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					 घर 
					के चारों ओर पुलिस ने पीले रंग की टेप का घेरा डाल दिया। सामने से निकलने वाला प्रत्येक राहगीर कुछ पल के लिए खड़ा होकर 
					सोचने लगता कि इस घर मे क्या हुआ है?
 
 इस घर में किसी की मृत्यु हुई है जिसकी सूचना डाकिये से मिली 
					है। जब डाकिया लैटर बॉक्स में चिट्ठी डाल रहा था तो उसे अंदर 
					से एक अजीब प्रकार की महक आई। उसने दरवाजे पर दस्तक दी तो अंदर 
					कोई हलचल न हुई। डाकिये को किसी अनहोनी की शंका होने लगी। उसने 
					जेब से मोबाइल निकाल कर ९९९ पुलिस का नम्बर घुमा दिया। पुलिस 
					का नम्बर क्या घुमाया कि शोर मचाती हुई दो पुलिस गाड़ियाँ व एक 
					एंबुलेंस कुछ ही पलों में वहाँ पहुँच गईं। अपने चेहरे पर मास्क 
					पहन कर पुलिस ऑफ़िसर ने दरवाजे को ज़ोर से धकेला परंतु वह अंदर 
					से बंद था। पहले पुलिस ने मास्टर की सहायता से ताला खोलना 
					चाहा। कई डबल गलेज ताले मास्टर की से भी नहीं खुलते। अंत में 
					हार कर वे दरवाजे का ताला तोड़कर अंदर घुसे।
 
 अंदर घुसते ही उन्हें बहुत ज़ोर की महक आई। लिविंग रूम में बहुत 
					गर्मी थी। गैस फायर पूरे जोश से जल रही थी। गैस फायर के सामने 
					ही रॉकिंग चेयर पर एक पुरुष बैठा था। यह महक उसी से आ रही थी। 
					इतनी गर्मी के कारण उस के शरीर की त्वचा भी पिघल कर ढुलकने लगी 
					थी। यहीं से सड़े माँस की गंध आ रही थी। कुर्सी से नीचे लटकते 
					उसके हाथ की उँगलियों में एक सिगरेट दबी हुई थी। जो न जाने कब 
					की एक लम्बी राख की लकीर छोड़कर बुझ चुकी थी। उस मृत पुरुष की 
					टाँगों पर एक लिफाफा पड़ा मिला। यह सोचकर कि शायद कोई सुराग मिल 
					जाये पुलिस ऑफिसर ने वह लिफाफा खोला जिसमें लिखा था...
 "हम सबकी ओर से आपको अपनी ६५ वीं वर्ष गाँठ की बहुत बधाई। 
					पुनीत।"
 लिफ़ाफे को पलट कर देखा तो ३० दिसंबर की लॉफ्बरो की मोहर लगी 
					हुई थी। ऑफ़िसर ने वो कार्ड फिर से लिफ़ाफे में डाल दिया। हो 
					सकता है यह कार्ड छुट्टियों के कारण २ जनवरी को मिला हो। उन 
					दिनों ठंड भी तो गजब की थी। पुलिस ने पूरे घर का निरीक्षण 
					किया। उनके साथ आये हुए फोटोग्राफर ने हर कोने से कमरे के 
					चित्र उतारे। कुर्सी पर बैठे उस पुरुष की प्रत्येक एंगल से कई 
					फोटो ली गईं। कुर्सी के चारों ओर चॉक से एक लकीर खींचकर पुलिस 
					का काम यहाँ पर समाप्त हुआ।
 
 उनका काम समाप्त होते ही एंबुलेंस से पेरामेडिक्स को बुलाया 
					गया। पेरामेडिक्स ने मास्क ही नहीं हाथों में सफे़द रंग के 
					लम्बे दस्ताने भी पहने हुए थे। पहले लाश की जाँच की गई। 
					पेरामेडिक्स द्वारा पुलिस की आज्ञा से गैस फ़ायर बंद किया गया। 
					बिना पोस्टमार्टम के यह बताना कठिन था कि मौत कितने दिन पहले 
					हुई थी। लाश की जाँच हो जाने के पश्चात उस लाश को एक कम्बल में 
					लपेट दिया गया। एंबुलेंस से स्ट्रेचर लाकर लाश को आराम से उस 
					पर लिटा दिया गया। फिर वह पूरा स्ट्रेचर एंबुलेंस के अंदर ले 
					जाया गया। एंबुलेंस जिस तेज़ी से शोर मचाती हुई आई थी अब उतनी 
					ही उदासी से धीरे से सरकती हुई वहाँ से रवाना हो गई।
 दरवाजे़ पर नया ताला लगवा कर पुलिस ने उस पर भी पीले रंग का 
					टेप लगा दिया।
 
 जिस घर से लाश मिली है यह सारा काउंसिल का एरिया है। यहाँ 
					अधिकतर बुजुर्ग या ६० वर्ष से ऊपर सिंगल लोग ही रहते हैं। 
					जिलियन जो इस घर से तीन-चार घरों की दूरी पर ही रहती है, पुलिस 
					और एंबुलेंस की आवाज़ें सुनकर उत्सुकता वश देखने चली आई।
 "रोज़ी...यह तुम्हारे पड़ोसी घर में क्या हुआ है?"
 "यहाँ मेरे पड़ोस में जो व्यक्ति रहता था उसकी मृत्यु हो गई है। 
					अभी पुलिस पूछ-ताछ करने आई थी उन्हीं से पता चला है।"
 "जीसस क्राइस्ट..." जिलियन अपने सीने पर क्रास बनाते हुए बोली- 
					"कुछ पता चला उसकी मृत्यु कब हुई, और कैसे हुई?"
 "नहीं जिलियन, पुलिस घर-घर जाकर यही पता लगाने का प्रयत्न कर 
					रही है कि वह कौन था। पड़ोसी होने के नाते मैं तो बस इतना ही 
					जानती हूँ कि उसका नाम घनश्याम गुप्ता था। वह बहुत ही भला 
					इंसान था। जो न किसी के लेने में न देने में था। एक बहुत ही 
					अकेला इंसान जिसे कभी उसके कोई बच्चे या रिश्तेदार मिलने नहीं 
					आये।"
 "अकेले तो हम सब हैं रोज़ी। न जाने हमारा अंत कैसा होगा" जिलियन 
					उदास होते हुए बोली
 "ऐसा मत सोचो जिलियन। हम सब हैं न यहाँ एक दूसरे के लिये।"
 "कब तक...जब समय आयेगा तो क्या मालूम कौन कहाँ होगा" उसने चलते 
					हुए कहा।
 पुलिस भी बस इतना ही पता कर पाई कि इस मृतक का नाम घनश्याम 
					गुप्ता था। पोस्टमार्टम के अनुसार इसकी मृत्यु ३१ दिसंबर और २ 
					जनवरी के बीच में हुई है। आज २७ जनवरी है। इसका मतलब २५ दिन से 
					ऊपर हो गये इसकी मृत्यु को। हमें शीघ्र ही पता लगाना चाहिये कि 
					यह कार्ड भेजने वाला कौन है। पुलिस उसके परिवार के विषय में 
					जानने के लिये अपने
 काम में जुट गई।
 
 काम तो किसी का नहीं रुकता चाहे कैसा भी मौसम क्यों न हो। 
					गर्मी हो या सर्दी। लगता है इस वर्ष कुछ ज़्यादा ही ठंड पड़ रही 
					है। दस्तानों के अंदर भी उँगलियाँ सर्दी के मारे जैसे सिकुड़ 
					रही हों। उस दिन भी ऐसे ही कड़ाकेदार ठंड थी। ब्रिटेन के लोग 
					व्हाइट क्रिसमस माँगते हैं परंतु मौसम को देखकर तो यों लगता है 
					कि क्रिसमस के स्थान पर इस वर्ष व्हाइट नव-वर्ष ज़रूर होगा। कल 
					रात से ही बर्फबारी हो रही है।
 
 नव वर्ष का आगमन कितनी गर्मजोशी से ठंडे बर्फ के फोहे उड़ाते 
					हुए हुआ। पतझड़ के पश्चात नग्न पेड़ों की डालियाँ शर्म से झुकी 
					हुईं... आज श्वेत वर्ण के वस्त्रों से ढँकी कैसे गर्व से सिर 
					उठाये झूम-झूम कर धरती पर सफेद मोतियों की चादर बिछा रही हैं। 
					प्रकृति का एक इतना सुंदर दृश्य जिसने रातों रात श्वेत रंग 
					बिखरा कर पूरे वातावरण को पवित्र कर दिया, जिसे देखकर कर 
					मनुष्य तो क्या पशु पक्षी भी अपनी सुध-बुध खो दें।
 
 सुध-बुध तो घनश्याम की खो चुकी है। उँगलियों में सिगरेट दबाये 
					रॉकिंग चेयर को खींच कर वह लम्बे शीशे के दरवाजे के सामने आकर 
					बैठ गया। इस दरवाजे़ के बाहर एक छोटा सा बरामदा और उसके आगे 
					गार्डन है। घर को दूसरे घरों से अलग करने के लिये गार्डन के 
					चारों ओर लकड़ी की फैंस लगी हुई है जो भूरे रंग की है। सर्द ऋतु 
					होने के कारण बगीचे में कोई फूल पत्ती दिखाई नहीं दे रही। धीरे 
					धीरे सब कुछ बर्फ से ढँकता जा रहा है। बर्फ को देखकर घनश्याम 
					को अपनी छोटी बेटी रिचा की याद आ गई...
 "पापा देखिये ना कितनी ज़ोरों से बर्फ गिर रही है चलिये स्नोमैन 
					बनायें।"
 "बेटा इतनी ठंड में बीमार हो गई तो मम्मी हम दोनों को डाँटेगी" 
					घनश्याम रिचा को कोट पहनाते हुए बोले।
 "पापा चलिये न बस छोटा सा बनायेंगे" उसने दोनों हाथ आगे करते 
					हुए कहा जिनमें गाजर, टमाटर और खीरा थे।
 घनश्याम बेटी की बात न टाल सके और चल पड़े दोनों बाप बेटी गिरती 
					बर्फ में स्नोमैन बनाने। एक बड़ा सा बर्फ का पुतला बनाया गया। 
					गाजर से उसकी नाक, टमाटर की फाँक से होंठ व खीरे के दो गोल 
					टुकड़े काट कर उस स्नोमैन की आँखें बनाई गईं। बर्फ से काम करते 
					हुए दोनों बाप बेटी के हाथ ठंडे पड़ गये थे। पुरानी यादों में 
					खोए घनश्याम अन्जाने ही अपने हाथों को मल कर गर्म करने लगा।
 
 बाहर की ठंडी बर्फ भी उसके भीतर उठते सोचों के उबाल को न रोक 
					सकी। कहाँ गया वह सब कुछ। एक छोटी सी भूल से जैसे जिंदगी ही 
					रुक गई हो। आखि़र कब तक वह अपनी गल्तियों की सलीब को ढोता 
					रहेगा। कहने को वह चार बच्चों का बाप है। एक भरा पूरा परिवार 
					है उसका। कहाँ है वो परिवार जिसको उसके बेबुनियाद शक और झूठे 
					घमंड ने ठोकर मार दी। बच्चे उसके होकर भी उसके नहीं। नहीं...यह 
					झूठ है...वो सब तो आज भी उसी के हैं किंतु वह ही उनका न हो 
					सका। दरवाज़े पर एक आवाज़ सुनकर उसकी सोच को झटका लगा। अनमने मन 
					से बड़बड़ाते हुए वह उठा। लोगों के पास पता नहीं कितना व्यर्थ का 
					समय और पैसा है जो यों ही कागज़ों के पुलिंदे दूसरों के घरों 
					में फेंकते रहते हैं।
 
 अरे...यह तो कोई चिट्ठी लगती है...उस पर लॉफ़्बरो की मोहर देखकर 
					चिट्ठी उसके हाथ से गिर गई। वर्षों पहले ऐसे ही एक चिट्ठी आई 
					थी। कितना गर्व महसूस किया था उसने उसे अपनी जीत समझ कर कि 
					चलो... सीमा ने अपनी गल्ती मान ही ली। अवश्य ही माफ़ी माँग कर 
					मुझे वापिस बुलाया होगा। आखिर पति हूँ उसका...मगर...लिफ़ाफा 
					खोलते ही उसका सिर घूम गया कि यह अनहोनी कैसे हो गई। एक भारतीय 
					पत्नी ऐसा कभी सोच भी नहीं सकती। मारवाड़ी परिवार में यह पहली 
					ऐसी स्त्री होगी जिसने इतना बड़ा कदम उठाया हो। ज़रुर किसी ने 
					इसे सिखाया होगा।
 
 हाँ...हैं न इसे सिखाने वाले एक अतुल और दूसरी अलका। वो सीमा 
					जिसको वह कितना कुछ कह देता था। जवाब देने के स्थान पर वह 
					ख़ामोशी से आँसू बहाती हुई कमरे से बाहर चली जाती थी। आज उसमें 
					इतनी हिम्मत कहाँ से आ गई? वह नारी की हिम्मत और ताकत को शायद 
					भूल गया था। आज सीमा ने वो कर दिखा दिया जिसकी वह उसे सदैव 
					धमकी देता आया है। पत्नी की ओर से आया तलाकनामा उसके हाथ में 
					काँप रहा था। उसे इस तलाकनामे पर हस्ताक्षर करके वापिस भेजना 
					है।
 सुनार आभूषण तराशने के लिये छोटी सी हथौड़ी बड़े प्यार से आभूषण 
					पर चलाता है वहीं लोहार को लोहे का सामान बनाने के लिये हथौड़ा 
					ज़ोर से मारना पड़ता है। आज सीमा ने भी एक ही वार में बरसों के 
					दबे हुए अपमान के गुबार को निकाल दिया। यह सब करना उसके लिये 
					भी आसान नहीं था। शादी के सोलह वर्षों में उसने सैकड़ों बार 
					सुना होगा "मैं तुम्हें छोड़ दूँगा।"
 
 सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है। अभी तक वह चार बच्चों के कारण 
					खामोश थी। खामोशी भी कभी ज्वार भाटे के समान फूट कर सारा लावा 
					उगलकर शांत हो जाती है। शांति तो अब घनश्याम की भंग हो चुकी 
					थी। उसे अभी तक महिला शक्ति का आभास नहीं था। आभास होता भी तो 
					कैसे। भारत से कैमिस्ट्री में पी॰एच॰डी करने के पश्चात भी 
					ब्रिटेन में उसकी अंग्रेजी जु़बान कोई समझ नहीं पाता था। जब 
					उसका कानपुरिया एक्सटेंट कभी बच्चे भी न समझ पाते तो वह उन पर 
					झल्ला उठता।
 
 उधर सीमा भी भारत से ही पढ़ कर आई है। उसकी पढ़ाई मिशनरी स्कूल 
					में होने के कारण उसे ब्रिटेन में आकर अंग्रेज़ी बोलने या समझने 
					में कोई कठिनाई नहीं हुई। एक पुरुष और भारतीय पति होने के नाते 
					घनश्याम कैसे सहन कर सकता था कि उसकी पत्नी उससे आगे निकल जाए।
 
 सहन तो सीमा करती आ रही थी जिसे घनश्याम उसकी दुर्बलता समझ कर 
					उसे मानसिक ताड़ना देने से न चूकता। एक पतिव्रता महिला सब कुछ 
					सहन कर सकती है किंतु अपने चरित्र पर लांछन कभी बरदाश्त नहीं 
					कर सकती। एक तो वह काम से थकी हारी आती और आते ही पति की 
					जु़बान से फूल बरसने लगते। अंत में बात सदैव सीमा को छोड़ देने 
					पर ही समाप्त होती। घनश्याम ने तो सोचा भी नहीं था कि उसकी 
					बंदर भभकियों का जवाब कभी ऐसा भी मिल सकता है। सिगरेट के कश 
					खींचते हुए हाथ में चिट्ठी लेकर घनश्याम रॉकिंग चैयर पर बैठ 
					गया। अब यह कुर्सी ही तो उसकी एक मात्र साथी है जो उसे आराम के 
					साथ पुरानी यादों में ले जाकर उसकी गलतियों का एहसास भी दिलाती 
					रहती है। उन गलतियों का एहसास जिन्हें सीमा हमेशा नज़रअंदाज 
					करती रही। घनश्याम यह स्त्री की दुर्बलता समझता रहा। किसी पर 
					हाथ उठाने से केवल शरीर पर चोट लगती है किंतु यह रोज़-रोज़ के 
					ताने दिल पर गहरा घाव छोड़ छेद कर निकल जाते हैं।
 
 छेद कर तो आज ये ठंड जा रही है सारे शरीर को। बर्फ की गति और 
					बढ़ गई थी। अब तो साथ में तेज़ हवा भी चलने लगी थी जिसे देख कर 
					यों प्रतीत होता था मानो बर्फ में एक तूफान उठा हो। बाहर का 
					ऐसा माहौल देखकर घनश्याम को और ठंड लगने लगी। उसने कंधे पे पड़ी 
					शॉल को अपने चारों ओर लपेट लिया और उठ कर जलती हुई गैस फ़ायर को 
					थोड़ा और ऊँचा कर दिया। घनश्याम ने उस बड़े दरवाजे के पास से 
					कुर्सी को खींच कर गैसफ़ायर के सामने रख दिया।
 यह गिरती बर्फ सदा उसके मन में गर्मागर्म चाय पीने की इच्छा 
					जगा देती है। किचन में जाकर उसने एक पतीले में पानी डाला और 
					चाय के लिये गैस पर चढ़ाते हुए फिर खयालों में खो गया।
 
 "सीमा...ज़रा अच्छी सी कड़क चाय तो पिलाओ। और हाँ देखो आज दो 
					चम्मच चीनी भी डाल देना। फीकी चाय पी-पी कर मुँह का स्वाद भी 
					खराब हो गया है।"
 "आप जानते हैं कि आप के लिये चीनी ठीक नहीं है। मुश्किल से 
					आपकी इन्सुलिन कम हुई है।" सीमा चाय बनाते हुए बोली
 "चाहे तुम कुछ भी कर लो ये मुई शुगर की बीमारी तो पीछा छोड़ने 
					वाली है नहीं। कम से कम चाय तो मतलब की पी लेने दिया करो।"
 
 हाथ में जलती सिगरेट से जब उँगलियाँ जलीं तो उसकी सोच का ताँता 
					टूटा। गैस पे रखा चाय का पानी उबल कर आधा रह चुका था। घनश्याम 
					ने उसमें भर के दो चम्मच चाय की पत्ती के डाले। आधा प्याला दूध 
					का। तीन चम्मच चीनी के डाल कर उसे यों महसूस हो रहा था जैसे कि 
					वह सीमा को चिढ़ा रहा हो। उसने चाय को खूब उबाला। आज वह ऐसी चाय 
					पीना चाहता था जो उसके कलेजे के साथ उसकी सारी पुरानी यादों को 
					भी जला कर राख कर दे बिलकुल इस जलती हुई सिगरेट के समान।
 
 ऐसा ही एक उबाल उस दिन सीमा के सीने में भी उठा था। उसके सामने 
					कुछ कागज़ बिखरे पड़े थे वह जिन्हें पढ़ने का प्रयत्न कर रही थी। 
					आज की शाम ने मर्यादा की हर सीमा को तोड़ दिया था। तलाकनामे पर 
					तो हस्ताक्षर किये ही साथ में एक पर्चा भी था... लो...आज मैं 
					तुम्हें ही नहीं तुम्हारे बच्चों को भी तलाक देता हूँ। सीमा 
					कभी एक कागज़ उठाती और कभी दूसरा। पूरा चेहरा आँसुओं से भीगा 
					हुआ है। घबराहट के कारण साड़ी का पल्ला दाँतों में दबा कर ज़ोर 
					से खींच देती। एक हस्ताक्षर और १६ वर्ष का रिश्ता समाप्त। ये 
					सात फे़रों, सात वचनों से बँधे रिश्ते क्या इतने दुर्बल होते 
					हैं जिसका निर्णय एक कागज़ का टुकड़ा लेता है?
 
 क्या यह वही सीमा है जो दफ्तर में रोज़ाना न जाने कितने बड़े 
					निर्णय लेती है। सारा दिन कितनी ही चिट्ठियों पर हस्ताक्षर 
					लेती और करती है। आज इस कागज़ पर हस्ताक्षर देखते हुए उसका 
					सम्पूर्ण वजूद क्यों काँपने लगा? वह बच्चों के प्रश्नों का 
					कैसे उत्तर देगी? वह समाज की नज़रों का सामना अकेली कैसे करेगी? 
					दोष तो सब उसी को देंगे। एक स्त्री पति के जु़ल्म सहती हुई 
					खामोशी से जीती रहे तो समाज खु़श है परंतु जहाँ उसने सर उठाया 
					कितने ही जूते उसे कुचलने के लिये तैयार हो जाते हैं। वह जानती 
					है उसके इस निर्णय को माँ और भइया कभी सहमति नहीं देगे। इस 
					पुरुष प्रधान समाज में पैदा होते ही लड़की की ज़ुबान को सिल दिया 
					जाता है। पति का हर जु़ल्म सहना अच्छी गृहणी का गुण माना जाता 
					है। कुर्बानी ही स्त्री का दूसरा नाम है।
 
 दरवाज़ेपर दस्तक सुनकर सीमा के काँपते हाथों से कागज़ छूट कर मेज 
					पर यों बिखर गए मानों वह कोई चोरी करती हुई पकड़ी गई हो। देखा 
					तो सामने उसकी सहेली अलका खड़ी थी। सीमा के धैर्य का बाँध सारे 
					बंधन तोड़कर वेग गति से बह निकला।
 "सब कुछ ख़त्म हो गया अलका" वह उसके सामने कागज बढ़ाते हुए 
					हिचकियों में बोली
 "कुछ ख़त्म नहीं हुआ सीमा" कागज़ पढ़ते हुए अलका ने सीमा को गले 
					लगा लिया।
 "यह तो तुम्हारे नए जीवन की शुरुआत है। सम्भालो अपने आपको। 
					क्या यह मेरी वही बहादुर सहेली सीमा है..."
 "मैं टूट चुकी हूँ अलका"
 "अजी जिसके चार चार सहारे खम्भे के समान साथ खड़े हों वह कैसे 
					टूट सकती है। ऑफ़िस की शेरनी को यह सब शोभा नहीं देता सीमा। 
					हमें अपनी सखी की एक ही अदा तो पसंद है, जिसके प्यार में कोई 
					आवाज़ नहीं और टूटे तो झंकार नहीं।"
 
 झंकार तो उस दिन हुई थी जब वह थकी टूटी रात को आठ बजे घर आई 
					थी। दरवाज़ा खोलते ही घनश्याम उस पर बिफर पड़े।
 "कभी घड़ी भी देख लिया करो महारानी।"
 "माफ़ करना शाम, मीटिंग ज़रा ज़्यादा ही लम्बी खिंच गई।"
 "यह तुम्हारा कौन सा ऑफ़िस है जो आधी रात तक खुला रहता है। 
					तुम्हें यह भी भुला देता है कि घर में तुम्हारे पति और बच्चे 
					हैं। वो भी तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं।"
 
 सीमा का आज का दिन ऑफिस में वैसे ही बुरा बीता था। यह नया बॉस 
					प्रमोद नागर जब से आया है कोई न कोई मुसीबत खड़ी करता रहता है। 
					सीमा का सिर दर्द से फ़टा जा रहा था। सारा दिन कुछ खाने की भी 
					फु़रसत नहीं मिली थी। ऊपर से घर आते ही सदा की तरह घनश्याम का 
					क्रॉस एग्ज़ामिनेशन। वह बड़े शांत स्वर में बोली...
 "बच्चों के पास आप जो हैं शाम, मैं जानती हूँ आप उनको कभी
 मेरी कमी महसूस नहीं होने देते।"
 "हाँ...मैं घर में बच्चों की आया बना रहूँ, तुम्हारी नौकरी 
					करता रहूँ, यही तो चाहती हो न तुम।"
 "किसी को तो काम करना है न शाम..."
 अभी सीमा की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि घनश्याम तड़प कर बोले..
 "तुम्हारे कहने का मतलब क्या है। मैं निठ्ठला हूँ। तुम्हारी 
					कमाई पर जी रहा हूँ। जानती हो कि तुमसे ज़्यादा कमाता हूँ मैं। 
					चार दिन मुझे नौकरी से घर क्या भेज दिया गया कि तुम दिखाने लगी 
					अपने रंग। एक दिन छोड़ दूँगा निकल जायेगी सारी हेकड़ी। देखता हूँ 
					कैसे पालती हो नौकरी के साथ बच्चों को।"
 "शाम प्लीज़ धीरे बोलिये...बच्चे कहीं सुन न रहे हों।"
 "अच्छा है जो वो भी सुनें अपनी माँ की करतूतों को। यह आज फिर 
					अतुल आया था न तुम्हें छोड़ने।"
 "आप ही तो मुझे सुबह काम पर छोड़ कर आये थे। आपकी कार सर्विस के 
					लिए जाने वाली थी। फिर यदि अतुल मुझे छोड़ कर गया है तो उसमें 
					हर्ज ही क्या है। हमारा घर उसके रास्ते में ही तो पड़ता है।"
 "साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती कि तुम दोनों के बीच कुछ चल रहा 
					है..."
 "शाम...इतना घिनौना इल्ज़ाम लगाने से पहले यह तो सोच लिया होता 
					कि मैं आपकी ब्याहता और चार बच्चों की माँ हूँ।" सीमा हमेशा की 
					तरह रोती हुई बिना कुछ खाये वहाँ से जाने लगी तो घनश्याम पीछे 
					से बोले।
 
 "मैं कल सुबह लीड्स जा रहा हूँ। कल सुबह तक भी क्यों रुकूँ। 
					अभी जा रहा हूँ मुझे जॉब पर वापिस बुला लिया गया है।"
 "शाम कुछ दिन और अभी बच्चों के पास रुक जाते। मेरे ऑफ़िस में 
					काफ़ी गड़बड़ चल रही है" सीमा जाते हुए रुक गई।
 "क्यों,..मैं तुम्हारे बच्चों की आया हूँ?" शाम चिल्ला कर बोले
 "ये बच्चे आपके भी तो हैं।"
 "नहीं यह मेरे नहीं आपके बच्चे हैं। सम्भालिये आप अपनी गृहस्थी 
					को अकेले। मैं भी देखता हूँ तुम कब तक...मेरा तुमसे और 
					तुम्हारे बच्चों से कोई मतलब नहीं।"
 ऊपर बैडरुम का दरवाजा जोर से बंद हुआ। जिसका सीमा को डर था वही 
					हुआ। बच्चों ने सब कुछ सुन लिया था।
 सुनाया और सिखाया तो घनश्याम ने था जाने से पहले अपनी मझली 
					बेटी रेनु को...
 "रेनु बेटा पापा का एक काम करोगी"
 "जी पापा"
 "ये हम दोनों के बीच की बात होगी। मम्मा को इस विषय में कुछ 
					नहीं बताना। तुम तो जानती ही हो कि मम्मा तुम्हें कितना डाँटती 
					है...
 तुम मेरी लाडली बेटी हो इसलिये तुमको यह काम सौंपकर जा रहा 
					हूँ।"
 "बोलिये पापा मुझे क्या करना होगा"।
 "मैं कल सुबह लीड्स वापिस जा रहा हूँ। तुम बस अपनी मम्मा पर 
					नज़र रखना कि वह कितने बजे काम से घर आती हैं और अतुल अंकल साथ 
					में आते हैं कि नहीं"।
 "अतुल अंकल मुझे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते पापा।"
 "मैं जानता हूँ बेटा इसीलिए तो यह काम तुम्हारी बड़ी बहन को न 
					दे कर तुम्हें सौंप रहा हूँ"।
 "आई लव यू पापा" रेनु पापा से लिपटते हुए बोली।
 "ठीक है बेटा मैं तुम्हें फोन करता रहूँगा"।
 आज घनश्याम ने छोटी सी बच्ची के दिमाग में भी शक का बीज डाल 
					दिया था।
 
 यह फालतू का शक शाम को न जाने कहाँ ले जायेगा। वह तो सीमा का 
					कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं हैं। सीमा का स्त्रीत्व घायल 
					होकर रह गया। आदमी को अपने पुरुषत्व का इतना घमंड? अब मैं इनको 
					दिखाऊँगी कि पुरुष के बिना भी स्त्री सम्पूर्ण है। सीमा की 
					आँखों के आँसू सूख गये। नहीं...वह अबला नारी बनकर नहीं जियेगी।
 
 सीमा ऑफ़िस में बैठी कुछ चिट्ठियाँ पढ़ रही थी कि प्रमोद उसके 
					कमरे में आया...
 "सीमा जी, आज शाम को काम के पश्चात कुछ दूसरे कम्युनिटी सैंटरस 
					के साथ मैंने मीटिंग रखी है जिसमें आपका होना भी आवश्यक
 है।"
 "सॉरी मिस्टर नागर...मेरे जॉब एग्रीमेंट में महीने में केवल एक 
					देर शाम तक मीटिंग के बारे में लिखा है। और वो मीटिंग कल हो 
					चुकी है। मैं ५.३० के बाद नहीं रुक सकती। आप मेरे बिना चाहें 
					तो यह मीटिंग कर सकते हैं।" सीमा ने ऐसी गम्भीर आवाज़ में कहा 
					कि प्रमोद आगे कुछ कह न सका।
 
 यह आज इतनी गम्भीर क्यों है प्रमोद सोचने लगा। ज़रुर कल रात पति 
					के साथ तू-तू मैं-मैं हुई होगी। यही तो मैं चाहता हूँ। काम में 
					तो इसे कोई हरा नहीं सकता। ऐसे ही सही। ऐसे ही सोचते हुए 
					प्रमोद आगे कुछ और योजनाएँ बनाने लगा सीमा को तंग करने के 
					लिये। यही सीमा के स्थान पर कोई अंग्रेज़ महिला होती तो प्रमोद 
					उसके तलुए चाटता दिखाई देता किंतु एक भारतीय पुरुष कभी सहन 
					नहीं कर सकता कि ऑफ़िस में कोई भारतीय नारी की जानकारी उससे 
					अधिक हो। जानकारी लेने हेतु ही तो घनश्याम ने रेनु को फोन कर 
					डाला यह जाने बिना कि आज सीमा घर पर है। फोन उसकी बड़ी बहन रंभा 
					ने उठाया।
 "हैलो रंभा बेटे फोन ज़रा रेनु को देना।"
 "जी पापा'
 "किसका फोन है रंभा?" सीमा ने जानना चाहा।
 "पापा का है मॉम वह रेनु से बात करना चाहते हैं। वैसे वह अकसर 
					रेनु से बात करते हैं।"
 उधर रेनु बोल रही थी...। "जी पापा...नहीं मम्मी आज कल बहुत 
					जल्दी घर आती हैं। मैं हमेशा उन पर नज़र रखती हूँ... कौन अतुल 
					अंकल, वो तो जब से आप गये हैं कभी भी घर नहीं आये।"
 
 सुनते ही सीमा का सिर झन्ना उठा। शाम छोटी सी बच्ची से जासूसी 
					करवा रहे हैं। वो भी अपनी की माँ। सीमा ने फोन रेनु के हाथ से 
					ले लिया...
 "आप जानते हैं कि आप यह क्या कर रहे हैं शाम। अपना काम निकालने 
					के लिये एक छोटी सी बच्ची के दिमाग में अपनी माँ के प्रति ज़हर 
					भर रहे हैं। कितने अच्छे संस्कार दे रहे हैं न अपने बच्चों 
					को।"
 "जब घी सीधी उँगली से नहीं निकलता तो उसे टेड़ा करना पड़ता है।" 
					घनश्याम गुस्से से बोले।
 "बुज़दिलों के समान बच्चों को प्रयोग करना छोड़िये और मुझसे बात 
					करिये कि आप क्या जानना चाहते हैं। अभी तक मैं एक पत्नी का 
					धर्म निभा कर खामोश थी लेकिन आज आपने एक माँ की ममता को ललकारा 
					है जो मैं हरगिज बरदाश्त नहीं कर सकती।"
 "आज तुम्हारी हिम्मत इतनी बढ़ गयी है जो मुझसे ऐसे बात कर रही 
					हो? हाँ...अतुल जो आ गया है तुम्हारी जिंदगी में..."
 बस...अब आगे एक और शब्द नहीं। आप मेरी हिम्मत देखना चाहते हैं 
					न तो देखिये..."
 
 सीमा ने फोन पटक दिया। उसका सारा शरीर पत्ते के समान काँप रहा 
					था। क्या यह वही इंसान है जिसके साथ मैंने शादी के १६ वर्ष 
					बिताये हैं। इतनी कड़वाहट। सीमा ने गुस्से से फ़ोन उठाकर एक 
					नम्बर घुमाया..."हैलो बी॰टी॰
 एक्सचेंज...
 मैं सीमा गुप्ता २३१०९७ से बोल रही हूँ। मैं अपना फोन नम्बर 
					बदलना चाहती हूँ।"
 "कोई विशेष कारण। आप कब से बदलना चाहती हैं मैडम।" उधर से आवाज़ 
					आई।
 "जी निजी कारण है। आज से ही बदल दीजिये तो अच्छा है।"
 सीमा ने फोन ही नहीं बदला बल्कि अपने जीवन का पन्ना ही बदल 
					दिया। घनश्याम ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसकी 
					धमकियों का इतना कड़ा जवाब आयेगा।
 
 घनश्याम चाह कर भी फिर कभी लॉफ्बरो न आ पाये। क्या मुँह लेकर 
					आते। स्वयं ही तो सीमा से कह दिया था कि बच्चों से उनका कोई 
					सम्बंध नहीं। यह एक माँ के साथ उसके बच्चों का भी अपमान था। 
					सीमा ने हिम्मत न हारी। एक अकेली महिला के लिए आसान नहीं कि वह 
					डिमांडिंग जॉब करते हुए बच्चों को अच्छे संस्कार और अच्छी 
					तालीम भी दे।
 
 काम पर जब देखो प्रमोद नागर कोई न कोई मुश्किल उत्पन्न करता ही 
					रहता। सीमा लॉफ्बरो जैसे छोटे शहर में रहती है। लोगों को शीघ्र 
					ही पता चल गया कि वह पति से अलग हो गई है। सुनकर प्रमोद नागर 
					की हिम्मत थोड़ी और बढ़ गई। सीमा प्रमोद के ऑफ़िस के बाहर से निकल 
					रही थी कि कुछ सुनकर वहीं ठिठक गई...
 प्रमोद बोल रहा था...एक जवान औरत दूसरों के सम्मुख कितनी भी 
					कठोर क्यों न बन जाये परंतु अकेले में कभी तो मन मचलता होगा। 
					अब वो समय दूर नहीं जब वह स्वयं आ कर यहाँ बैठेगी प्रमोद जंघा 
					पर हाथ मारते हुए कह रहा था और बाकी उसके चेले चपाटे सब हँस 
					रहे थे। सब की हँसी ही नहीं मुँह भी बंद हो गये जब दरवाजे़ में 
					सीमा को खड़े देखा। सीमा धीरे-धीरे कदम उठा कर अंदर आई। वह सीधी 
					आकर प्रमोद के सामने खड़ी हो गई। क्या कह रहे थे आप मिस्टर नागर 
					मैंने ठीक से सुना नहीं...प्रमोद सीमा को वहाँ खड़ा देखकर सकपका 
					गये परंतु तुरन्त ही स्वयं को सम्भालते हुए बोले।
 
 "बस यों ही कुछ पति द्वारा छोड़ी हुई औरतों की बात कर रहे थे कि 
					ऐसी औरतों को समाज किस नज़र से देखता है।"
 "यह शायद आप १६ वीं सदी की बात कर रहे थे मिस्टर नागर जब नारी 
					सब प्रकार से पति के ऊपर निर्भर रहती थी। मैं आपको याद दिला 
					दूँ कि यह २१वीं सदी है। आज की पढ़ी लिखी नारी स्वयं ही सक्षम 
					है और अपने परिवार को पालने की हिम्मत रखती है। आप जंघा पर हाथ 
					मारकर कुछ कह रहे थे। ऐसे ही सदियों पहले किसी ने जंघा पर हाथ 
					मारकर यही शब्द कहे थे और उसका हश्र क्या हुआ था ये हम सभी 
					जानते हैं। मैं तो यहाँ आज शाम की मीटिंग के विषय में कुछ बात 
					करने आई थी...देख रही हूँ कि आप किन्हीं विशेष बातों में 
					व्यस्त हैं, आपको समय मिले तो हम कुछ काम की बात कर लेंगे कहते 
					हुए सीमा ने प्रमोद का ऑफ़िस छोड़ दिया।
 
 छोड़ना तो घनश्याम भी चाहता है इन यादों को। चाय का प्याला लेकर 
					वह गैस फ़ायर के सामने रॉकिंग चेयर पर बैठ गया। उसके दूसरे हाथ 
					में वही चिट्ठी थी जो अभी तक उसने खोल कर नहीं देखी थी। सोचते 
					हुए कि इस बार ठंड कुछ ज़्यादा ही पड़ रही है वह चाय की 
					चुस्कियाँ लेने लगा। गर्म चाय थोड़ी कड़ुवी थोड़ी मीठी। हर घूँट 
					कलेजे में गर्माहट छोड़ते हुए नीचे उतरने लगा। उसे बायें बाज़ु 
					में हलका सा दर्द महसूस हुआ। उसने स्वयं को सांत्वना दी कि ठंड 
					बहुत है शायद इसलिए दर्द हो रहा होगा। अब जवानी तो रही नहीं 
					बुढ़ापे में इंजर-पिंजर भी तो ढीले हो जाते हैं। उसने शॉल को 
					थोड़ा और चारों ओर लपेट लिया।
 
 दर्द तो उस दिन भी उठा था जब वह शिकायत लेकर डाक्टर के पास गया 
					था।
 "डाक्टर ये कभी-कभी सीने में और कभी बाजू़ में हल्का सा दर्द 
					होने लगता है।"
 "शायद बदहज़मी के कारण हो।" कारण जानने के लिए ही डाक्टर ने 
					जाँच करते हुए कहा "मिस्टर गुप्ता आप डायबेटिक हो। हर समय यह 
					सिगरेट आपके होठों के साथ चिपकी रहती है। एक अभी बुझने भी नहीं 
					पाती कि आप दूसरी सुलगा लेते हो। छोड़ क्यों नहीं देते इस ज़हर 
					को।"
 "सभी कुछ तो छूट गया है डाक्टर। अब इसे भी छोड़ दूँगा तो 
					जियूँगा किसके सहारे। ये मेरी साँसों के साथ जलती है। इसके 
					बुझते ही घनश्याम भी बुझ जायेगा।"
 
 और एक ज़ोरदार ठहाका मारकर घनश्याम कुर्सी छोड़कर उठ गया।
 "डाक्टर जानते हैं कि इस ठहाके के पीछे कितना दर्द छुपा है। इस 
					दर्द की दवा कोई डाक्टर नहीं दे सकता।"
 चाय का ख़ाली प्याला पास मेज पर रखते हुए उसकी निगाह उस चिट्ठी 
					की ओर गई। उसने काँपते हाथों से लिफ़ाफ़ा खोला...
 अंदर से एक कार्ड झाँक रहा था। घनश्याम ने जल्दी से कार्ड को 
					निकाल कर पढ़ा...
 हम सबकी ओर से आपको अपनी ६५ वीं वर्षगांठ की बहुत बधाई।
 पुनीत।
 
 कार्ड बेटे की ओर से था। ओह...तो आज मेरा जन्मदिन है। अगर मैं 
					६५ का हो गया हूँ तो सीमा भी तो ६० वर्ष की होने वाली है। कैसी 
					लगती होगी वह पके बालों के साथ। अब तो चेहरे पर भी हल्की सी 
					झुर्रियाँ पड़ गई होंगी। झुर्रियों के संग तो वह और भी सुंदर 
					दिखती होगी। भई नानी-दादी भी तो बन गई है और एक मैं 
					हूँ...तिरस्कृत पति, नाकामयाब पिता, व कायर ग्रेंड डैड। यही तो 
					है पहचान मेरी। सीमा को शर्म आती होगी बच्चों के सामने मेरा 
					नाम लेते हुए भी। शर्म आए भी तो क्यों न मैं हूँ ही इस काबिल। 
					जिसने बच्चों को तो छोड़ा अपने नाती-पोतों की सूरत तक नहीं 
					देखी। मुझसे अधिक बदनसीब और कौन होगा।
 
  बायें बाजू़ के साथ अब तो सीने में भी दर्द उठने लगा था। कार्ड 
					का लिफ़ाफा हाथ से फिसल कर गोदी में गिर गया। 
 घनश्याम ने कठिनाई से दाहिना हाथ ऊँचा करके सिगरेट का एक ज़ोर 
					से कश खींचा। सारी छाती सिगरेट के धुएँ से भर गई। उसे ज़ोरदार 
					खाँसी आई। खाँसते हुए उसने फिर से कश लेने का प्रयत्न किया। इस 
					बार वह हाथ उठाने में असमर्थ रहा। हाथ में इतनी भी ताकत न बची 
					कि दुखते हुए सीने पर रख सके। साँसें पहले तेज़ और फिर धीमी 
					होने लगीं। जलती हुई सिगरेट राख की लम्बी लकीर छोड़ती हुई 
					उँगलियों में सुलग कर बुझ गई।
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