हिंदी फ़िल्मों में राष्ट्रीय भावना
—अजय ब्रह्मात्मज
जल्दी ही रिलीज़ हो रही
राजकुमार हिरानी की फ़िल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' में एक गीत है – 'बंदे में
था दम, वंदे मातरम।' 'आओ बच्चो तुम्हें दिखाऊं झांकी हिंदुस्तान की' की धुन
से प्रेरित इस गीत में गाँधीजी का आह्वान किया जाता है। गाँधीजी के बारे
में गीतकार के शब्द हैं, 'ऐनक पहने, लाठी पकड़े चलते थे वे शान से, ज़ालिम
कांपे थर–थर–थर, सुन कर उनका नाम रे, कद था उनका छोटा और सरपट उनकी चाल रे
दुबले से पतले से थे वो, चलते सीना तान के . . . बंदे में था दम, वंदे
मातरम।'
इस फ़िल्म का नाम बीच में 'मुन्नाभाई मीट्स महात्मा गाँधी' रखा गया था। यहां
तक कि फ़िल्म के प्रचार में मुन्नाभाई और सर्किट के पीछे आकाश में बादल
मंडराते हुए गाँधी की शक्ल ले लेते हैं। निश्चित रूप से निर्माता विधु
विनोद चोपड़ा और निर्देशक राजकुमार हिरानी ने फ़िल्म में गाँधी के बहाने
राष्ट्रीय भावना का संदर्भ लिया होगा। क्योंकि इसी गीत में गीतकार का
आह्वान है, 'ओ आ जा रे . . .आ जा रे माटी पुकारे तुझे देश पुकारे, आ जा रे
अब आ जा रे भूले हम राहें हमें राह दिखा दे . . . आ जा रे अब राह दिखा दे .
. .'
इस साल आ चुकी 'रंग दे बसंती' और 'फना' में राष्ट्रीय भावना और देशभक्ति के
एहसास को राकेश मेहरा और कुणाल कोहली ने अलग–अलग तरीके से दिखाने की कोशिश
की। 'रंग दे बसंती' की राष्ट्रीय भावना मनोरंजन के सागर में सतह पर नहीं
तैरती। उस फ़िल्म के किरदार डुबकियां लगाते हैं और यह एहसास दिलाते हैं कि
सिर्फ़ सिस्टम को गाली देने से कुछ नहीं बदलेगा। अगर बदलाव चाहिए तो पहल करनी
होगी। 'रंग दे बसंती' में हम वर्तमान समय के किरदारों और अतीत के
क्रांतिकारियों के परस्पर रूपांतरण के बीच देखते हैं कि देश भले ही आज़ाद हो
गया हो, पर सिस्टम नहीं बदल पाया है। फ़र्क इतना ही आया है कि अब विदेशी
अंगे्रज़ गोरों की जगह आज़ादी में शामिल रहे स्वतंत्रता सेनानियों के छोरी–छोरे
राज कर रहे हैं। सत्ता और जनता की दूरी बरकरार है और अपने निजी हित एवं
स्वार्थ में सत्ताधारी फिर से जलियांवाला बाग की घटना दोहरा सकते हैं।
वे निहत्थों पर गोली चलाने से लेकर बेकसूर नागरिकों को जेल में ठूंसने तक
शर्मनाक और फ़ासीवादी काम कर सकते हैं। हम देखते हैं कि अतीत के
क्रांतिकारियों की तरह ही बदले संदर्भ में आज के युवक एक–एक कर मारे जाते
हैं। 'रंग दे बसंती' कोई समाधान नहीं देती। वह सवाल खड़े करती है और घोर
मनोरंजन के इस दौर में यह काफ़ी है। यशराज फ़िल्म की 'फना' एक आतंकवादी की
कहानी है, जो अपने विश्वास और जेहाद के लिए बीवी–बेटे की परवाह नहीं करता।
हालांकि फ़िल्म की नायिका और बीवी के हाथों आतंकवादी नायक मारा जाता है,
लेकिन उसकी ज़िद दर्शकों को आकर्षित कर जाती है। 'फना' में निर्देशक ने
नासमझी में कुछ ऐसे राजनीतिक स्टेटमेंट भी दिए हैं, जो देशहित में नहीं कहे
जा सकते। हां, यश चोपड़ा की देखरेख में बनी इस फ़िल्म में इतनी सावधानी रखी
गई है कि इस आतंकवाद से तबाह होते भारत के साथ ही पाकिस्तान और अन्य देशों
को भी जोड़ दिया गया है। भारत में सक्रिय पाकिस्तानी आतंकवादी हरकतों को
इंटरनेशनल स्वरूप दे दिया गया है। मालूम नहीं शब्दों की इस चालाकी से यश
चोपड़ा क्या हासिल करना चाहते थे?
मणि रत्नम की फ़िल्म 'रोज़ा' ने पहली बार पड़ोसी या विदेशी आतंकवादी को एक
चेहरा नाम और परिवेश दिया। उन्होंने स्पष्ट दिखाया कि ये आतंकवादी कहां से
आते हैं। 'रोज़ा' 'बांबे' और 'दिल से' में मणि रत्नम ने राष्ट्रप्रेम,
सांप्रदायिकता और आतंकवाद की पृष्ठभूमि में प्रेम कहानियां रचीं। उन्होंने
न केवल देश में सक्रिय खलनायकों से जूझते नायकों को दिखाया बल्कि दर्शकों
की राष्ट्रीय भावना को लोकप्रिय अभिव्यक्ति दी। 'रोज़ा' का नायक जब जलते
तिरंगे पर लेटता है तो आज भी सिनेमाघरों में बैठे दर्शकों का खून रगों में
तेज़ी से दौड़ने लगता है। 'दिल से' में नायक आतंकवाद से छिड़ी लड़ाई में शहीद
हो जाता है। 'बांबे' के प्रदर्शन के समय हालांकि शिवसेना ने कुछ मुश्किलें
खड़ी की थीं, लेकिन मणि रत्नम की सोच स्पष्ट रूप में हिंदू सोच से प्रभावित
रही है। उनकी फ़िल्मों की राष्ट्रीय भावना दर्शकों को अंधराष्ट्रवाद की ओर
ले जाती है, हिंदी फ़िल्मों में देशभक्ति के इस रूप का उत्कर्ष 'गदर' में
दिखता है।
देशभक्ति या राष्ट्रीय भावना हिंदी फ़िल्मों के लिए नया विषय नहीं है। आज़ादी
के पहले इस तरह की फ़िल्में बनती रही हैं और उनका असर एवं योगदान भी रहा है।
हालांकि आज़ादी के पहले की फ़िल्मों ने कभी सीधे तौर पर अंग्रेज़ों की सत्ता
को चुनौती नहीं दी, लेकिन अप्रत्यक्ष तरीके से उन फ़िल्मों ने अवश्य ही
देशभक्तों और नागरिकों को प्रेरित किया। 'किस्मत' फ़िल्म में एक सांस्कृतिक
कार्यक्रम में 'दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है' का उद्घोष
पंडित प्रदीप ने किया था। आज़ादी के तुरंत बाद हिंदी फ़िल्मों में खलनायक के
तौर पर अंगे्रज़ों को दिखाया गया। इन फ़िल्मों में ब्रिटिश हुक्मरानों को
अत्याचारी और नृशंस के रूप में चित्रित किया जाता था। आज़ादी के ठीक बाद बनी
'शहीद' में दिलीप कुमार और कामिनी कौशल की जोड़ी ने काम किया था। इस फ़िल्म
का गीत 'वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो' को कौमी तराने की तरह हर सभा–सम्मेलन
में गाया जाता था।
देशभक्ति और राष्ट्रीय भावना के चित्रण के लिए हिंदी फ़िल्मों में किसी
दुश्मन या खलनायक का होना ज़रूरी है। लंबे समय तक खलनायक के रूप में हम
अंग्रेज़ों को देखते रहे। उसके बाद वह विदेशी ताकत बन गया, जिसके इशारे पर
भारतीय गुर्गे ग़लत काम करते नज़र आते रहे। 'रोज़ा' के बाद वह पाकिस्तानी हो
गया और अब अमेरिकी प्रभाव में वह इंटरनेशनल स्तर पर कार्यरत मुस्लिम
आतंकवादी है। चूंकि ज़्यादातर हिंदी फ़िल्मों का मुख्य मकसद मनोरंजन होता है,
इसलिए देशभक्ति भी मनोरंजन की चाशनी में लिपटी रहती है। राष्ट्रीय भावना के
साथ मोहब्बत को जोड़ देना हिंदी फ़िल्मकारों के लिए बाएं हाथ का खेल है। 'रंग
दे बसंती' और 'लगान' जैसी फ़िल्में कम बनती है, जिनमें राष्ट्रीय भावना
कथानक का हिस्सा हो।
इधर एक नया अहसास पैदा हो रहा है। आज़ादी के लगभग साठ सालों के बाद भी देश
की विपन्न स्थिति देखते हुए फ़िल्मकार अपने आसपास के यथार्थ और भाव को स्वर
देना चाहते हैं। उनकी कोशिशें जारी हैं, लेकिन मनोरंजन के पक्षधर बड़े बैनर
और पॉपुलर स्टार ऐसी फ़िल्मों को ज़्यादा तरजीह नहीं देते। उनकी मंशा भी नहीं
रहती कि ऐसी फ़िल्में हिट हो, जो कड़वी सच्चाइयों को बयान करती है और दशकों
को उत्तेजित करते हैं। अगर ऐसी फ़िल्में पसंद आने लगीं तो बड़े बैनरों के
बिज़नेस और पॉपुलर स्टारों के स्टारडम का क्या होगा? अफ़सोस की बात है कि
हिंदी फ़िल्मों की राष्ट्रीय भावना भी फ़िल्म स्टारों से प्रभावित है।
१६ अगस्त २००६
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