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					 स्वतंत्रता दिवस  के अवसर पर 
					राष्ट्र चेतना 
					और आल्हा का व्यक्तित्व-भजनलाल महाबिया
 
 
 
							बुंदेलखंड अपनी निर्भीकता और अन्याय के विरूद्ध संघर्ष 
							के लिए विख्यात है। इस कारण उसकी प्रसिद्धि राष्ट्रीय 
							स्तर से उठकर विश्वव्यापी है। आल्हा-ऊदल, लाला हरदौल, 
							वीर चंपतराय, महाराजा छत्रसाल, रानी दुर्गावती एवं 
							झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि समस्त उत्तरी भारत एवं 
							दक्षिणी भारत में वीरता त्याग आत्म बलिदान के आधार पर 
							पूजनीय और श्रद्धा के पात्र हैं। बुंदेलखंड में इन 
							वीरों एवं वीरांगनाओं से संबंधित अनेक रचनाएँ गद्य एवं 
							पद्य में लिखी गई हैं। इनमें आल्हा ही एक मात्र ऐसे 
							पात्र हैं, जिन पर और अनेक नाम से आल्हा खंड नामक 
							महाकाव्य का सृजन किया गया है।
 प्रगतिशील विचारधारा
 
 आल्हा के उदय से बारहवीं शताब्दी में प्रगतिशील 
							राष्ट्रीय विचारधारा अंकुरित हुई। जिसने जातिगत, 
							वर्णगत, वर्गगत, भेदभाव तथा ऊँच नीच की विषमता मूलक 
							प्रवृत्तियों पर घोर कुठाराघात किया। भाई चारे और 
							विश्वबंधुत्व की भावनाओं का संचार जनमानस में किया। 
							आल्हा-ऊदल सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष के आदि प्रणेता 
							माने गये। जाति मान, प्रतिज्ञा पालन, शरणागत वत्सलता, 
							साधु-सती और स्त्रियों की रक्षा जन-सेवा आदि के लिए 
							बलिदान करने-जैसी उदात्त भावना के वे आगार थे। 
							आल्हा-ऊदल के पद और प्रभाव की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता 
							राष्ट्र की सीमाओं से भी परे है। आल्हा हमारे इतिहास 
							की हुंकार हैं। भारतीय इतिहास और संस्कृति के निष्कलंक 
							महानायक और मानवीय आदर्शों के प्रतीक हैं। आल्हा-ऊदल 
							अपनी वीरता की आदर्श ऊँचाई के कारण समाज की शक्ति 
							चेतना के स्फूर्ति केंद्र हैं, जिनकी जीवनी शक्ति लोक 
							की जीवनी शक्ति बन गयी है।
 
 कितने युग बीत गये परंतु आज का लोक भी उनसे प्रेरणा 
							पाकर अपने अंदर फूटती ओजस्विता महसूस करता है। 
							आल्हा-ऊदल ने अपनी त्याग और बलिदान की गौरवगाथा से जो 
							इतिहास रचा, उसे संपूर्ण महाकौशल और बुंदेलखंड गर्वित 
							है। आवश्यकता है हम भी उन जैसी वीरता, स्वाभिमान और 
							दृढ़ इच्छा शक्ति की भावना से सराबोर हों। उनके प्रति 
							अपनी कृतज्ञता का इजहार करें। आल्हा का चरित्र प्रेरित 
							करता है कि देश जाति व समाज की उन्नति व प्रगति हेतु 
							हम आपस में कंधे से कंधा मिलाकर चलें। सामंती युग में 
							जनतांत्रिक प्रवृत्ति का अनुसरण आल्हा के व्यकित्तव की 
							विशेषता थी। ऐसा कहा जाता है कि राष्ट्रीय रक्षा के 
							महत्व को छत्रपति शिवाजी से पूर्व किसी ने समझा था, तो 
							वे आल्हा ही थे। उनकी नीति रही है कि चंदेल तथा दिल्ली 
							राज्य सहित देश के सभी राज्यों की सामरिक शक्ति को 
							बचाये रख उसका उपयोग यवन आक्रमणकारियों के विरूद्ध 
							संगठित रूप से किया जाए। आल्हा ने देश की बिखरी हुई 
							शक्तियों को मैत्री और प्रेम के द्वारा अपनी उदार 
							प्रवृत्ति का परिचय देते हुए एकता के सूत्र में बाँधने 
							प्रयास किया। यह निश्चित था कि वे अपनी नीति में 
							कामयाब हो जाते तो देश का भौगोलिक, राजनीतिक, व 
							सांस्कृतिक परिदृश्य ही आज कुछ और होता।
 
					व्यक्तिगत जीवन महोबा के ढेर 
					सारे स्मारक आज भी इन वीरों की याद दिलाते हैं। यहाँ कोई भी 
					सामाजिक संस्कार आल्हा की पंक्तियों के बिना पूर्ण नहीं होता। 
					आल्ह खंड में कहा गया है कि- जाके बैरी सम्मुख ठाडे, ताके जीवन 
					को धिक्कार। आल्हा का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि ८०० वर्षो 
					के बीत जाने के बावजूद वह आज भी बुंदेलखंड के प्राण स्वरूप 
					हैं। आल्हा गायक इन्हें धर्मराज का अवतार बताता है। कहते है कि 
					इनको युद्ध से घृणा थी और न्यायपूर्ण ढंग से रहना विशेष पसंद 
					था। इनके पिता जच्छराज (जासर) और माता देवला थी। ऊदल इनका छोटा 
					भाई था। जच्छराज और बच्छराज दो सगे भाई थे जो राजा परमाल के 
					यहाँ रहते थे। परमाल की पत्नी मल्हना थी और उसकी की बहनें 
					देवला और तिलका से महाराज ने अच्छराज और बच्छराज की शादी करा 
					दी थी। मइहर की देवी से आल्हा को अमरता का वरदान मिला था। 
					युद्ध में मारे गये वीरों को जिला देने की इनमें विशेष-योग्यता 
					थी। जिस हाथी पर ये सवारी करते थे उसका नाम पष्यावत था। इनका 
					विवाह नैनागढ़ की अपूर्व सुन्दरी राज कन्या सोना से हुआ था। इसी 
					सोना के संसर्ग से ईन्दल पैदा हुआ जो बड़ा पराक्रमी निकला। शायद 
					आल्हा को यह नही मालूम था कि वे अमर हैं, इसी से अपने छोटे एवं 
					प्रतापी भाई ऊदल के मारे जाने पर उन्होंने आह भर के कहा है-पहिले जानिति हम अम्मर हई, काहे जुझत लहुरवा भाइ ।
 (कहीं मैं पहले ही जानता कि मैं अमर हूँ तो मेरा छोटा भाई 
					क्यों जूझता)
 
 एक अजेय योद्धा
 
 आल्हा को छोड़कर विश्व में शायद ही ऐसा कोई इतिहास पुरूष 
					महानायक हो, जिसने अपने जीवन में ५२ लड़ाइयाँ लड़ी हों, और उन 
					सभी में अजेय रहे हों। यवन आक्रमणकारियों और पठानों को युद्ध 
					में आल्हा से मुँह की खानी पड़ी। एक अजेय योद्धा के रूप में आज 
					भी उनकी यशपताका ज्यों की त्यों है। उनका दिव्य चरित्र 
					महतो-महीयान है। यही कारण है कि उनकी अमर गौरव-गाथा सुनने और 
					सुनाने में गर्व की बात मानी जाती है। आल्हा जहाँ सच्चे 
					मातृ-भक्त थे, राष्ट्रभक्त थे, स्वामी भक्त थे, वहाँ वे सच्चे 
					सेवक भी थे। आज भी वे राष्ट्रीय-चेतना और जन-चेतना के केंद्र 
					हैं। उनके द्वारा स्थापित परंपराएँ भारतीय मनीषा की मार्गदर्शक 
					हैं। मर्यादा और मान्यताएँ जनता के पथ प्रदर्शक हैं। चिंतकों 
					और विचारकों का मत है कि जिस आल्हा ने अपने युग में राष्ट्रीय 
					और सामाजिक क्षेत्र में आदर्श कीर्तिमान स्थापित किए हों, समान 
					व राष्ट्र को प्रभावित किया हो, जो जन-जन का चहेता महानायक रहा 
					हो। जिसने राष्ट्र व समाज का मान बढ़ाया हो, राष्ट्रीय गौरव और 
					गरिमा के भाव जिसने विकसित किये हों, जो दलित और शोषित-पीड़ितों 
					का मसीहा तथा उद्धारक रहा हो, समता मूलक समाज की रचना में 
					जिसका जीवन समर्पित रहा हो, और जिसके लिए उसने जीवन न्यौछावर 
					किया हो, क्या हमारी यह सोच न हो कि एक उत्तरदायी जन के नाते 
					उसके गुणों के संबंध में अपना मौन तोड़ें, इतिहास में उसके 
					राष्ट्रीय व सामाजिक योगदान का समावेश करें।
 
 आल्हा का आध्यात्मिक रूप
 
 आल्हा एवं तपोभूमि का संबंध-देव-पुरुषों महापुरुषों से संबद्ध 
					स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है। जैसे अयोध्या श्री राम के 
					जन्म के कारण, कंस का कारागार मथुरा, श्रीकृष्ण के जन्म के 
					कारण, बोध गया बिहार, भगवान बुद्ध को बोधत्व प्राप्त होने के 
					कारण इत्यादि। आल्हा के संबंध से म.प्र. देश के सतना 
					जिलांतर्गत मैहर का महत्व इसलिए है कि आल्हा ने यहाँ देवी 
					शारदा की १२ वर्ष तक घोर तपस्या की थी और देवी से अमर होने का 
					वरदान पाया था। कहा जाता है कि देवी उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन 
					देती थीं। अपना शीश काटकर आल्हा ने इसी स्थान में देवी को भेंट 
					किया था। ऐसा लोक विश्वास है, जनश्रुति यह भी है कि आल्हा आज 
					भी प्रतिदिन देवी की पूजा अर्चना करने आते हैं।
 
 शारदा देवी के दर्शन करने जो श्रद्धालु अथवा दर्शनार्थी आते 
					हैं, आल्हा का स्मरण और चर्चा किये बिना नहीं रहते। भगवान का 
					महत्व उसके भक्त के कारण है। उसी प्रकार आल्हा का महत्व जहाँ 
					देवी शारदा के कारण है, वहीं देवी शारदा का महत्व भी उसके 
					अनन्य भक्त आल्हा के कारण है। माँ शारदा को आल्हा से और आल्हा 
					को देवी शारदा से पृथक कर नहीं सोचा जा सकता। शारदा की जहाँ 
					चर्चा होगी, आवश्यक रूप से आल्हा का भी स्मरण होगा। यही बात 
					आल्हा के संबंध में कही जा सकती है। इस दृष्टि से विचार किया 
					जाए तो आल्हा का मैहर और तपोभूमि से ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक 
					संबंध है।
 ये सब बातें 
					यह कर्तव्य-बोध देती है कि आल्हा तपोभूमि में माँ भगवती शारदा 
					के आँचल में उसके पुत्र को निरंतर याद किया जाए। यहाँ विगत 
					अनेक वर्षों से २५ मई को राष्ट्रीय स्तर पर आल्हा जयंती का 
					आयोजन किया जा रहा है। देवी शारदा और आल्हा का संबंध ऐसा है, 
					जैसा भगवती सीता और मातृभक्त हनुमान का है। देखा गया है कि 
					जहाँ भगवान श्रीराम के साथ सीताजी विराजमान हैं, हनुमान भी वही 
					प्रतिष्ठित हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर मैहर में आल्हा की 
					मूर्ति श्री माँ के चरणों के निकट स्थापित की गई है। आल्हा की 
					वह तपोभूमि जिसमें आल्हा ने १२ वर्ष तक कठिन तपस्या की हो और 
					देवी से अमर होने का वरदान पाया हो, उसका प्रत्येक कण, उसकी रज 
					पवित्र है।  
                            १२ 
							अगस्त २०१३ |