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सूरीनाम जहाँ प्रेम का स्वर है
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भावना सक्सैना
एक समय था जब
भारत पर अंग्रेजों का साम्राज्य स्थापित था। हर जन सिर्फ
स्वाधीनता की कामना करता था, विचारधारा में भिन्नता के बावजूद
सभी का लक्ष्य एक था, फिर चाहे वह उग्रवादी विचाराधारा के
‘बहिष्कार आन्दोलन’ की लड़ाई हो या क्रांतिकारी विचाराधारा के
लोगों द्वारा बमों और बन्दूकों के माध्यम से स्वतंत्रता
प्राप्ति की कामना हो। दोनों का ही एकमात्र उद्देश्य ब्रिटिश
राज्य से मुक्ति एवं पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति था। हर २६
जनवरी और १५ अगस्त को बचपन में लौट जाने का मन होता था, जब
देशभक्ति के मायने आज से बहुत अलग थे। हर ओर ऊँचे स्वर में
देशभक्ति के गीत चल रहे होते थे। हर एक व्यक्ति देशप्रेम की
भावना से सराबोर होता था। ७० के दशक के उत्तरार्द्ध के ये वे
दिन थे, जब लगभग हर घर में एक न एक ऐसा व्यक्ति था, जिसने
गुलामी का दंश सहा था। दादी-बाबा से आज़ादी के किस्से सुनते बड़ा
हुआ मन देशप्रेम में सींझा रहता था। बरामदे की कार्निस पर, पान
के पत्ते में भगत सिंह, और चारों कोनों में सजे चंद्रशेखर,
सुखदेव, राजगुरू और ऊधमसिंह की कहानियाँ कितनी बार सुनीं यह तो
याद नहीं अब, किन्तु यह ज़रूर याद है कि अपनी आजादी को हम हरगिज़
मिटा सकते नहीं सुनकर बरबस आँखों में पानी आ जाता था और सच
कहूँ तो आज भी आता है।
देशप्रेम का यह भाव वर्ष २००८ में और प्रबल हुआ, जब विदेशी
मंत्रालय में प्रतिनियुक्ति के परिणामस्वरूप दक्षिण अमेरिका
स्थित सूरीनाम जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। अपने देश पर
गौरवान्वित देश के सभी सकारात्मक पहलुओं को लिए मैं सूरीनाम
पहुँची थी, वहाँ के हिन्दुस्तानी भाई-बहनों से कुछ बाँटने के
लिए; किन्तु वहाँ जो अनमोल रत्न प्राप्त हुए, वह मेरे जीवन की
संचित निधि बन गए और आज भी हृदय में सहेजे हुए हैं। सूरीनाम और
भारत का सम्बन्ध १४३ वर्ष पुराना है। भारत के लोग पहली बार
१८७३ में वहाँ पहुँचे, जब ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया और
हॉलैंड के सम्राट विलियम तृतीय के बीच १८७० में हुए समझौते के
तहत पराधीन भारत से सूरीनाम के लिए शर्तनामे पर मजदूरों को
भेजा जाना प्रारम्भ हुआ। यह पुरानी दासप्रथा को शर्तबंदी का
नया जामा पहनाकर गुलामी का नवीकरण था, जिसमें पाँच वर्ष के
पश्चात वापस लौटने अथवा मुआवज़ा लेकर वहीं रह जाने का विकल्प
था। तो कुछ इच्छा से, कुछ धोखे से, कुछ अज्ञानवश, कुछ पराधीन
भारत में विद्यमान समस्याओं, देश में उत्तरोत्तर बढ़ती बदहाली,
कुछ १८७३ में बिहार में पड़े अकाल से पीड़ित, भुखमरी गरीबी,
लाचारी से भाग एक बेहतर जीवन की तलाश में, सुख की लालसा में और
सोने की खोज में अपने घर से निकले मृगतृष्णा से बँधे आगे तो बढ़
आए, श्री राम देश के लिए रवाना हुए, पर कुछ ही समय में उनकी
हालत ठीक उस जीव की भाँति हो गयी जो रोटी के टुकड़े के लालच में
पिंजरे के भीतर तो आ जाता है, किन्तु उसकी बस एक ही राह होती
है, भीतर आने की। वापसी के सभी मार्ग बन्द होते हैं।
यह पीढ़ी लालारुख व अन्य जहाजों पर चढ़ी थी। एक बेहतर कल की खोज
में। आम धारणा है कि इन लोगों को अरकाठियों द्वारा धोखे से
सूरीनाम लाया गया, किन्तु यह सर्वथा सत्य नहीं है, और यदि यह
मान भी लिया जाए कि उन्हें धोखे से ले जाया गया था, तो भी उनके
लिए ५ वर्ष बाद वापस आने का विकल्प था, किन्तु सामाजिक-आर्थिक
कारणों से उन्होंने वहीं रहने का निर्णय लिया। एक समर्थ जीवन
जीने की लालसा उन्हें वहाँ रोके रही। और कई तो ऐसे थे जो भारत
जाकर दूसरी बार लौट आए। ऐसा नहीं कि यहाँ सब सुखकर था। फिर भी
अनेक कष्ट सहने के बावजूद, हिन्दुस्तानी वंशजों ने अपना भविष्य
सुधारा। आज उनमें से कई श्रमिकों की पीढ़ियाँ यह भी मानती हैं
कि यदि उनके पूर्वज सूरीनाम आकर न बसे होते तो शायद आज वे एक
बदतर स्थिति में होते।
अपनी परिस्थितियों, भौगोलिक स्थितियों व विभिन्न संस्कृतियों
के आदान-प्रदान से, प्रकट रूप में, पहनावे, रहन-सहन में समय की
आवश्यकतानुसार परिवर्तन अवश्य आए; किन्तु उनके हृदय में आज तक
भारत बसा है। प्रत्येक हिन्दुस्तानी वंशज जीवन में एक बार भारत
जाने की लालसा रखता है और हिन्दी को अपनी अस्मिता का प्रतीक
मानता है। भारत से आने वाले सभी व्यक्तियों को विशेष सम्मान
दिया जाता है, उनका हाथ चूमकर स्वयं को धन्य मान लिया जाता है।
यहाँ के हिन्दुस्तानियों का जीवन भारतीय संस्कृति की प्रतिकृति
है।
अपने सूरीनाम प्रवास में एक बात जो बहुत स्पष्ट और प्रखर रूप
से अनुभव हुई है, वह यह कि भारत से निकलने वाली पहली पीढ़ी और
उसके बाद की कुछ पीढ़ियाँ भीषण भावनात्मक बवंडर से गुज़री हैं,
वे तड़पे हैं अपनी मातृभूमि के लिए, यद्यपि सामाजिक व आर्थिक
कारणों से, भारत वापस न लौटने का निर्णय उनका अपना ही रहा, तो
भी वे भारत को कभी भी अपने से अलग नहीं कर पाए। रामायण, गीता,
सत्यार्थ प्रकाश को जितना सम्मान यहाँ दिया जाता है, कुल
प्रतिशत में आँकें तो संभवतः भारत से अधिक होगा। भारत में आज
जब महानगरीय बनने की होड़ है, यहाँ संस्कृति सँजोए रखने का
ध्येय है, उसे लुप्त न होने देने का बेजोड़ प्रयास है।
अताशे हिन्दी एवं संस्कृति के रूप में वहाँ मेरा कार्य हिन्दी
शिक्षकों और शिक्षार्थियों को सहयोग करना, उन्हें प्रोत्साहित
करना व निरंतर संपर्क बनाए रखना था। अपने दायित्वों का वहन
करने में सूरीनाम के हिन्दुस्तानी समाज को निकट से जानने व
समझने का सौभाग्य मिला और जो सुखद अनुभूतियाँ हुई, उनसे
देशप्रेम के मायने ही बदल गए। यह समझ आया कि देश में तो
व्यक्ति होता है, किन्तु व्यक्ति में भी देश होता है। सूरीनाम
के हर हिन्दुस्तानी के भीतर आज भी उनके पुरखों का देश भारत बसा
है। भारत के नाम से जो चमक उनकी आँखों में आती है, वहीं सच्चा
देशप्रेम है। हिन्दीभाषा सीखना, पढ़ना-लिखना उनके लिए सम्मान की
बात है। बहुत से लोग ऐसे हैं जो हिन्दी या उसका स्थानीय सरनामी
रूप बोलते तो बहुत सहजता से हैं; किन्तु देवनागरी लिख व पढ़
नहीं पाते। अपनी भावी पीढ़ी को हिन्दी स्कूल भेजकर हिन्दी
लिखने-पढ़ने में सक्षम बनाकर वे गौरवान्वित होते हैं।
वार्षिक परीक्षा के परिणाम और प्रमाण-पत्रों के वितरण के लिए
गाँव-गाँव में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनमें
प्रमाण-पत्रों के वितरण के साथ-साथ अपनी हिन्दुस्तानी संस्कृति
के विभिन्न घटक जैसे नाटक, कविता, गीत, रामायण की चौपाइयों का
वाचन, चौपाल आदि की प्रस्तुतियाँ दी जाती हैं। सुन्दर भारतीय
परिधानों में सजे छात्रों और उनके अभिभावकों के लिए यह
कार्यक्रम किसी उत्सव से कम नहीं होता। ऐसे ही एक कार्यक्रम
में जाने पर स्वागत के लिए बाहर खड़े व्यक्तियों में एक बुजुर्ग
महिला भी थी; जिन्होंने पास आकर पूछा, ‘क्या आप भारत से आए
हैं?’ मेरे ‘हाँ’ कहने पर उन्होंने पूछा- ‘क्या मैं आपको छू
सकती हूँ?’ मेरे ‘हाँ’ में सिर हिलाते ही उन्होंने मेरे हाथ को
अपने दोनों हाथों से पकड़कर माथे से लगा लिया और नम आँखों से
बोलीं कि हम तो कभी भारत जा नहीं पाएँगे, आप वहाँ की मिट्टी से
आई हैं, जहाँ से हमारे पुरखे आए थे, वहाँ से जुड़ी हैं; इसलिए
आपको छूकर धन्य हो गए। अपने पुरखों के देश के प्रति इस जज्बे
ने मेरी भी आँखें नम कर दीं। सरमक्का में आयोजित ऐसे ही एक
कार्यक्रम में जब एक छात्र प्रमाणपत्र लेकर मंच से उतरा तो
उसके आजा (दादाजी) ने आगे बढ़कर गद्गद् होते हुए उसे गले लगाया
और आशीर्वाद दिया, वह उनके लिए एक बड़ी उपलब्धि थी। वह बुजुर्ग
अपने पौत्र के हाथ चूम रहे थे, असीस रहे थे, आँखों में आँसू
थे। उन्हें असीम गर्व था कि उनका पोता हिन्दी पढ़ सकता है!
आँखें भीग उठती थीं ऐसे दृश्यों से। वह निःस्वार्थ प्रेम है
पूर्वजों की मातृभूमि के लिए, जिससे आज भी हर बालक जुड़ा है।
कुछ और भी प्रसंग हैं, जो प्रवास में मेरी खोज में व अन्य
अनौपचारिक चर्चाओं में सामने आए, जिनसे यह महसूस किया कि
सूरीनाम के हिन्दुस्तानी वंशजों ने अनेक कष्ट सहकर भी अपनी
संस्कृति की ज्योति को जलाए रखा। ९१ वर्ष से अधिक वय के बिहारी
नंदलाल जी अपने समय में अहिरवा नाच दिखाते थे। उनके पिता २०
वर्ष के थे, जब भारत से सूरीनाम पहुँचे। उन्होंने बताया कि वह
अपने माता-पिता की एक ही संतान रहे और पिता ने उन्हें बताया था
कि जब वह भारत से आए थे, तब वहाँ बहुत दुःख थे, पेट भर भोजन
नहीं मिलता था, सूरीनाम जाकर उन्होंने धान के खेतों में कड़ी
मेहनत की। अपने बचपन के बारे में बात करते वे रो उठे थे, उनका
कहना था-‘‘ना पूछ बेटी उस जमाने की, बड़े कष्ट के दिन थे, यहाँ
से मरियमबर्घ पैदल जाते थे (यह दूरी लगभग १० किलोमीटर है) नंगे
पाँव, शुरू के दिन हमने भी ऐसे ही काटे। देखो हमारे पाँव (उनके
पाँव की लगभग हर उंगली का नाखून उखड़ा था या टेढ़ा था) ठोकर
खा-खाकर कैसे हो गए हैं! इस सबके बावजूद नंदलाल जी अहिरवा के
नाच के द्वारा अपनी संस्कृति को पोषित करते रहे।
भारत से दूर भारत माता के दिल के टुकड़े किस भावनात्मक उद्वेलन
से गुज़रे, यह स्पष्ट हुआ पूर्व राष्ट्रपति स्व. श्री रामदत्त
मिसिर की पत्नी श्रीमती हिलडा दुर्गा देई रामदत्त मिसिर की
बातें सुनकर। वह अपने पिता का चित्र दिखाते हुए बोली थीं-‘‘यह
मेरे पिता हैं, मेरे पिता श्री दीवानचंद भारत से; गुजरानवाला
से आए थे, वर्ष तो मुझे नहीं याद किन्तु शायद आखिरी या उससे
पहले बोट से यहाँ आए थे...मैंने अपनी पिता की आँखों में भारत
से बिछोह का दर्द देखा है, वह रात-रात भर एक रेडियो से कान
लगाकर बैठे रहते थे, उससे बहुत कम कई बार टूटी आवाजे़ं आती
थीं, और जब हम बच्चे उनसे पूछते, वह उसे क्यों सुनते हैं। वह
कहते बेटा आप नहीं समझोगे, किन्तु आज मैं उनका दर्द समझती
हूँ।’’ वह वापस जाना चाहते थे; किन्तु सब जहाज़ी लोगों ने मिलकर
उनका विवाह कर दिया और फिर वह नहीं जा पाए, क्योंकि हमारी माँ
ने उन्हें नहीं जाने दिया, वह डरती थी कि पिता एक बार भारत गए
तो वापस नहीं आएँगे। लेकिन पिताजी सदा भारत के लिए तड़पते रहे।
उनके आदर्श व मूल्य सभी भारतीय संस्कृति के अनुरूप थे।’’
सूरीनाम में युवा आज भी अपने जीवन में हिन्दुस्तानी भाषा
(सरनामी हिन्दी), संस्कृति व बालीवुड को बसाए हुए हैं। सूरीनाम
में रहते हुए वे हिन्दुस्तानी अस्मिता पर गर्व करते है,
हिन्दुस्तानी रीति-रिवाज, पोशाक, खानपान अपनाते हैं। आज भारत
से जिस तरह का भावनात्मक सम्बन्ध सूरीनाम के हिन्दुस्तानियों
का है, उसे शब्दों में दर्ज़ कर पाना कठिन है, प्रवास का
भावनात्मक द्वंद्व प्रवास में रहकर बेहतर अनुभव किया जा सकता
है।
भारतीयों में विदेश जाकर धनोपार्जन की अवधारणा व लालसा आज भी
यथावत बनी हुई है किन्तु वह इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि
प्रवास में कई पल ऐसे आते हैं, जब व्यक्ति अपनी माटी अपने देश
के लिए तड़प उठता है। इस तड़प को देखकर बरबस ही राष्ट्रकवि
रामधारीसिंह दिनकर जी की कविता-किसको नमन करूँ मैं भारत!
स्मृति में उभर आती है, जिसमें उन्होंने कहा है-
भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है।
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है।
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं?...
यहाँ इन कुछ घटनाओं व अनुभवों को साझा करने का उद्देश्य यही
कहना है कि आज जो देश में रहकर उसके महत्त्व को भूले हुए हैं,
देश में अलग-अलग हिस्सों की माँग कर रहे हैं, क्या उन्होंने उस
देश से अलग करके स्वयं को देखा है, तो क्यों न भारत को वहीं
रहने दें, जिसके लिए वह विश्व भर में जाना जाता है, जहाँ प्रेम
का स्वर है! |