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संस्मरण


पार्षद और झंडागीत- 'झंडा ऊँचा रहे हमारा'
-अनूप कुमार शुक्ल और शोभा स्वप्निल
 


हरिपुरा के ऐतिहासिक काँग्रेस अधिवेशन के अवसर पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने ध्वजारोहण किया। तिरंगे ध्वज के सम्मान में खड़े लगभग पाँच हज़ार लोग श्रद्धा-विभोर होकर झंडागीत 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा' समवेत स्वर में गा उठे। वह प्रथम अधिवेशन था जिसमें झंडा-गीत गाया गया था। देश के सभी महत्त्वपूर्ण नेतागण इस समारोह में उपस्थित थे। सन १९३८ में आयोजित इस अधिवेशन के पश्चात तो देश की गली-गली, कोने-कोने में प्रभात फेरियों में जन-जन के कंठों से यह गीत गंूजने लगा। कैसे जन्मा यह अमर राष्ट्रीय गीत और कौन थे इस ओजस्वी गीत के रचनाकार? राष्ट्रीय जन-मानस का कंठहार रहे इस गीत को श्रद्धापूर्वक गाते रहनेवाले लोगों में भी गिने-चुने लोग ही इन प्रश्नों का उत्तर दे पाने में सफल हो पाते हैं।

जन्म और बाल्यकाल

बहुत कम लोगों को मालूम है कि इस अमर राष्ट्रीय झंडागीत के रचयिता थे, स्वर्गीय श्यामलाल गुप्त पार्षद। कानपुर जिले के नरवल नामक गांव में १६ सितंबर, १८९३ को श्री श्याम लाल गुप्त पार्षद का जन्म हुआ। वे बचपन से ही प्रतिभासंपन्न थे। प्रकृति ने उन्हें कविता करने की क्षमता सहज रूप में प्रदान की थी। जब वे पाँचवी कक्षा में थे तब उन्होंने यह कविता लिखी:-
परोपकारी पुरुष मुहिम में पावन पद पाते देखे,
उनके सुंदर नाम स्वर्ण से सदा लिखे जाते देखे।
प्रथम श्रेणी में मिडिल पास होने के बाद उन्होंने पिता के कारोबार में सहयोग देना आरंभ कर दिया। साथ ही किसी प्रकार पढ़ाई भी जारी रखी और हिंदी साहित्य सम्मेलन की विशारद परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। १५ वर्ष की अवस्था से ही वे
हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छंदों में सुंदर रचना करने लग गए थे।

कार्यक्षेत्र

पार्षदजी की साहित्यिक प्रतिभा और देशभक्ति की भावना ने उन्हें पत्रकारिता की ओर उन्मुख कर दिया। उन्होंने 'सचिव' नामक मासिक पत्र का प्रकाशन संपादन आरंभ कर दिया। सचिव के प्रत्येक अंक के मुखपृष्ठ पर पार्षदजी की निम्न पंक्तियाँ प्रमुखता से प्रकाशित होती थीं -
'राम राज्य की शक्ति शांति सुखमय स्वतंत्रता लाने को
लिया 'सचिव' ने जन्म देश की परतंत्रता मिटाने को
अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी और साहित्यकार श्री प्रताप नारायण मिश्र के सानिध्य में आने पर श्यामलाल जी ने अध्यापन, पुस्तकालयाध्यक्ष और पत्रकारिता के विविध जनसेवा कार्य किए। पार्षद जी १९१६ से १९४७ तक पूर्णत: समर्पित कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। गणेशजी की प्रेरणा से आपने फतेहपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और बाद में अपनी लगन और निष्ठा के आधार पर सन १९२० में वे फतेहपुर जिला काँग्रेस के अध्यक्ष बने। इस दौरान 'नमक आंदोलन' तथा 'भारत छोड़ो आंदोलन' का प्रमुख संचालन किया तथा जिला परिषद कानपुर में भी वे १३ वर्षों तक रहे।


असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण पार्षदजी को रानी यशोधर के महल से २१ अगस्त १९२१ को गिरफ़्तार किया गया। जिला कलेक्टर द्वारा उन्हें दुर्दांत क्रांतिकारी घोषित करके केंद्रीय कारागार आगरा भेज दिया गया। १९३० में नमक आंदोलन के सिलसिले में पुन: गिरफ़्तार हुए और कानपुर जेल में रखे गए। पार्षदजी सतत स्वतंत्रता सेनानी रहे और १९३२ में तथा १९४२ में फरार रहे। १९४४ में आप पुन: गिरफ़्तार हुए और जेल भेज दिए गए। इस तरह आठ बार में कुल छ: वर्षों तक राजनैतिक बंदी रहे। स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के दौरान वे चोटी के राष्ट्रीय नेताओं- मोतीलाल नेहरू, महादेव देसाई, रामनरेश त्रिपाठी और अन्य नेताओं के संपर्क में आए।

राजनीतिक कार्यों के अलावा पार्षदजी सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी रहे। उन्होंने दोसर वैश्य इंटर कालेज एवं अनाथालय, बालिका विद्यालय, गणेश सेवाश्रम, गणेश विद्यापीठ, दोसर वैश्य महासभा, वैश्य पत्र समिति आदि की स्थापना एवं संचालन किया। इसके साथ ही स्त्री शिक्षा व दहेज विरोध में आपने सक्रिय योगदान किया। आपने विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में सक्रिय योगदान किया। पार्षदजी ने वैश्य पत्रिका का जीवन भर संपादन किया। रामचरित मानस उनका प्रिय ग्रंथ था। वे श्रेष्ठ 'मानस मर्मज्ञ' तथा प्रख्यात रामायणी भी थे। रामायण पर उनके प्रवचन की प्रसिद्ध दूर-दूर तक थी। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा ऱाजेंद्र प्रसाद जी को उन्होंने संपूर्ण रामकथा राष्ट्रपति भवन में सुनाई थी। नरवल, कानपुर और फतेहपुर में उन्होंने रामलीला आयोजित की।

जनप्रेरक : झंडागीत


सन १९२३ में फतेहपुर जिला काँग्रेस का अधिवेशन हुआ। सभापति के रूप में पधारे श्री मोतीलाल नेहरू को अधिवेशन के दूसरे दिन ही आवश्यक कार्य से बंबई जाना पड़ा। उनके स्थान पर सभापतित्व संभालनेवाले गणेश शंकर विद्यार्थीजी को अंग्रेज़ सरकार के विरोध में भाषण देने के कारण जेल जाना पड़ा। काँग्रेस ने उस समय तक झंडा तो 'तिरंगा झंडा' तय कर लिया था पर जन-मन को प्रेरित कर सकनेवाला कोई झंडागीत नहीं था। श्री गणेश शंकर विद्यार्थी पार्षद जी की देशभक्ति और काव्य-प्रतिभा दोनों से ही प्रभावित थे, उन्होंने पार्षदजी से झंडागीत की रचना करने को कहा।

काव्य-रचना ऐसी चीज़ तो है नहीं कि जब चाहा हो गई। पार्षदजी परेशान, समय सीमा में कैसे लिखा जाए? काग़़ज-कलम लेकर लिखने बैठ गए। रात को नौ बजे कुछ शब्द काग़़ज पर उतरने शुरू हो गए। कुछ समय बाद एक गीत तैयार हो गया जो इस प्रकार था - राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति राष्ट्रीय पताका नमो नमो। रचना बन गई थी, अच्छी भी थी, पर पार्षदजी को लगा बात बनी नहीं। लगा, गीत सामान्य जन-समुदाय के लिए उपयुक्त नहीं था। थककर वह लेट गए। पर व्यग्रता के कारण नींद नहीं आई। जागते-सोते, करवटें बदलते-बदलते रात दो बजे लगा- जैसे रचना उमड़ रही है। वह उठकर लिखने बैठ गए। कलम चल पड़ी। स्वयं पार्षदजी के अनुसार, "गीत लिखते समय मुझे यही महसूस होता था
कि भारत माता स्वयं बैठकर मुझे एक-एक शब्द लिखा रही है।" जो झंडागीत बना वह इस प्रकार था -

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसानेवाला वीरों को हर्षानेवाला।
शांति सुधा बरसानेवाला मातृभूमि का तन-मन सारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

लाल रंग भारत जननी का, हरा अहले इस्लाम वली का,
श्वेत सभी धर्मों का टीका, एक हुआ रंग न्यारा-न्यारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

है चरखे का चित्र संवारा मानो चक्र सुदर्शन प्यारा
हरे देश का संकट सारा, है यह सच्चा भाव हमारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

स्वतंत्रता के भीषण रण में लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में
काँपे शत्रु देखकर मन में मिट जायें भय संकट सारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

इस चरखे के नीचे निर्भय होवे महाशक्ति का संचय
बोलो भारत माता की जय सबल राष्ट्र है ध्येय हमारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

आओ प्यारे वीरो आओ राष्ट्र ध्वजा पर बलि-बलि जाओ
एक साथ सब मिलकर गाओ प्यारा भारत देश हमारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

शान न इसकी जाने पाए चाहे जान भले ही जाए
विश्व विजय करके दिखलाए तब होवे प्रण पूर्ण हमारा
झंडा
ऊँचा रहे हमारा।

इस झंडागीत की रचना से पार्षदजी को पूर्ण संतोष मिला और वह मीठी नींद सो गए। पार्षदजी ने दोनों गीत विद्यार्थी जी के पास भेज दिए। विद्यार्थीजी को दोनों ही गीत बहुत अच्छे लगे। उन्होंने दोनों गीत राजर्षि पुस्र्षोत्तम दास टंडन को भी दिखाए। टंडनजी को भी 'झंडा ऊँचा रहे हमारा' गीत प्रियतर लगा। कुछ अन्य नेताओं ने भी इसे ही पसंद किया। बाद में महात्मा गांधी के परामर्शनुसार ७ पद वाले इस मूल गीत से तीन पदों (पद संख्या १, ६ व ७) को संशोधित करके 'झंडागीत' के रूप में मान्यता दी गई। यह गीत न केवल राष्ट्रीय गीत घोषित हुआ बल्कि अनेकों नौजवानों और
नवयुवतियों के लिए देश पर मर मिटने हेतु प्रेरणा का स्रोत भी बना।

पार्षद जी के बारे में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए नेहरू जी ने कहा था- 'भले ही लोग पार्षदजी को नहीं जानते होंगे परंतु समूचा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से परिचित है।' इसके बाद सार्वजनिक सभाओं, जुलूसों के अवसर पर झंडारोहण और प्रभात फेरियों में इस गीत के स्वर गूँजने लगे और एक दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा झंडारोहण करने के अवसर पर हरिपुर काँग्रेस अधिवेशन में इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिली।

१० अगस्त १९७७ की रात को इस समाजसेवी, राष्ट्रकवि का निधन हो गया। वे ८१ वर्ष के थे। स्वतंत्र भारत ने उन्हें सम्मान दिया और १९५२ में लाल किले से उन्होंने अपना प्रसिद्ध 'झंडा गीत' गाया। १९७२ में लाल किले में उनका अभिनंदन किया गया। १९७३ में उन्हें 'पद्मश्री' से अलंकृत किया गया। उनकी मृत्यु के बाद कानपुर और नरवल में उनके अनेकों स्मारक बने। नरवल में उनके द्वारा स्थापित बालिका विद्यालय का नाम 'पद्मश्री श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' राजकीय बालिका इंटर कालेज किया गया। फूलबाग, कानपुर में 'पद्मश्री' श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' पुस्तकालय की स्थापना हुई। १० अगस्त १९९४ को फूलबाग में उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई। इसका अनावरण उनके ९९ वें जन्मदिवस (९ सितंबर ९५ को)पर किया गया। झंडागीत के रचयिता, ऐसे राष्ट्रकवि को पाकर देश की जनता धन्य है।

१६ अगस्त २००६

 
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