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रचना प्रसंग

 

नवगीत और देश
- संजीव वर्मा सलिल


विश्व की पुरातनतम संस्कृति, मानव सभ्यता के उत्कृष्टतम मानव मूल्यों, समृद्धतम जनमानस, श्रेष्ठतम साहित्य तथा उदात्ततम दर्शन के धनी देश भारत वर्तमान में संक्रमणकाल से गुजर रहा है। पुरातन श्रेष्ठता, विगत पराधीनता, स्वतंत्रता पश्चात संघर्ष और विकास के चरण, सामयिक भूमंडलीकरण, उदारीकरण, उपभोक्तावाद, बाजारवाद, दिशाहीन मीडिया के वर्चस्व, विदेशों के प्रभाव, सत्तोन्मुख दलवादी राजनैतिक टकराव, आतंकी गतिविधियों, प्रदूषित होते पर्यावरण, विरूपित होते लोकतंत्र, प्रशासनिक विफलताओं तथा घटती आस्थाओं के इस दौर में साहित्य भी सतत परिवर्तित हुआ। छायावाद के अंतिम चरण के साथ ही साम्यवाद-समाजवाद प्रणीत नयी कविता ने पारम्परिक गीत के समक्ष जो चुनौती प्रस्तुत की उसका मुकाबला करते हुए गीत ने खुद को कलेवर और शिल्प में समुचित परिवर्तन कर नवगीत के रूप में ढालकर जनता जनार्दन की आवाज़ बनकर खुद को सार्थक किया।

किसी देश को उसकी सभ्यता, संस्कृति, लोकमूल्यों, धन-धान्य, जनसामान्य, शिक्षा स्तर, आर्थिक ढाँचे, सैन्यशक्ति, धार्मिक-राजनैतिक-सामाजिक संरचना से जाना जाता है। अपने उद्भव से ही नवगीत ने सामयिक समस्याओं से दो-चार होते हुए, आम आदमी के दर्द, संघर्ष, हौसले और संकल्पों को वाणी दी। कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर नवगीत ने वैशिष्ट्य पर सामान्यता को वरीयता देते हुए खुद को साग्रह जमीन से जोड़े रखा। प्रेम, सौंदर्य, शृंगार, ममता, करुणा, सामाजिक टकराव, चेतना, दलित-नारी विमर्श, सांप्रदायिक सद्भाव, राजनैतिक सामंजस्य, पीढ़ी के अंतर, राजनैतिक विसंगति, प्रशासनिक अन्याय आदि सब कुछ को समेटते हुए नवगीत ने नयी पीढ़ी के लिये आशा, आस्था, विश्वास और सपने सुरक्षित रखने में सफलता पायी है।

पुरातन विरासत-

किसी देश की नींव उसके अतीत में होती है। नवगीत ने भारत के वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक काल से लेकर अधिक समय तक के कालक्रम, घटना चक्र और मिथकों को अपनी ताकत बनाये रखा है। वर्तमान परिस्थितियों और विसंगतियों का विश्लेषण और समाधान करता नवगीत पुरातन चरित्रों और मिथकों का उपयोग करते नहीं हिचकता।

"जागकर करेंगे हम क्या?
सोना भी हो गया हराम
रावण को सौंपकर सिया
जपता मारीच राम-राम" - मधुकर अष्ठाना, (वक़्त आदमखोर)

"अंधों के आदेश
रात-दिन ढोता राजमहल
मिला हस्तिनापुर को
जाने किस करनी का फल"- जय चक्रवर्ती, "थोड़ा लिखा समझना ज्यादा" में देश की पुरातन विरासत पर गर्वित नवगीत सहज दृष्टव्य है।

संवैधानिक अधिकार-
भारत का संविधान देश के नागरिकों को अधिकार देता है किन्तु यथार्थ इसके विपरीत है-

"मौलिक अधिकारों से वंचित है
भारत यह स्वतंत्र नागरिक
वैचारिक क्रांति अगर आये तो
ढल सकती दोपहरी कारुणिक"- आनंद तिवारी, (धरती तपती है)

"क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है?"- जगदीश पंकज, (सुनो मुझे भी)

तंत्र घुमाता लाठियाँ
जन खाता है मार
उजियारे की हो रही
अन्धकार से हार

सरहद पर बम फट रहे
सैनिक हैं निरुपाय
रण जीतें तो सियासत
हारें, भूल बताँय

"बाँट रहे हैं रेवड़ी
अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?"- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', (सड़क पर) आदि में नवगीत देश के आम नागरिक के प्रति चिंतित है।

गणतंत्र -

देश के संविधान, ध्वज हर नागरिक के लिये बहुमूल्य हैं। गणतंत्र की महिमा गायन कर हर नागरिक का सर गर्व से उठ जाता है -
"गणतंत्र हर तूफ़ान से गुजरा हुआ है
पर तिरंगा प्यार से फहरा हुआ है...
ताल दो मिलकर
कि कलियुग में
नया भारत बनाना"- पूर्णिमा वर्मन, (तिरंगा / चोंच में आकाश)।

नवगीत केवल विसंकटी और विडम्बना का चित्रण नहीं है, वह देश के प्रति गर्वानुभूति भी करता है -

"पेट से बटुए तलक का
सफर तय करते मुसाफिर
बात तू माने न माने
देश पर अभिमान करने
के अभी लाखों बहाने"- रामशंकर वर्मा, (चार दिन फागुन के)

"मुक्ति-गान गूँजे, जब
मातृ-चरण पूजें जब
मुक्त धरा-अम्बर से
चिर कृतज्ञ अंतर से
बरबस हिल्लोल उठें
भावाकुल बोल उठें
स्वतंत्रता- संगरो नमन
हुंकृत मन्वन्तरों नमन"- जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', (तमसा के दिन करो नमन) आदि में देश के गणतंत्र और शहीदों को नमन कर रहा है नवगीत।

वर्ग संघर्ष-शोषण-

कोई देश जब परिवर्तन और विकास की राह पर चलता है तो वर्ग संघर्ष होना स्वाभाविक है। नवगीत ने इस टकराव को मुखर होकर बयान किया है-
"हम हैं खर-पतवार
सड़कर खाद बनते हैं
हम जले, ईंटे पकाने
महल तनते हैं"- आचार्य भगवत दुबे, (हिरन सुगंधों के)

"धूप का रथ
दूर आगे बढ़ गया
सिर्फ पहियों की
लकीरें रह गयीं"- प्रो. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र',

"सड़क-दर-सड़क
भटक रहे तुम
लोग चकित हैं
सधे हुए जो अस्त्र-शास्त्र
वे अभिमंत्रित हैं"- (कुमार रवीन्द्र)

"व्यर्थ निष्फल
तीर और कमान
राजा रामजी
क्या करे लक्षमण
बड़ा हैरान
राजा राम जी"- स्व. डॉ. विष्णु विराट, आदि में नवगीत देश में स्थापित होते दो वर्गों का स्पष्ट संकेत करता है।

विकासशील देश में बदलते जीवन मूल्य शोषण के विविध आयामों को जन्म देते हैं स्त्री शोषण के लिए सहज-सुलभ हैं। नवगीत इस शोषण के विरुद्ध बार-बार खड़ा होता है-
"विधवा हुई रमोली की भी
किस्मत कैसी फूटी
जेठ-ससुर की मैली नजरें
अब टूटीं, तब टूटीं"- राजा अवस्थी, (जिस जगह यह नाव है)

"कहीं खड़ी चौराहे कोई
कृष्ण नहीं आया
बनी अहल्या लेकिन कोई
राम नहीं पाया
कहीं मांडवी थी लाचार
घुटने टेक पड़ी"- गीता पंडित, (अब और नहीं बस)

"होरी दिन भर बोझ ढोता
एक तगाड़ी से
पत्नी भूखी, बच्चे भूखे
जब सो जाते हैं
पत्थर की दुनिया में आँसू
तक खो जाते हैं"- (जगदीश श्रीवास्तव) कहते हुए नवगीत देश में बढ़ रहे शोषण के प्रति सचेत करता है।

परिवर्तन-विस्थापन-

देश के नवनिर्माण की कीमत विस्थापित को चुकानी पड़ती है। विकास के साथ सुरसाकार होते शहर गाँवों को निगलते जाते हैं-

"खेतों को मुखिया ने लूटा
काका लुटे कचहरी में
चौका सूना भूखी गैया
प्यासी खड़ी दुपहरी में"- राधेश्याम बंधु', (एक गुमसुम धूप)

"सन्नाटों में गाँव
छिपी-छिपी सी छाँव
तपते सारे खेत
भट्टी बनी है रेत
नदियाँ हैं बेहाल
लू-लपटों के जाल"- अशोक गीते, (धुप है मुंडेर की)

"अंतहीन जलने की पीड़ा
मैं बिन तेल दिया की बाती
मन भीतर जलप्रपात है
धुआँधार की मोहक वादी
सलिल कणों में दिन उगते ही
माचिस की तीली टपका दी"-रामकिशोर दाहिया, (अल्लाखोह मची)

"प्रतिद्वंदी हो रहे शहर के
आसपास के गाँव
गाये गीत गये ठूँठों के
जीत गये कंटक
ज़हर नदी अपना उद्भव
कह रही अमरकंटक
मुझे नर्मदा कहो कह रहा
एक सूखा तालाब"- गिरिमोहन गुरु, (मुझे नर्मदा कहो),

"बने बाँध नदियों पर
उजड़े हैं गाँव
विस्थापित हुए
और मिट्टी से कटे
बच रहे तन
पर अभागे मन बँटे
पथरीली राहों पर
फिसले हैं पाँव"- जयप्रकाश श्रीवास्तव, (परिंदे संवेदना के) आदि भाव मुद्राओं में देश विकास के की कीमत चुकाते वर्ग को व्यथा-कथा शब्दित कर उनके साथ खड़ा है नवगीत।

पर्यावरण प्रदूषण-

देश के विकास साथ-साथ की समस्या सिर उठाने लगाती है। नवगीत ने पर्यावरण असंतुलन को अपना कथ्य बनाने से गुरेज नहीं किया-

"इस पृथ्वी ने पहन लिए क्यों
विष डूबे परिधान?
धुआँ मंत्र सा उगल रही है
चिमनी पीकर आग
भटक गया है चौराहे पर
प्राणवायु का राग
रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम
दमा करे हलकान"- निर्मल शुक्ल, (एक और अरण्य काल)

पेड़ कब से तक रहा
पंछी घरों को लौट आएँ
और फिर अपनी उड़ानों
की खबर हमको सुनाएँ
अनकहे से शब्द में
फिर कर रही आगाह
क्या सारी दिशाएँ- रोहित रूसिया, (नदी की धार सी संवेदनाएँ) कहते हुए नवगीत देश ही नहीं विश्व के लिए खतरा बन रहे पर्यावरण प्रदूषण को काम करने के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करता है।

भ्रष्टाचार-

देश में पदों और अधिकारों का का दुरुपयोग करनेवाले काम नहीं हैं। नवगीत उनकी पोल खोलने में पीछे नहीं रहता-
"लोकतंत्र में, गाली देना
है अपना अधिकार
अपना काम पड़े तो देना
टेबिल के नीचे से लेना"-ओमप्रकाश तिवारी, (खिड़कियाँ खोलो)

"स्वर्णाक्षर सम्मान पत्र
नकली गुलदस्ते हैं
चतुराई के मोल ख़रीदे
कितने सस्ते हैं"- (महेश अनघ)

"आत्माएँ गिरवी रख
सुविधाएँ ले आये
लोथड़ा कलेजे का
वनबिलाव चीलों में
गंगा की गोदी में
या कि ताल-झीलों में
क्वाँरी माँ जैसे अपना
बच्चा दे आये" -(नईम)

"अंधी नगरी चौपट राजा
शासन सिक्के का
हर बाज़ी पर कब्जा दिखता
जालिम इक्के का"- (शीलेन्द्र सिंह चौहान) आदि में नवगीत देश में शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार को उद्घाटित कर समाप्ति हेतु प्रेरणा देता है।

उन्नति और विकास-

नवगीत विसंगति और विडम्बनाओं तक सीमित नहीं रहता, वह आशा-विश्वास और विकास की गाथा भी कहता है-
देखते ही देखते बिटिया
सयानी हो गयी
उच्च शिक्षा प्राप्त कर
वह नौकरी करने चली
कल तलक थी साथ में
अब कर्म पथ वरने चली- ब्रजेश श्रीवास्तव, (बाँसों के झुरमुट से),

"मुश्किलों को मीत मानो
जीत तय होगी
हौसलों के पंख हों तो
चिर विजय होगी"- कल्पना रामानी, (हौसलों के पंख) कहते हुए नवगीत देश की युवा पीढ़ी को आश्वस्त करता है कि विसंगतियों और विडम्बनाओं की काली रात के बाद उन्नति और विकास का स्वर्णिम विहान निकट है।

प्रेम और सद्भाव-

किसी देश का निर्माण सहयोग, सद्भाव और प्यार से हो होता है। टकराव से सिर्फ बिखराव होता है. नवगीत ने प्यार की महत्ता को भी स्वर दिया है-
प्यार है तो ज़िंदगी
महका हुआ एक फूल है
अन्यथा हर क्षण ह्रदय में
तीव्र चुभता शूल है
ज़िंदगी में प्यार से दुष्कर
कहीं कुछ भी नहीं- महेंद्र भटनागर, (दृष्टि और सृष्टि)

"रातरानी से मधुर
उन्वान हम
फिर से लिखेंगे
बस चलो उस ओर सँग तुम
प्रीत बंधन है जहाँ"- सीमा अग्रवाल, खुशबू सीली गलियों की) में नवगीत जीवन में प्यार और श्रृंगार की महक बिखेरता है।

आह्वान-

"सपनों से नाता जोड़ो पर
जाग्रति से नाता मत तोड़ो"
-तथा
यह जीवन
कितना सुन्दर है
जी कर देखो...
शिव समान संसार हेतु
विष पीकर देखो- राजेंद्र वर्मा, (कागज़ की नाव)

सबके हाथ
बराबर रोटी बाँटो मेरे भाई- (जयकृष्ण तुषार)

गूँज रहा मेरे अंतर में
ऋषियों का यह गान
अपनी धरती, अपना अम्बर
अपना देश महान- मधु प्रसाद, (साँस-साँस वृन्दावन) आदि अभिव्यक्तियाँ नवगीत के अंतर में देश के नव निर्माण की आकुलता की अभव्यक्ति करते हुई आश्वस्त करती हैं कि देश का भविष्य उज्जवल है और युवाओं को विषमता का अंत कर समता-ममता के बीज बोने होंगे।

 

१५ जनवरी २०१६

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