पर्वतों पर वही
तबाही छद्म वेष में घुसपैठ करती हुई आ पहुँची। देश भर
की सैनिक छावनिओं में सीमाओं पर तुरन्त पहुँचने की
तैयारी हो गई। एक सैनिक अधिकारी की पत्नी होने के नाते
मैंने स्वयं अनगिन शूरवीरों को भारत माँ की रक्षा के
लिए जाते हुए बड़े गर्व के साथ विदा किया। उन दिनों
मैंने उन वीरों की आँखों में संकल्प के प्रति दृढ़ता,
तत्परता और कर्त्तव्य परायणता के जो ओजस्वी भाव देखे
वे मुझे कभी अर्जुन, कभी अभिमन्यु जैसे अनुपम योद्धाओं
का स्मरण करा गए। वायुमंडल को चीरते हुए जयघोष के साथ
जब वे सीमाओं की ओर प्रस्थान करते तो उस छावनी के
लोगों के हाथ श्रद्धा, गौरव तथा आशीर्वाद की भावना से
ऊपर उठ जाते। सीमा के किसी शिविर में मैं जब भी अपने
पति के साथ जाती तो सैनिकों के अदम्य उत्साह और दृढ़
संकल्प को देख कर अभिभूत भी होती और श्रद्धा से
नतमस्तक भी।
केवल मानवीय रिश्तों की ऊहापोह तथा प्राकृतिक सौन्दर्य
को शब्दबद्ध करती मेरी लेखनी को उन दिनों जैसे किसी
वीरांगना ने थाम लिया था। स्वत: ही सैनिकों के शौर्य
और बलिदान से गर्वित रचनाएँ लिखी जाने लगीं। वीरों के
सम्मान में लिखीं मेरी इन रचनाओं को भारत के मुख्य
दैनिक पत्र "पंजाब केसरी" ने बड़े गर्व के साथ प्रकाशित
किया और मेरी भावनाओं को जन जन तक पहुँचाया।
एक दिन दूरदर्शन पर सीमा पर हिमालय की दुर्गम ऊँचाइयों
पर युद्धरत सैनिकों के अप्रतिम साहस, उत्साह और जोश को
देख कर भावनाओं के प्रवाह में बह कर मैंने श्री
बाजपेयी जी को एक पत्र लिखा। पत्र कुछ इस प्रकार था-
राजधानी में बैठे हुए आप सीमाओं पर शत्रु के साथ वीरता
से लड़ते हुए सैनिकों की खबरें तो रोज़ ही सुनते /देखते
हैं। मैंने अपने जीवन के लगभग ३० वर्ष इन वीर योद्धाओं
के साथ बिताए हैं। हिमालय की दुर्गम चोटियों पर
युद्धरत इन सैनिकों की वीरता के कार्यों को देख कर आज
मैं स्वयं ही अचम्भित हूँ, क्योंकि शान्तिकाल में यही
सैनिक इतने कोमल हृदय रखते हैं कि किसी पशु-पक्षी को
हानि पहुँचाने की बात तो क्या हर घायल प्राणी की दिन
रात सेवा में लगे रहते हैं। धार्मिक इतने कि हर शाम
अपने अपने धर्म स्थल में घंटों भगवत भजन में लीन रहते
हैं। अस्त्र-शस्त्र थामने वाले यही हाथ कई बाग-बगीचों
मे बड़े स्नेह से सुन्दर फूल रोपते हैं, वृक्षारोपण
अभियान में सैकड़ों वृक्षों का शिशु के समान लालन-पालन
करते हैं।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कभी विदूषक, कभी गायक और
कभी नर्तक बन कर अपना मनोरंजन करते हैं। और, आज यही
वीर मातृभूमि की रक्षा के लिये जिस संकल्प, साहस और
अक्षुण्ण वीरता से शत्रु को खदेड़ रहे हैं, आज मेरा
मस्तक उनके सामने नत है और हृदय गर्व से परिपूर्ण। एक
सैनिक की पत्नी होने के नाते एक कवि हृदय राष्ट्र नेता
का आशीर्वाद हमारे सैनिकों के साथ रहे केवल इसी कामना
के साथ आज आपको पत्र लिख रही हूँ। आप राष्ट्र के नेता
हैं, क्या कोई ऐसी राजनीति नहीं है कि आप इस भयानक
युद्ध को रोक लें। कोई तो कृष्ण अथवा भीष्म पितामह की
तरह समझौता कराने का बीड़ा उठाए। पत्र मेरे पास नहीं
है पर न जाने मैंने कितने ही विभिन्न शब्दों में
उन्हें इस युद्ध को रोकने के लिए प्रार्थना की। मैंने
अपनी प्रकाशनाधीन पुस्तक के कुछ अंश और सैनिकों को
समर्पित रचनाएँ पत्र के साथ भेज दीं, केवल अपना गर्व,
अपना दुख अपना ममत्व साँझा करने के लिए।
इसी बीच हर रोज़ दूरदर्शन पर युद्ध के संहार को देख कर
मन क्षुब्ध रहता। बलिदान हुए कितने ही अधिकारियों/
सैनिकों को मैं जानती थी और जिन्हें नहीं भी जानती थी
वे भी तो मेरे वृहद सैनिक परिवार से ही थे। मन में कई
प्रश्न उठते कि हिमाच्छादित उन दुर्गम पर्वतों को दो
देशों में बाँटने का अधिकार किसने मानव को दिया है ?
सैकड़ों वीरों के रक्त्त से रंगे ये मूक पहाड़ भी आज
करुण चीत्कार करके सचेत कर रहे हैं कि इस संहार को
रोको, किन्तु युद्ध था कि रुकने का कहीं नाम नहीं।
लगभग एक सप्ताह के बाद डाक से मेरे नाम एक पत्र आया।
जैसे ही लिफाफ़े पर मोहर देखी, मैं किंकर्त्तव्य विमूढ़
हो गई। पत्र प्रधान मंत्री सचिवालय से आया था। मैंने
पत्र खोला तो हैरानी और प्रसन्नता ने मुझे घेर लिया,
क्योंकि पत्र लिख कर उत्तर पाने की बात तो मैंने सोची
ही न थी। उत्तर पढ़ कर मुझे लगा कि हमारे वीर सैनिकों
को उनका आशीर्वाद मिल गया। उत्तर में श्री बाजपेयी जी
ने लिखा था ---
प्रिय सुश्री शशि पाधा,
आपका १३ जुलाई ,१९९९ का पत्र प्राप्त हुआ जिसके साथ
आपने अपनी कविताएँ संलग्न की हैं। आपने कविता में
सैनिकों के साहस और बलिदान की जो भावाभिव्यक्ति दी है,
वह सराहनीय है। मैं आपके इस प्रयास की सराहना करता
हूँ।
शुभकामनाओं सहित,
आपका
अटल बिहारी बाजपेयी
कभी कभी किसी भी आशा -आकांक्षा के बिना कुछ आशातीत घट
जाता है जो जीवन भर आपके साथ रहता है। इस घटना को मैं
आजन्म भूल नहीं पाऊँगी। इतने व्यस्त होते हुए भी
उन्होंने मेरी रचनाओं को पढ़ कर तुरन्त उत्तर देने की
सोची, यह शायद एक राष्ट्र नेता के साथ साथ उनके एक
संवेदनशील कवि हृदय होने का परिचायक है।
कुछ वर्षों के पश्चात राष्ट्रपति भवन के अशोक हाल में
एक भव्य समारोह में मेरे पति को राष्ट्र के प्रति उनकी
सेवाओं के लिए "अति विशिष्ट सेवा मेडल" से अलंकृत किया
गया। इस अलंकरण समारोह में मैंने प्रधान मंत्री श्री
अटल बिहारी जी को अन्य विशिष्ट अतिथि गणों के साथ बैठे
देखा। अभिवादन के बाद बातचीत करते हुए मैंने उन्हें
अपने काव्य संग्रह और उनके पत्रोत्तर के विषय में
बताया। आँखें बन्द करके जैसे वे कुछ भी बोलने से पहले
सोचते हैं, ठीक उसी मुद्रा के साथ वे बोले, "बहुत
प्रसन्न्ता हुई आपसे मिलकर। लिखती रहिए, देशप्रेम से
परिपूर्ण, सैनिकों के शौर्य की गाथाएँ लिखती रहिए।
राष्ट्र के प्रति हम रचनाकारों का यही मुख्य कर्त्तव्य
है।" और मैं उनका आशीर्वाद लेकर चली आई जो आज तक मुझे
प्रेरित करता है।
१३
अगस्त
२०१२ |