शांतिदूत
-शशि पाधा
यह प्रसंग
वर्ष १९९८ के आस-पास का है। कारगिल के भयंकर युद्ध में कितने
ही शूरवीरों ने अपने जान की आहुति दी थी। पूरे देशवासियों का
हृदय दुःख, क्षोभ एवं ग्लानि के मिले-जुले भावों से छलनी था।
युद्ध पहले भी होते रहे हैं, सीमाएँ पहले भी रक्तरंजित होती
रही हैं, किन्तु यह युद्ध सीमाओं के साथ-साथ जनता के घरों में,
टीवी स्क्रीन पर भी लड़ा जा रहा था। हरेक क्षण का वृत्तांत
सामने देख कर शत्रु के प्रति आक्रोश और युद्ध में विजयी होने
की भावना हर भारतीय के खून में खौल रही थी। उन्हीं दिनों
भारत-पाक सीमा से सटी हुई एक चैक पोस्ट पर मैंने जो दृश्य
देखा, उस ने मुझे दोनों देशों के बीच शांतिमय भविष्य के प्रति
कुछ आश्वस्त किया था।
पंजाब के फिरोजपुर शहर की छावनी में स्थित है “हुसैनी वाला”
चेक पोस्ट। इस पोस्ट पर भारत–पाक सीमा को निर्धारित करते हुए
लोहे की सलाखों वाले दो बड़े –बड़े से काले रंग के प्रवेश द्वार
हैं। दोनों प्रवेश द्वारों पर अपने-अपने देश का नाम बड़े–बड़े
अक्षरों में लिख हुआ है। दोनों के बीच परेड स्थल है जिसे सैनिक
भाषा में “ज़ीरो लाइन“ कहा जाता है। सादी भाषा में वो ज़मीन का
टुकड़ा किसी देश का नहीं। प्रवेश गेट के ठीक पीछे दोनों देशों
की दर्शक दीर्घा है जहाँ बैठ के दर्शक हर शाम राष्ट्रीय झंडा
उतारने की परेड देख सकते हैं।
इस परेड का विशेष आकर्षण यह है कि दोनों देशों के सुरक्षा बलों
के सैनिक, छ: फुट से भी लम्बे, बड़ी ही आकर्षक वर्दी में आकर
अस्त्र-शस्त्रों के साथ अपने जूतों को पटक–पटक कर परेड करते
हुए अपने-अपने देश के झंडे को सलामी देते हुए उतार कर रात के
लिए सहेज देते हैं। इन सैनिकों के जूतों मे लोहे की प्लेटें लगी
होती हैं और जब यह पैर को जोर से उठा कर जमीन पर मारते हैं तो
ऐसा लगता है कि शत्रु के सामने अपने बल का प्रदर्शन कर रहे
हों। जब दोनों ओर के सैनिक आमने सामने होते हैं तो एक दूसरे की
आँख में ऐसी नोकीली नज़रों से देखते हैं मानों आँखों से निगल
जायेंगे। यह पूरा कार्यक्रम लगभग आधे घंटे का होता है।
जब भारतीय
सैनिक बल प्रदर्शन करते हैं तो पाक दर्शक दीर्घा में सन्नाटा
होता है और भारतीय दर्शक जोर-जोर से करतल ध्वनि के साथ अपने
सैनिकों का अभिवादन करते हैं। जब पाक सैनिकों का बल प्रदर्शन
होता है तो हमारी ओर चुप्पी, वहाँ के दर्शक और भी जोर से ताली
बजा कर अपने सैनिकों को शाबाशी देते हैं। मुझे तो यह सब एक
नाटक की तरह लगता था किन्तु सैनिक परम्परा है, इसे वर्षों से
निभाया जा रहा है।
हम उन दिनों फिरोजपुर में ही रहते थे। हमारे पास बहुत से
मेहमान इसलिए भी आते थे ताकि इस आकर्षक परेड का अनुभव ले सकें।
मैंने कई बार इसे देखा था किन्तु इस बार जिस दृश्य को देखा वो
मेरे मानस पटल पर सदैव के लिए अंकित हो गया। अगर उस समय मेरे
पास कैमरा होता दृश्य को कैद करके दोनों देशों की सरकारों को
तस्वीरें भेजती और मानवता का संहार करने वाली, युद्ध जैसी
क्रूर भावनाएँ सदा – सदा के लिए मिट जातीं।
उस शाम परेड हो रही थी। दोनों देशों के सैनिक आकाश को चीरने
वाली ध्वनि से अपने पैर पटक पटक कर, शस्त्रों को पूरे बल के
साथ उठा कर एक दूसरे को खूँखार दृष्टि से घायल करते हुए परेड
कर रहे थे और झंडे को उतारने की प्रक्रिया में लगे थे। दोनों
ओर जोर –जोर से तालियाँ बज रही थीं। अचानक मेरा ध्यान
पाकिस्तान की दर्शक दीर्घा में बैठे हुए एक बच्चे की ओर चला
गया। उस नन्हें मुन्ने की आयु लगभग चार वर्ष होगी। उसने हरे रंग
की कमीज़ पहनी हुई थी (पाकिस्तान का राष्ट्रीय रंग)। उस दीर्घा
में बहुत सी स्त्रियों ने भी हरे दुप्पट्टे और आदमियों ने हरी
टोपियाँ पहनी हुई थीं। हमारी ओर भी किसी-किसी के हाथ में
तिरंगा लहरा रहा था।
अचानक मैंने
देखा कि जब भी भारतीय सैनिक अपनी परेड करते,पाकिस्तान की पूरी
दर्शक दीर्घा में सन्नाटा होता किन्तु केवल यही मासूम
नन्हाँ-मुन्ना बड़े उत्साह से ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजाता। उसकी
तालियों ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया था। मैं अब परेड नहीं
देख रही थी। मैं केवल यही देख रही थी कि बच्चा ताली बजा रहा है
और उसके अभिभावक बार –बार उसे रोक रहे हैं। वो बड़े उत्साह से
तालियाँ बजा रहा है और लोग मुड़ –मुड़ कर उसे देख रहे हैं। वो
मासूम, नि:छल हृदय क्या जाने कि कौन उसका अपना है और कौन
शत्रु। शायद उसे भारतीय सैनिकों की वर्दी आकर्षक लग रही थी, या
पाकिस्तानी सैनिकों की पीठ दर्शक दीर्घा की तरफ़ थी और वो
भारतीय सैनिकों के चेहरे के हाव –भाव देख कर प्रसन्न हो रहा
था। या – वही जाने।
मैं तो बस उस भोले भाले बच्चे को देख कर, उसकी तालियों की आवाज़
में प्रेम, सद्भाव और विश्व शान्ति की अनकही उद्घोषणा सुन रही
थी। काश ! विश्व के नेताओं की भी ऐसी सकारात्मक सोच हो जाए।
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