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संस्मरण

१७ अक्टूबर २०११ को प्रथम पैरा की २५०वीं वर्षगाँठ के अवसर पर

विजय स्मारिका
-शशि पाधा
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जनवरी १५ को भारत में प्रति वर्ष सेना दिवस मनाया जाता है। इस दिन दिल्ली की सैनिक छावनी की परेड ग्राऊन्ड में भारतीय सेना की विभिन्न टुकडियाँ अपने विशेष अस्त्र -शस्त्रों से लैस होकर सेनाध्यक्ष को सलामी देती हैं और सलामी के बाद देश के आंतरिक एवं बाह्य रक्षा अभियानों में वीरता तथा साहस के साथ अपना कर्त्तव्य निभाने वाले सैनिकों को अलंकृत किया जाता है। इस समारोह में वीरगति प्राप्त सैनिकों के परिवार का कोई सदस्य जब भी मरणोपरांत पदक ग्रहण करने के लिए मंच पर जाते हैं तो सारा प्रांगण तालियों से गूँज तो उठता है किन्तु प्रत्येक प्राणी की आँख भीग जाती है और हृदय श्रद्धा से भर जाता है। इस वर्ष की परेड में भारत की उत्तरी सीमा में फैले आतंकवाद को समाप्त करने के उदेश्य में संलग्न तथा सीमा रक्षा में अद्भुत शौर्य एवं बलिदान का प्रदर्शन करने के लिए भारतीय सेना की विशिष्ट इकाई “प्रथम पैरा स्पेशल फोर्सिस“ के शूरवीर सैनिकों को “वीरों में परमवीर“ यानी “ब्रेवेस्ट औफ दे ब्रेव“ के सर्वोच्च सम्मान से विभूषित किया गया है।

इस सन्दर्भ में मैं पाठकों को यह बताना अनिवार्य समझती हूँ कि “प्रथम पैरा स्पेशल फोर्सिस “भारतीय सेना की सब से प्राचीन यूनिट है। इस यूनिट की भर्ती प्रक्रिया बहुत कठिन है। सेना की इस इकाई में सम्मिलित होने के लिए नवयुवकों को विशेष शारीरिक बल और मानसिक संकल्प की दृढ़ता की कठिन परीक्षा में सफल होना पड़ता है। इस यूनिट के सैनिकों का पहचान चिह्न “बलिदान” है जो सम्पूर्ण भारतीय सेना में परम गौरव का प्रतीक है, जिसे अपनी छाती पर लगाते हुए सैनिक असीम गर्व का अनुभव करते हैं। इस यूनिट के वीर सिपाहियों ने भारत-पाक युद्ध के साथ–साथ कई अन्तर्राष्ट्रीय सेनाओं के साथ मिल कर विश्व में शान्ति फैलाने के प्रयासों में पूरा महत्वपूर्ण योगदान किया है।

भारत की सीमाओ पर अथवा देश के अन्य आन्तरिक क्षेत्रों में जब भी आतंक का प्रकोप होता है या आम जनता की रक्षा का प्रश्न उठता है तो इस यूनिट के बहादुर सैनिकों को उस राज्य की रक्षा के लिए तुरंत तैनात किया जाता है। इस इकाई के बहादुर सैनिकों के रक्षा कर्त्तव्यों में विशेष बात यह है कि अधिकतर सैनिकों को शत्रु देश के भीतरी क्षेत्र में प्रवेश कर के अपने लक्ष्य को विध्वंस करना पड़ता है जो बहुत कठिनाई और जोखिम का काम होता है। भिन्न भिन्न युद्धों में ऐसे कठिन उद्देश्य की प्राप्ति में अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस यूनिट के अनगिन अधिकारियों एवं सैनिकों को भारत सरकार की ओर से बहादुरी के सर्वोच्च पदकों से विभूषित किया गया है। मुझे इस बात का गर्व है कि मेरे पति वर्ष १९८३ से लेकर १९८६ तक शौर्य और साहस से परिपूर्ण इस यूनिट के कमान अधिकारी रहे और मुझे इन बहादुरों को बहुत करीब से जानने का अवसर मिला।

पिछले वर्ष काश्मीर के पर्वतीय क्षेत्र में छुपे हुए आतंकवादियों के संगठनों को निष्क्रिय करने के लिए तैनात इस यूनिट के कई वीर सैनिकों को अपनी जान की आहुति देनी पड़ी थी। इस वर्ष की सैनिक परेड की एक उल्लेखनीय बात यह थी कि इस यूनिट के एक शूरवीर मेजर मोहित शर्मा को उनके अदम्य साहस और वीरता के लिए सर्वोच्च पदक “अशोक चक्र“ से सम्मानित किया गया था। मेजर मोहित इससे पहले भी दो बार वीरता के पदकों से विभूषित हो चुके थे। इस बार गौरव के साथ- साथ दुःख की बात यह थी कि यह पदक उन्हें मरणोपरांत मिला था।

परेड ग्राउंड में हुए अलंकरण समारोह के बाद उसी शाम को उस यूनिट के अधिकारियों ने स्थानीय मेस में एक रात्रि भोज का आयोजन किया। इस गर्व के मौके पर मैं भी आमंत्रित थी। “वीरों में परमवीर” के सम्मान से विभूषित होना बड़े हर्ष और गौरव की बात थी। धीमे–धीमे बैंड के मधुर संगीत से समारोह शुरू हुआ। सभी एक दूसरे से गले लग कर बधाई दे रहे थे। अतिथियों में कुछ नए लोग थे। तभी मेरा ध्यान एक कोने में मौन खड़ी एक युवती पर गया। इस पूरे समारोह में वो जैसे होते हुए भी कहीं दूर थी। मैं अभी उसकी ओर बढ़ ही रही थी कि कमान अधिकारी की पत्नी लीना साहां ने मुझे उससे मिलवाते हुए कहा,”मैम, यह मेजर रेशमा हैं, मेजर मोहित शर्मा की पत्नी। मैंने स्नेह से उसे गले लगाया। उसका हाथ थामते हुए मैंने उससे कहा,” रेशमा, हमें मोहित पर गर्व है और तुम पर भी। मोहित के अद्वितीय बलिदान के कारण इस यूनिट को भारत की सर्वश्रेष्ठ यूनिट होने का सम्मान मिला है।“ उसने धीरे से सर हिला कर अनुमोदन किया। शायद
कई दिनों से वह ऐसे ही सांत्वना भरे शब्द सुन रही थी। मैं भी काफी देर तक उसका हाथ थाम कर मौन खड़ी रही।

थोड़ी देर में कक्ष के मध्य में हरे कपड़े से ढकी हुई एक विजय स्मारिका (ट्राफी) रख दी गई। यह स्मारिका उस वर्ष काश्मीर घाटी में चरम पंथियों के साथ हुए युद्ध में भाग लेने वाले सेनानियों को समर्पित थी। एक वरिष्ठ अधिकारी ने जैसे ही चादर हटा कर उस विजय स्मारिका का अनावरण किया, सभी आमंत्रित अतिथि बड़े कौतुक और श्रद्धा से उसे देखने लगे । सफेद धातु से बनी हुई इस स्मारिका पर काश्मीर के कुपवाड़ा क्षेत्र के जंगलों का दृश्य उकेरा गया था जहां कई दिन तक सैनिकों तथा आतंकवादियों के बीच भीष्म लड़ाई हुई थी। जंगल और पहाडियों को हरे रंग और नदी नालों को नीले रंगों से इंगित किया गया था। कमान अधिकारी कर्नल साहा ने बड़े गर्व के साथ उन पहाडियों तथा जंगल में
आतंकवादियों के साथ हुई मुठभेड़ का बखान करते हुए अपने सैनिकों की वीरता, संकल्प तथा साहस की गाथा दोहराई।

हम सब चुपचाप उस गौरव गाथा को सुन रहे थे। इसी बीच कर्नल साहा ने उस पहाड़ी की ओर इंगित किया जहां पर मेजर मोहित शहीद हुए थे। कर्नल साहा बता रहे थे कि किस तरह मोहित ने एक निडर और साहसी नेता होने का परिचय देते हुए अपने दल के साथ आतंकवादियों का मुकाबला करते हुए काश्मीर घाटी को एक बहुत बड़े खतरे से बचाया। अभी वो मोहित तथा अन्य वीरों के बलिदान की कहानी बता ही रहे थे कि मैंने देखा कि मोहित की पत्नी रेशमा मंत्रमुग्ध सी धीमे धीमे चलते हुए उस ट्राफी के बिलकुल पास जा कर खड़ी हो गई। वीरता की कहानी यंत्रवत चल रही थी। मैंने देखा, सभी ने देखा, रेशमा ने उस ट्राफी के ऊपर बने हुए उस पर्वतीय स्थान को हलके से छुआ और कुछ देर तक आँखे बंद कर के अपने दोनों हाथ उस स्थान पर रख कर खड़ी रही मानों वो वहां खड़े मोहित से कुछ पूछ रही हो या अंतिम बार अपने वीर पति को विदा कह रही हो। उसके मन में क्या था यह तो मैं नहीं जानती किन्तु इतना अवश्य जानती हूँ कि वो वहीं
कहीं पर बहे रक्त में अपनी माँग के सिन्दूर को ढूँढ रही रही थी।

सारा वातावरण बोझिल हो गया था। किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा। रेशमा बोझिल कदमों से उस ट्राफी के पास गई थी, अब जब लौटी तो उसके मुख पर एक वीरांगना का तेज था।

एक सैनिक की पत्नी होने के नाते मैं यह संस्मरण आपके साथ इसलिए साझा करना चाहती हूँ कि वर्षों से भारत की सीमाओं पर कितने ही वीरों ने अपनी जान की आहुति दी है। हम सब भारतवासियों को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम सदैव उन्हें याद रखें। तथा प्रयत्नशील रहें कि सीमाओं पर शान्ति बनी रहे ताकि हम फिर से किसी मोहित शर्मा को न गवाएँ। इस वर्ष १७ अक्टूबर २०११ को प्रथम पैरा अपनी स्थापना की २५०वीं वर्ष गाँठ मना रही है, और मुझे गर्व है कि उन वीरों के सम्मान में होने वाले यज्ञ में मैं भी भाग ले सकूँगी।

 

१० अक्तूबर २०११

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