एक नदी एक पुल
--शशि पाधा
एक सैनिक
अधिकारी की पत्नी होने के नाते मैंने अपने जीवन के लगभग ३५
वर्ष वीरता, साहस एवं सौहार्द से परिपूर्ण वातावरण में बिताए।
इतने वर्षों में मैंने सुख-दु:ख, मिलन-वियोग,प्रतीक्षा-उत्कंठा
तथा गर्व आदि कितने भावों- अनुभावों को भोगा और अनुभव किया है।
इस लम्बी जीवन यात्रा में कभी कभी ऐसे क्षण आए जो मन और
मस्तिष्क में अपनी अमिट छाप छोड़ गए। आपके समक्ष प्रस्तुत हैं
ऐसे ही कुछ अविस्मरणीय क्षण।
सैनिकों के कार्यकाल में कई ऐसे अवसर आते हैं जब भारतीय सेना
की कुछ इकाइयों को सीमाओं की रक्षा हेतु अन्तर्राष्ट्रीय सीमा
रेखा के पास ही रहना पड़ता है। यह स्थान शहरों से दूर, कभी किसी
ऊँचे पर्वत पर, कभी जंगल, कभी रेगिस्थान और कभी कभी किसी गाँव
के आस पास भी हो सकते हैं। ऐसी जगह सुरक्षा की दृष्टि से
परिवार के सदस्यों को साथ रहने की अनुमति नहीं होती। कयूँकि
ऐसा मौका हर सैनिक अधिकारी/ जवान के कार्यकाल में आता ही है
अत:यह अवधि सभी परिवार बड़े धैर्य औए सहजता से अन्य किसी सैनिक
छावनी में रह कर गुज़ार लेते हैं।
मेरे सैनिक पति के कार्यकाल में भी ऐसे कई अवसर आए। वर्ष १९८८
में मैं अपने दो बच्चों के साथ जम्मू शहर की सैनिक छावनी में
रह रही थी, जब कि मेरे पति वहाँ से
लगभग ६० /७० मील दूर "भारत-पाक लाइन ओफ़ कन्ट्रोल’ के पास एक
सैनिक शिविर में रहते थे। दीपावली का त्योहार था और सीमाओं पर
पूरी शान्ति थी। मेरे पति ने हमें कुछ दिनों के लिये अपने
शिविर में रहने के लिये बुला भेजा। उस समय तक मैंने भारत-पाक
सीमा रेखा को दूरबीन की सहायता से बहुत दूर से ही देखा था। उस
पार के गाँवों में खेतों में काम करते, मवेशी चराते लोगों को
देख कर मन में कितने ही प्रश्न उठते थे। क्या यह बिल्कुल हमारे
जैसे दिखाई देने वाले लोग हमारे शत्रु हो सकते हैं? क्या यह भी
युद्ध चाहते हैं? इन्हें छुटपुट गोला बारी से डर नहीं लगता?
अगर यह हमें देख लेंगें तो क्या यह हम पर गोलियाँ दाग देंगे?
आदि -आदि । किन्तु प्रश्न तो मन में ही रहते और कभी कभी पूछने
पर पतिदेव कह देते "शान्ति काल में कोई किसी पर गोली नहीं
चलाता। केवल सीमाओं की चौकसी के लिये सैनिक यहाँ रहते हैं।"
उत्तर सुन कर मन में शान्ति रहती।
खैर, इस बार की दीवाली हमने अन्य सैनिक परिवारों के साथ मनाई।
खूब मिठाइयाँ बंटीं, मनोरंजन के कार्यक्रम हुए। सैनिक
मन्दिर,गुरूद्वारों में पूजा समारोह हुए। पटाखे आदि चलाने की
अनुमति नहीं थी सो नहीं छोड़े। किन्तु सभी प्रसन्न थे कि
त्योहार में सभी परिवार के सदस्य साथ थे जो कि सैनिक जीवन में
भगवान के प्रसाद की तरह अमूल्य होता है।
दीवाली के अगले दिन मेरे पति ने कहा" कल सीमा पर फ़्लैग मीटिंग
होने वाली है , आप भी मेरे साथ जाना चाहती हो?" ( सीमा पर होने
वाली फ़्लैग मीटिंग में दोनों देशों के सैनिक अधिकारी मिल बैठ
कर सीमा सम्बन्धी घटनाओं पर बातचीत करते हैं। यह मीटिंग
सदभावना से परिपूर्ण होती है ) ऐसा निमन्त्रण पाकर मन उत्सुकता
से भर गया। जम्मू की निवासी होने के कारण मैंने १९६५ और १९७१
के भारत-पाक युद्ध से हुए विनाश और उसकी पीड़ा को बहुत पास से
देखा/ भोगा था। आज मुझे सीमा रेखा ( लाइन ओफ़ कन्ट्रोल ) के
बिल्कुल पास जाने का अवसर मिला। मैंने "हाँ"
कर दी।
जम्मू से लगभग ६० मील दूर "छम्ब" क्षेत्र के पास जीप से उतरने
के बाद हम ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ सीमाओं की चौकसी के लिये
बने हुए मोर्चे और बँकर बने हुए थे और सभी सैनिक उन बँकरों में
ही रहते थे । हमें आते देख कर कुछ सैनिक बँकरों से बाहर आए और
जोर से " राम राम साहिब", "राम राम
मेम साहिब" कह कर हमारा अभिवादन किया। कहीं पर तो झटपट मग में
चाय और बिस्कुट आ गये। एक छोटे से बंकर में मंदिर स्थापित था।
वहाँ हमने देवता को प्रणाम किया और प्रसाद ग्रहण किया। अब यहाँ
पर भी एक खुशी का वातावरण छा गया, क्यूँकि ऐसे स्थानों पर
सिवाय सैनिकों के और कोई नहीं जा सकता। मुझे लगा कि अपने
परिवारों से दूर यह सीमा के रक्षक हमारे बच्चों से मिल कर बहुत
खुश हुए जैसे दूर किसी गाँव में बैठे अपने बच्चों से मिल रहे
हों।
चलते-चलते उस क्षेत्र में हम एक नदी के पास पहुँच गये। नदी का
नाम "मनाव्वर" था। उस नदी के ऊपर सीमेंट का एक पुल था जो नदी
के बीचोबीच टूटा हुआ था। मेरे पति ने बताया कि १९७१ के भारत
-पाक युद्ध के समय इस पुल को उड़ा दिया गया था ताकि दोनों देशों
की सैनाएँ नदी के आर -पार न जा सकें। पुल के हमारी ओर के छोर
पर हमारे देश की निरीक्षण चौकी थी और दूसरे छोर पर पाकिस्तानी
सेना की निरीक्षण चौकी थी। टूटे पुल के नीचे दोनों किनारों के
बीच स्वच्छन्द, निश्चित एवं निर्बाध नदी बह रही थी। अपनी तरफ
के पुल के टूटे हिस्से पर चढ़ते हुए कुछ घबराहट सी होने लगी।
मैंने बच्चों को अपने पीछे चलने के लिए कहा। दो चार कदम चलने
पर पाकिस्तान की सीमा की ओर से बहुत ही मधुर संगीत के स्वर आने
लगे। संगीत तो सारे विश्व का होता है अत: सुन कर लगा कि यहाँ
भी हमारे जैसे लोग हैं। उस संगीत के स्वरों से सारा वातावरण
मधुर हो गया। हमारी ओर तैनात "जे सी ओ"
ने आवाज़ दी, "भाई लोग
कैसे हो?"
खाकी
वर्दी में कुछ पाकिस्तानी सैनिक चौकी से बाहर आ गए। हमें देख
कर उन्हों ने अभिवादन किया। हमने भी हाथ जोड़ कर मौन नमस्ते की।
हमारे सैनिक ने कहा, " कल हमारे
यहाँ दिवाली थी, हमारी मेम साहिब आप सब के लिये दीवाली की
मिठाई लाईं हैं। यह सुन कर मैंने उनके चेहरे पर प्रसन्नता और
अपनत्व के ऐसे भाव देखे कि मन का सारा संशय, डर दूर हो गया।
उन्हों ने बड़े प्रेम से कहा, "बड़ा
शुक्रिया आपका और आप सब को दीवाली की बहुत बहुत मुबारिक।" अब
क्यों कि मैं निश्चिन्त थी अत: मैंने कहा "आप सब के परिवार
कैसे हैं? आपको तथा आपके परिवार को हमारी ओर से प्यार तथा
शुभकामनाएँ।"बदले में उन्होंने हाथ जोड़ कर मुस्कुराते हुए
"सलाम" कहा। मैंने देखा कि वे बड़े स्नेह के साथ हमारे बच्चों
को देख रहे थे जैसे गले लगाना चाहते हों। लेकिन, सीमा रेखा के
नियम/ बाधाएँ उन्हें रोक रहीं थीं।
वापिस लौटते हुए मैं अपने पति के साथ उस चौकी पर भी गई जहाँ
फ्लैग मीटिंग तय थी। दोनों ओर के अधिकारियों ने हाथ मिलाए और
कुछ बातचीत होती रही। हमने अपने मिठाई के डिब्बे उनके
अधिकारियों को यह कह कर दिए कि कृपया यह मिठाई आप पुल पर तैनात
अपने सैनिकों तक पहुँचा दें। उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा "
बहुत-बहुत शुक्रिया आपका।"
वापिस आते आते मैं मनाव्वर नदी की बहती हुई लहरों को देखती रही
जिनमें सूरज की स्वर्णिम किरणें पूरे लालित्य के साथ नृत्य कर
रहीं थीं और जलधारा स्वछन्द गति से बह रही थी। ऐसा सुन्दर
दृश्य देख कर मैं तो यह भूल गई कि हम दो देशों की सीमा पर खड़े
हैं। मैंने अपने पति से पूछा,"यहाँ पर सीमा रेखा कहाँ पर है"?
उन्होंने नदी के बीचोबीच टूटे पुल के नीचे गाड़े लकड़ी के खम्भों
की ओर संकेत किया और कहा, " बस
यही।"
"बस यही?" मैं अवाक सी उन
निर्जीव लकड़ी के खम्भों को देखती रही।
सब लोग वापिस चलने लगे, लेकिन मैं कुछ देर और रुक सी गई। हैरान
सी मैं कभी उस टूटे पुल को, कभी नदी की बहती धारा को और कभी
लहरों में नृत्य करती सूरज की किरणों को देख कर सोचती रही "
क्या पुल तोड़ देने से कोई बहती नदी बँट सकती है? इस
पावन-निर्मल जलधारा को, लहरों को,
सूर्यकिरण को, ऊपर के नीले आकाश को, इस स्थान पर बहती हुई पवन
की खुशबू को, उस पार से आते हुए मधुर संगीत को, हमारी और उनकी
सद्भावना को, आपसी प्रेम दर्शाने वाले मानवीय गुणों को कोई भी
दीवार, कंटीला तार, लकड़ी के खम्भे या कोई भी गोली दो भागों में
नहीं बाँट सकती। इस प्राकृत संपदा पर किसी राजनेता, किसी सरकार
या किसी देश की सेना का कोई अधिकार नहीं है। यह तो हमारी, उनकी
सब की साँझी है।
फिर युद्ध क्यों? |