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संस्मरण

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कालापानी की सेल्युलर जेल
डॉ. चंद्रिका प्रसाद शर्मा


अटल जी की एक कविता है- उनको याद करें। यह कविता मुझे बहुत पसंद है। प्रायः मैं इसे गुनगुनाता रहता हूँ। इस कविता की ये पंक्तियाँ मेरे अंतर्मन में बस गई हैं-
जो वर्षों तक लड़े जेल में, उनकी याद करें।
जो फाँसी पर चढे़ खेल में, उनकी याद करें।
याद करें काला पानी को,
अंग्रेज़ों की मनमानी को,
कोल्हू में जुट तेल पेरते,
सावरकर की बलिदानी को।

काला पानी का नाम सुनकर आज भी लोग घबरा जाते हैं। यह वही कालापानी है, वही अंडमान निकोबार है जहाँ स्वातंत्र्य वीरों को काल कोठरी की सज़ा दी जाती थी। दिन भर कोल्हू में नारियल पेरना पड़ता था और वह तेल लंदन जाता था जिसे मेमें सर में लगाती थीं, मालिश के काम में लाती थीं। क्रांतिवीरों की खून पसीने का यह तेल आख़िर उनके पराभव का कारण बना और भारत स्वतंत्र हुआ।

पावन तीर्थस्थली

कालापानी की सेल्यूलर जेल, जो प्रत्येक भारतीय के लिए एक अत्यंत पावन स्थली है, उसे देखने की अभिलाषा वर्षों से मन में संजोये था। आज मैं काला पानी की उस जेल के द्वार पर खड़ा हूँ। चारों ओर से समुद्र से घिरा पोर्टब्लेयर आज विश्व के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। मैं जेल के मुख्य द्वार पर स्तब्ध खड़ा हूँ। सहसा झुक कर धरती से एक चुटकी धूल उठाकर माथे पर लगा लेता हूँ। अरे, इन रज कणों में तो बड़ी गरमी है, आग- जैसी गरमी। ओ...यहाँ सैंकड़ों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को तनहाई की सज़ा काटनी पड़ी थी। फिरंगियों के कोड़ों से उनके शरीर से लहू की बूँदें टपका करती थीं। अनेक वीरों को फाँसी के तख़्ते पर लटकाया गया था। यहाँ की धूल में भारत माता के स्वतंत्रता प्रेमी शूर पुत्रों के रक्त की उष्मा भरी है। यह सेल्यूलर जेल भारतीयों की वीरता और अंग्रेज़ों की क्रूरता की निशानी है।

मैं जेल के अंदर प्रवेश करता हूँ। यहाँ का रखरखाव उत्तम है, किंतु लोगों ने परोक्ष रूप से कमाई का ज़रिया निकाल लिया है। बोर्ड पर लिखा है – गाइड फीस दस रुपये। मैं टिकट लेने के बाद गाइड माँगता हूँ। टिकट बाबू का रुखा उत्तर – साहब, सरकारी गाइड तो आज कोई है नहीं। आप प्राइवेट गाइड ले लें। प्राइवेट गाइड से जब बात करता हूँ तो वह अपनी फीस सौ रुपए बताता है। मैं उसकी बात को अनसुना करके आगे बढ़ता हूँ, वह फिर मेरे पास आता है और कहता है - अच्छा पचास रुपया दे दीजिएगा। मैं इनकार कर देता हूँ और आगे बढ़ जाता हूँ।

कुछ कदम आगे बढ़ते ही एक आवाज़ आती है- शर्मा जी, मैं आ गया। मुड़कर देखता हूँ तो डॉ. गोविंद सिंह पंवार जी खड़े हैं। उन्होंने कल मुझे यहीं मिलने को कहा था। मैंने कहा कि अब तो आप ही मेरे गाइड हो गए। वे हँसे और साथ हो लिए। डॉ. पंवार बीस वर्षों से अधिक समय से यहाँ के कॉलेज में प्राध्यापक हैं। उन्हें यहाँ का पूरा इतिहास मालूम है। हम इस पवित्र राष्ट्रीय स्मारक को देख रहे हैं। जिन दिनों देश में स्वतंत्रता संघर्ष छिड़ा था, अंग्रेज़ों ने स्वतंत्रता सेनानियों के लिए पोर्टब्लेयर में सन 1896 में सात विंग वाली इस तीन मंज़िली जेल का निर्माण शुरू कराया था। सन 1906 में 698 एकाकी कोठरियों वाली यह जेल तैयार हुई। जेल में कोई भी कैदी एक-दुसरे से न बात कर सकता था और न ही देख सकता था। सबसे ऊपर एक 'वाच टॉवर' बना है जहाँ से सुरक्षाकर्मी पूरी जेल की निगरानी करता था। लोहे के शिकंजों में ऐसे ढंग से ताले लगे हैं जिन्हें कैदी देख तक नहीं सकता था।

वीर सावरकर की कोठरी

मैं डॉ. पंवार के साथ जेल की तीसरी मंज़िल की अंतिम कोठरी के सामने खड़ा हूँ। इस कोठरी में दोहरा गेट लगा है। इसी कोठरी में क्रांतिवीर विनायक दामोदर सावरकर को कैद किया गया था। वे दस वर्षों तक इस काल कोठरी में एकाकी कैद की सज़ा भोगते रहे। उन्हें कोल्हू में बैल की तरह जुटकर नारियल पेरकर तेल निकालना पड़ता था। अंग्रेज़ों के इस पाशविक अत्याचार से अनेक कैदी मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाते थे और अकाल काल-कवलित हो जाते थे।

हाय! इस छोटी-सी कोठरी में वीर सावरकर कैसे रहते थे? उसी के अंदर सभी नित्य क्रियाएँ- बिलकुल नरक। मैं उस कोठरी के अंदर जाता हूँ। यह दमघोटू कोठरी अपने गंदे आँचल में अनेक संस्मरण संजोए हैं। कोठरी में इस समय वीर सावरकर का एक बड़ा-सा चित्र रखा है। मैं चित्र को प्रणाम करता हूँ। मेरे नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही है। यह सोच-सोचकर मन घोर संताप में डूब रहा है कि इस काल कोठरी में दस वर्षों तक वीर सावरकर कैसे रहे थे?

सावरकर के चित्र पर एक कार्ड जैसा लटका है, जिस पर लिखा है- नंबर ३२२७७८ सी। कोठरी के कोने में पानीवाला घड़ा और लोहे का गिलास। कैद में सावरकर के हाथों में हथकड़ियाँ और पैरों में बेड़ियाँ जकड़ी रहती थीं। इसी कालकोठरी से सावरकर सिंह-गर्जना करते रहते थे।

दो भाई एक ही जेल में

वीर सावरकर जब कैद में थे तो उनके बड़े भाई गणेश सावरकर को भी वहीं कैद में डाला गया था। वीर सावरकर को यह पता ही नहीं था कि इसी जेल में उनके भाई साहब भी हैं। एक दिन गणेश सावरकर अपनी रोटियाँ बनाकर अपनी कोठरी में ले जा रहे थे तो अचानक छोटे भाई को सामने से आता देखकर वे ठिठक गए। दोनों भाइयों के नेत्र अश्रुपूरित हो गए। सावरकर समझते थे कि उनके बड़े भाई घर में हैं। उन्हें इसका पता नहीं था कि बड़े भाई को भी इसी जेल में डाला गया है।

यही वह सेल्यूलर जेल है जहाँ वारींद्र कुमार घोष, उल्लास दत्त, इंदुभूषण राय, भाई परमानंद, सरदार अमर सिंह, भान सिंह, भाई हुड्डा सिंह आदि को नाना प्रकार की यातनाएँ दी गई थीं। वीर रामरखा का बलिदान इसी सेल्यूलर जेल में हुआ था। इस जेल में ननिगोपाल(नंदगोपाल) नामक एक क्रांतिकारी को लाया गया था। जब उन्हें टाट पहनने को दिया तो उन्होंने फेंक दिया और नग्न रहने लगे। उन्होंने कहा- जब प्रभु के यहाँ से दिगंबर आया तो अब भी दिगंबर ही रहेंगे।

क्रूरता का पर्याय

सेल्यूलर जेल का जेलर डेविड बैरी क्रूरता का पर्याय था। वह कैदियों के साथ बहुत ख़राब व्यवहार करता था। झाँसी (राठ) के क्रांतिकारी भाई परमानंद ने एक दिन उसकी जमकर मरम्मत कर दी, क्यों कि उसने परमानंद को गालियाँ दी थीं। इस पर सभी कैदी बहुत प्रसन्न हुए थे। जेल कर्मचारियों ने उन पर लाठियाँ बरसानी शुरू कर दीं। वे तब तक उन्हें पीटते रहे जब तक कि वे बेहोश नहीं हो गए। बाद में उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहाँ कई घंटे बाद होश आया। होश आने के बाद उन्हें जेल के अधीक्षक ने तीस कोड़ों की सज़ा दी।

मैं जेल की तीसरी मंज़िल से नीचे उतरकर आता हूँ। वहीं पर क्रांतिवीरों को नारियल पेरने में जुटाया जाता था और वह तेल अंग्रेज़ मेमें अपने प्रयोग में लाती थीं। बगल में वह स्थान भी बना है जहाँ लोगों को कोड़ों की सज़ा दी जाती थी।

जेल का फाँसीघर

यहीं पर फाँसीघर है। इस फाँसीघर में एक साथ तीन लोगों को लटकाया जाता था। मैं फाँसीघर के उस अंधकारपूर्ण कुएँ को देखकर फफककर रोने लगता हूँ। मन में विचार कौंध उठता है कि उन्हीं बलिदानियों के बलिदान ने देश को आज़ादी दिलाई। आज़ादी तो देश को मिली, नेताओं को मिली, चोरों, उठाईगीरों, लफंगों और डाकुओं को मिली। सामान्य नागरिक आज भी अभावों में जी रहा है। डाके डालो, कत्ल करो- नेता बन जाओ, सब कुछ माफ़। जिन आदर्शों के लिए हमारे पूर्वजों ने इतनी यातनाएँ सहीं वो आज कहाँ हैं?

१५ अगस्त २००७

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