वंदेमातरम
की रचना
—
राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह
वंदे मातरम की रचना कब, कैसे और
क्यों?
बंगाल में बंगला के लेखक, कवि और उपन्यासकार तो बहुत से हुए
हैं, पर बंकिम बाबू की अपनी एक शैली थी और उन्होंने 'वंदे
मातरम्' गीत लिखकर अपने को अमर कर दिया। मुझे याद आते हैं
वे दिन जब एक तरफ यह गीत लोगों में स्वतंत्रता-संग्राम के
लिए जोश पैदा करता था वहीं दूसरी ओर देश की परतंत्रता पर
उन्हें दुखी करता था।
सन १९३८ में हरीपुर (वारदोली ताल्लुका) में कांग्रेस का जो
अधिवेशन हुआ था, वैसा कोई और नहीं हुआ। सारा प्रबंध सरदार
पटेल का था। लाखों की भीड़ थी पर शांति इतनी कि यदि एक कलम
हाथ से गिर जाती तो उसकी आवाज कानों में आ पड़ती, गरज यह
कि ऐसा आदेश- पालन किसी कांग्रेस में देखने को नहीं मिला।
मैं बिहार के डेलिगेटों के बीच बैठा हुआ था, पर सभी
डेलिगेट चुप शांत भाव से गाँधीजी और उनके साथ सुभाष बाबू
के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। सहसा गाँधीजी लाठी लिये
हुए और सुभाष बाबू गाँधी टोपी पहने हुए आकर मंच पर खड़े हो
गये। लोगों ने तालियाँ पीटीं और विद्यापीठ की कुछ लड़कियों
ने "वंदे मातरम्" गाना आरंभ किया। देश-प्रेम की भावना से
ओत-प्रोत लाखों की भीड़ रो पड़ी - ऐसा आकर्षण था उस गीत
में।
नौहाटी का भक्तिमय वातावरण
बंकिम बाबू का जन्म कलकत्ते से कुछ मील की दूरी पर स्थित
नौहाटी नामक नगर में सन १८३६ में हुआ था। वे एक संपन्न
जमींदार परिवार में जन्मे थे। उनका पुश्तैनी मकान किसी
राजमहल से कम न था। उनके पिता श्री यादव चंद्र चटर्जी एक
बड़े जाने-माने व्यक्ति थे, साहित्यिक एवं राधा-कृष्ण के
परम भक्त भी। उन्होंने अपने पुराने घर से प्राय: डेढ़
किलोमीटर दूर जाकर देवल पाड़ा महल्ले में एक विशाल दो
मंजिले भवन का निर्माण किया, जिसके मध्य में श्री
राधा-कृष्ण का मंदिर बनवाया। जहाँ पूजा-अर्चना तो एक पंडित
करता था पर राधाजी की सुंदर अष्टधातु की बनी हुई प्रतिमा
की सेवा के लिए एक अलग परिचारिका रखी गयी थी, जो राधाजी की
सेवा अर्थात श्रृंगार, पूजा आदि करती। उन्हें प्रतिदिन नयी
पीले रंग की साड़ी पहनायी जाती, तभी मंदिर का पट खुलता और
सैकड़ों दर्शनार्थी, जो खड़े होकर पट खुलने की प्रतीक्षा
करते रहते थे, साष्टांग प्रणाम करते और पुजारी से प्रसाद
लेते। मकान के विशाल हाते में रथ-शोभा यात्रा भी सावन के
महीने में निकला करती थी (वैसे ही - जैसे श्री जगन्नाथ
पुरी में) रथ पर कृष्ण-बलराम के विग्रह होते। इस अवसर पर
हाते में एक छोटा-मोटा मेला भी लगता, जिसमें हर चीज की
छोटी-छोटी दुकानें होतीं तथा संगीत का आयोजन भी होता।
बंकिम बाबू का एक कमरा मंदिर के पास ही था, जिसमें बैठकर
उन्होंने अपने अनेक उपन्यासों के अधिकांश हिस्से लिखे थे।
इनके ये उपन्यास बंगला साहित्य की निधि है : १. दुर्गेश
नंदिनी २. कपाल-कुंडला ३.मृणालिनी ४.विष-वृक्ष ५. इंदिरा
६. कृष्णकांतेर वील ७. चंद्रशेखर ८. आनंद मठ ९. देवी
चौधरानी तथा १०. सीताराम इत्यादि।
इन उपन्यासों में बंकिम बाबू का सबसे पहला उपन्यास 'दुर्गेश
नंदिनी' है, जिसमें एक वीर क्षत्राणी की कथा है। ये सारे
उपन्यास उन्होंने अपने लिखने के कमरे और अर्जुना झील के तट
पर बैठकर लिखे थे। अर्जुना झील करीब छह किलोमीटर में फैली
हुई है और चारों ओर तरह-तरह के घने वृक्ष तथा धान के खेत
इसके सौंदर्य पर चार चांद लगाते हैं। मैं इसे देखकर चकित
रह गया। बंकिम बाबू के 'वंदे मातरम्' में बंगाल का जो रूप
चित्रित है, वह हू-ब-हू इस झील में मानो अंकित हो। इसे
देखते ही स्मरण हो जाता है --
सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम
शस्य श्यामलाम् मातरम्। वंदे मातरम्
बंकिम बाबू के उपन्यासों में 'आनंद मठ' सबसे विख्यात और
सर्वोपरि है। 'आनंद मठ' का नाम और विषय दोनों ही त्रिकोण
पर आधारित है। इस कथा का मूल बंगाल का महा दुर्भिक्ष है,
जो सर जॉन शोर की रिपोर्ट के मुताबिक सन १७६९-१७७० में हुआ
था। वह एक ऐसा वक्त था, जब सोने से ज्यादा मूल्यवान अन्न
था। सोना देने पर भी अन्न प्राप्त होनेवाला न था। माँ की
गोद में बच्चे दूध के लिए तड़प-तड़पकर मर जाते थे और उनके
सामने ही लाश को चील, सियार, कौआ नोच-नोचकर खाते थे। एक
तरफ प्रकृति का तांडव-नृत्य, दूसरी तरफ नवाबों का शासन,
जहां प्रशासक थे मुर्शिदाबाद के नवाब मीरजाफर। मगर लगान की
वसूली शाह आलम से दीवानी प्राप्त कर कंपनी ने अपने हाथों
में ली थी। दोनों शासकों के बीच रिआया की स्थिति काफी
दयनीय हो गयी। कोई सहायता तो थी नहीं, यदि कुछ था तो सिर्फ
शासन का जुल्म। इस जुल्म के विरोध में प्रतिशोध की भावना
से उठोरित अपने मठाधीशों के आदेश से संन्यासियों ने
विद्रोह किया।
पलासी की लड़ाई के बाद कंपनी बंगाल और उड़ीसा की दीवानी
(बादशाह शाह आलम से उसने दीवानी हासिल की थी) हासिल कर
अपनी सत्ता स्थापित करने में लगी हुई थी। परिणाम यह हुआ कि
अर्थ की व्यवस्था तो कंपनी के हाथों में थी और शासन नवाब
के हाथों में।
बिहारी का एक दोहा है --
"दुसह दुराज प्रजानिको, क्यों न बढ़े दु:ख द्वंद अधिक
अंधेरों जग करत, मिली मावस रविचंद।।" अर्थात, जब दुअमली
होती है -- प्रजा पर दुहरे शासकों का शासन होता है -- तो
प्रजा के दु:ख बेतरह बढ़ जाते हैं, जैसे अमावस की रात
सूर्य और चंद्र के एक साथ मिल जाने से सर्वाधिक गहरी काली
हो जाती है।
यही हाल बंगाल का हो रहा था। एक ओर कंपनी की सरकार वित्त के
मामलों में अपना अधिकार मजबूत करने में लगी हुई थी, जिसके
लिए उसने दीवानी हासिल की थी। दूसरी ओर नवाबों के शासन से
देश की जनता कुचल रही थी। यही कारण था संन्यासियों को
हिंदुओं के रक्षार्थ विद्रोह करना पड़ा। उनका दल गाँव-गाँव
जा-जाकर हिंदुओं को प्रोत्साहित करने के लिए यह गीत गाता
हुआ विचरा करता था --
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्
सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्।
शस्य श्यामलाम् मातरम्।। वंदे मातरम्।।
शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीम्।।
सुहासिनी समधुर भाषिणी।
सुखदां वरदां मातरम्।।
वंदे मातरम्।
त्रिशंत्कोटि कंठ कल-कल निनाद कराले,
द्वित्रिशत्कोटि भुजेधृति स्वर कर वाले।
के बेले मा तुमी अबले,
बहुबल धारणीम् नमामि तारणीम्।
रिपुदल वारणीम् मातरम्।। वंदे मातरम्।।
'आनंदमठ' की लोकप्रियता
इस तरह से बंकिम बाबू ने त्रिकोणात्मक कथा को 'आनंद मठ' में
बड़ी कुशलता से उस समय की स्थिति का सजीव चित्रण करते हुए
दिखलाया है। कहना न होगा कि यह पुस्तक बंगाल में अतिशय
लोकप्रिय हुई और घर-घर में 'वंदे मातरम्' गीत गाया जाने
लगा। हिंदुओं के लिए इस गीत ने संजीवनी-बूटी-सा काम किया।
प्रस्तुत है इस लोकप्रियता का एक प्रमाण। सन १९०१ में जब
गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर अपनी पुत्री माधवीलता के विवाह
के संबंध में मेरे शहर मुजफ्फरपुर में पधारे तो यहां के
बंगाली समाज ने उन्हें प्रथम मान-पत्र (नोबेल पुरस्कार
प्राप्ति के कई साल पहले) प्रदान किया था। सभा में खासी
भीड़ हुई और लोगों ने बड़े चाव से गुरूदेव के भाषण को सुना
और अंत में उनसे अनुरोध किया कि वे अपने मुख से एक गीत
गाकर सुनाएं। इस अनुरोध पर उन्होंने जो गीत गाया, वह 'वंदे
मातरम्' ही था।
अंगरेजी का प्रसार-प्रचार
पलासी की लड़ाई के बाद बंगाल में अंगरेजों की सत्ता
धीरे-धीरे मजबूत होने लगी उन्हीं दिनों राजा राम मोहन राय
के अथक प्रयास से ब्रिटिश पार्लियामेंट ने ईस्ट इंडिया
कंपनी को यह आदेश दिया कि वह भारतवर्ष में अंगरेजी शिक्षा
का आरंभ करे और इस आदेशानुसार लार्ड बेंटिक ने कई संस्थाएं
खुलवायीं। इनमें सबसे प्रथम था कलकत्ता का प्रेसिडेंसी
कॉलेज जो सन १८२० में स्थापित हुआ। अंगरेजी शिक्षा के तहत
प्रेसिडेंसी कॉलेज भारत का ही नहीं बल्कि एशिया का सबसे
पहला कॉलेज था। प्रेसिडेंसी कॉलेज की स्थापना के बाद
कलकत्ता विश्वविद्यालय की सृष्टि हुई, जिसका विस्तार बंगाल
से लेकर पंजाब तक था और इस देश के दक्षिण हिस्से को छोड़कर
बाकी सभी हिस्सों में जो कॉलेज स्थापित हुए, उन सबकी
परीक्षाएँ कलकत्ता विश्वविद्यालय ही लिया करता था।
किसे कलाम न होगा यहाँ यह कहना कि नौहाटी नगर गंगा के किनारे
पड़ता है। गंगा के उस पार चेनसुरा नगर है। किसी समय यह
फ्रांस के अधिकार में था। क्लाइव और फ्रांसिसी जनरल डुप्ले
के बीच लड़ाई चली थी और अंत में दोनों के बीच इस शर्त पर
सुलह हुई कि बंगाल में चंदरनगर और चेनसुरा तथा मद्रास में
पांडिचेरी फ्रांस के अधिकारगत होंगे। तदनुसार ये फ्रांस के
अधिकार में आये और यहां फ्रेंच की पढ़ाई शुरू हुई।
चेनसुरा में-
चेनसुरा में बंकिम बाबू के पिता के मित्र बंगाल के प्रसिद्ध
उपन्यासकार भूदेव मुखोपाध्याय रहा करते थे। इन दोनों के
बीच बड़ी मैत्री थी। आना-जाना बना रहता था। इसको आसान करने
के लिए बंकिम बाबू के पिता ने गंगा और अर्जुना झील के बीच
(दूरी बहुत कम थी)। एक नहर बनवायी और एक नौका अर्जुना में
रखी, जिस पर चढ़कर वे चेनसुरा जाते और अर्जुना में यदाकदा
सैर किया करते थे। गंगा से लगे रहने के कारण अर्जुना झील
का पानी कम नहीं होता। यह नहर शायद अब भी वर्तमान है।
बंकिम बाबू के बाद कोई पुत्र नहीं था और उनकी माली हालत भी
खराब हो चली तो उनके पिता का बनवाया हुआ विशाल महल
धीरे-धीरे खंडहर हो चला। उनके तीन नाती थे, उनके पास उतना
पैसा नहीं कि मरम्मत करा सकें। परिणाम यह हुआ कि बंकिम
बाबू के देहावसान के बाद ये महल खंडहर का रूप धारण करने
लगे। उनके नाती कलकत्ता चले गये।
खंडहर निवास - अब संग्रहालय-
बंगाल सरकार ने मकान के कुछ हिस्से जो अभी भी अच्छी अवस्था
में हैं तथा बंकिम बाबू के लिखने-पढ़ने का कमरा तथा शिव और
राधा वल्लभ के मंदिर अपने हाथ में कर लिये हैं और इसे एक
संग्रहालय का रूप दे डाला है। दर्शक इन्हें जिले के
डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट से परमिट लेकर ही देखने जा सकते
हैं।
वर्तमान समय में नौहाटी और शहरों की तरह एक उन्नत शहर
बन गया है और वहां का 'टेनिस बॉल साईज' का मशहूर रसगुल्ला
आज भी बनता है। यहां का प्रसिद्ध महल्ला भांटपाड़ा आज भी
संस्कृत विद्या का केंद्र बना हुआ है। भांटपाड़ा, जो शहर
से प्राय: आधा किलोमीटर की दूरी पर है, के ब्राह्मणों के
परिवार आज भी परंपरागत जीवन-शैली अपनाये हुए हैं। पर बंकिम
बाबू के कारण जो गरिमा उसे प्राप्त थी, वह अब कहानी बनकर
रह गयी है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा था --
कहेंगे सबेई नैंन भरि-भरि पाछे
प्यारे हरिश्चंद्र की कहानी रहि जायेगी
विषयांतर न होगा यहाँ यह बताना कि बंकिम बाबू के परिवार की
एक कन्या का विवाह हमारे नगर मुजफ्फरपुर में हुआ था। वह अब
भी जीवित हैं और यहीं ससुराल में रहती हैं। इस लेख में
बंकिम बाबू के संबंध की अधिकांश बातें उन्हीं से सुनी हुई
हैं, अत: प्रामाणिक हैं।
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