स्वाधीनता
दिवस
के अवसर पर
एक और जलियाँवाला
रायबरेली
की मुंशीगंज कांड
- अमरेश बहादुर अमरेश
सन १९२०-२१
का किसान-आंदोलन अपने ढंग का नया और प्रभावाशाली आंदोलन था। यह
आंदोलन अवध के किसानों द्वारा जलियाँवाला बाग हत्याकांड के
तत्काल बाद ही प्रारंभ हुआ था। लेकिन इसकी उग्रता सन १९२० के
अंत और सन १९२१ के प्रारंभ में चरम सीमा पर पहुँच गयी थी। अवध
के तालुकेदारों, जमींदारों तथा राजाओं के अत्याचारों से पीड़ित
किसान एकदम से विद्रोह कर बैठे। इन किसानों का नेतृत्व कुछ
उग्रपंथी नेताओं तथा साधु-सन्यासियों ने ठीक उसी प्रकार किया,
जैसे सन १८५७ में किया था।
सन १८५७ में
अनेक साधु तथा फकीरों ने ‘रोटी और कलम’ के प्रतीकों द्वारा
क्रांति का प्रचार किया था। लेकिन इन साधु-सन्यासियों के पास
‘रोटी और कलम’ जैसे प्रतीक न थे। इनके पास एक धार्मिक नारा था-
‘‘सीताराम!’’ कहा जाता है कि इस नारे की ध्वनि कानों में पड़ते
ही जो किसान जहाँ रहता था, वहीं वह काम बंद कर देता था। यह
ध्वनि एक किसान से दूसरे किसान तक विद्युत-वेग से पहुँच जाती
थी। ‘सीताराम’ शब्द कानों में पड़ते ही पूर्ण हड़ताल-सी हो जाती
थी और लोग सभा अथवा जुलूस में पहुँच जाते थे। रास्ते में यदि
कोई हल जोतता, फावड़ा चलाता, अथवा पुरवाही करता दिखायी पड़ता, तो
उसका भी ध्यान ‘सीताराम’ कहकर आकर्षित किया जाता। वह तत्काल
अपना हल, फावड़ा तथा पुर वहीं छोड़कर चल पड़ता।
किसान-सभा का जन्म
अवध के किसानों की भावनाओं का परिचय कुछ तथाकथित किसान नेताओं
को मिल चुका था। वे इसे संगठनात्मक रूप देने के लिए आगे बढ़े।
‘अवध किसान सभा’ नामक एक संस्था की भी स्थापना की। इस किसान
सभा की नियमावली बनायी गई थी। अवध के किसान-आंदोलन के साथ
भारतीय इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया है। यदि पं. जवाहरलाल
नेहरू इसका उल्लेख ‘मेरी कहानी’ में न करते, तो आज इस आंदोलन
का कोई नाम भी न लेता। सन १८५७ के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम में
अवध के किसानों ने खुलकर फिरंगी सेना का सामना किया था। बाद
में सरकार और किसानों के मध्य तालुकेदारों की कड़ी थी। दोनों
मिलकर किसानों को दबाने लगे। तालुकेदारों की नीति का पालन उनके
अहलकार-मैनेजर, मुख्तार, जिलेदार तथा सिपाही करते थे। वे लगान
वसूल करते थे। तालुकेदार अपनी विलासिता तथा उपभोग की वस्तुएँ
खरीदने के लिए भी चंदा लगाया करते थे। जैसे हाथी खरीदने के
लिए- ‘हाथीवान टैक्स लगता था।
कुछ प्रामाणिक तथ्य
यह थी, अवध और रायबरेली जिले कि किसानों की दुर्दशा। जिले के
वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता मुंशी सत्यनारायण श्रीवास्तव ने लिखा
है- ‘‘बेदखली की तलवार यहाँ के किसानों की गर्दन पर हर वक्त
लटकती रहती थी। अवध का किसान तालुकेदारों के जुल्मों से आजिज आ
गया था। रायबरेली जिले में जगह-जगह किसानों ने तालुकेदारों के
विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। बदमाशों को मौका मिला और किसानों
को गुमराह कराकर फुरसतगंज, करहिया बाजार आदि स्थानों पर लूट
करा दी।’’
सन १९२०-२१ के ऐतिहासिक किसान-आंदोलन का उल्लेख करते हुए पं.
अंजनीकुमार ने लिखा है- ‘‘इस आंदोलन का आरंभ क्यों और कैसे
हुआ, इसको बताने के लिए यह आवश्यक है कि पहले यह बता दिया जाए
कि सन १९२० व उसके पहले यहाँ के किसानों की स्थिति व दशा कैसी
थी। तालुकेदारी प्रथा थी। तालुकेदार अपने को राजा कहते थे।’’
अवध के किसान आंदोलन का पहला धमाका प्रतापगढ़ में हुआ। दो सौ
किसानों के एक जत्थे ने इलाहाबाद जाकर नेहरूजी से भेंट की,
फलतः वे स्वयं प्रतापगढ़ गये और उन्होंने किसानों को
समझाया-बुझाया। उनके लौटते ही ब्रिटिश सरकार का दमन-चक्र पुनः
शुरू हो गया। बड़े पैमाने पर किसानों की गिरफ्तारी की गयी। फलतः
किसानों में उत्तेजना बढ़ी और एक दिन उन्होंने जिला कारागार पर
आक्रमण कर दिया। फलतः सरकार को बंदियों को छोड़ना पड़ा। अब वे
रायबरेली की ओर बढ़े। दिनांक चार जनवरी को रुस्तमपुर बाजार में
किसानों की एक सभा होने वाली थी। उस दिन सभा प्रारंभ भी नहीं
होने पायी थी कि बाजार लूटने की अफवाह फैल गयी। कहा जाता है,
भीड़ से कुछ गुंडों ने बाजार में हल्ला बोल दिया। इसी दिन डीह
के बाजार को भी लूटे जाने का समाचार फैल गया। अगले दिन
नसीहाबाद का बाजार लूटे जाने की भी अफवाह फैली। फलतः किसानों
पर तालुकेदारों के गुंडों और ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार पहले
से ज्यादा बढ़ गये।
चंदनिहा-कांड
डलमऊ तहसील में चंदनिहा नामक एक छोटी-सी तालुकेदारी रियासत थी।
यहाँ के तालुकेदार एक ठाकुर थे। ‘अच्छी जान’ नाम की एक वेश्या
उनकी रखैल थी। वास्तव में रियासत की वही शासिका थी। अच्छी जान
के कार्यकलापों से क्षेत्रीय किसान पहले से ही क्षुब्ध थे। उसी
समय, जब कि किसानों की उत्तेजना विस्फोट का रूप धारण करने वाली
थी, उसकी एक हरकत ने आग में घी का काम किया। दूसरे शब्दों में
मुंशीगंज गोलीकांड की पृष्ठभूमि में यदि गंभीरतापूर्वक विचार
किया जाए तो दो चेहरे सामने आते हैं- अच्छी जान और सरदार
वीरपाल सिंह! अच्छी जान ने, कहा जाता है कि, एक किसान निहाल
सिंह रामप्रताप सिंह की फसल को नष्ट करवा दिया। हो सकता है, यह
कांड तालुकेदार के इशारे पर अथवा स्वेच्छा से उनके कारिदों ने
किया हो, किंतु बदनाम अच्छी जान के शीश पर ही यह कलंक मढ़ा गया।
इस फसल के नष्ट होते ही किसानों का ज्वालामुखी आग-लावा उगलने
लगे।
कोठी का घेराव
बाबा जानकीदास, पं. अमोल शर्मा, मुंशी कालिकाप्रसाद आदि किसान
नेताओं के नेतृत्व में तीन हजार से अधिक किसानों का हुजूम
चंदनिहा पहुँचा। उसने चारों ओर से तालुकेदार साहब की कोठी घेर
ली। वायुमंडल ‘गांधी जी की जय’ , ‘बाबा रामचन्द्र की जय’ ,
‘पं. जवाहरलाल की जय’ के साथ-साथ ‘सीता-राम’ के रणघोष से
काँप-काँप उठता था। हजारों किसानों का उत्तेजित जनसमूह नारे
लगा रहा था। अपनी मांगों की पूर्ति के लिए आवाज उठा रहा था।
ठीक उसी समय जिला मजिस्ट्रेट श्री ए. जी. शेरिफ तालुकेदार के
निवेदन पर पुलिस फोर्स लेकर मौके पर पहुँच गये। ठा. चन्द्रपाल
सिंह तथा अमोल शर्मा को अपनी गाड़ी में बैठा लिया। इसी समय यह
अफवाह फैल गयी कि रायबरेली में तीनों नेताओं की हत्या कर दी
गयी है।
इसी समय एक और ‘धमाका’ हो गया। वह था फुरसतगंज गोलीकांड। इस
गोलीकांड ने रही-सही जो भी कसर थी, उसे पूरा कर दिया: ५ जनवरी
को चंदनिहा कांड हुआ था। ६ जनवरी को किसान-नेताओं की हत्या की
अफवाह प्रचारित हुई। ठीक उसी तिथि को फुरसतगंज में गोलीकांड भी
हो गया, जिसमें लगभग तीन हजार किसान की भीड़ पर निर्दयतापूर्वक
गोली वर्षा की गयी। इसी परिस्थिति ने सात जनवरी को मुंशीगंज का
ऐतिहासिक गोलीकांड करा दिया।
मुंशीगंज गोलीकांड की परिस्थितियाँ, स्थान और वातावरण की
विभीषिका ठीक जलियाँवाला कांड-जैसी थी। रायबरेली के मुंशीगंज
गोलीकांड स्थल की रचना भी कुछ ऐसी ही थी। एक ओर सई नदी की धारा
थी। पुल पर बैलगाड़ियाँ इकट्ठी करके रास्ता रोक दिया गया था। पुल
के इस पार सशस्त्र सेना खड़ी थी। नदी के पुल के उस पार जहाँ
किसानों का अपार जन-समुद्र लहरा रहा था, एक ओर रेलवे लाइन थी,
लाइन इतनी ऊँचाई पर थी कि वह दीवार का काम कर रही थी। लाइन के
नीचे तार के खंभे थे। पीछे की ओर बाग, सरपत पुंज और रेलवे फाटक
था। सड़क और रेल की पटरी के मध्य त्रिकोणात्मक स्थान किसानों का
जमाव-स्थल था, जिनके भागने का कहीं भी रास्ता न था। इस भीड़ को
शांत करने के लिए बाबू किस्मत राय उसी प्रकार भाषण दे रहे थे
जैसे जलियाँवाला बाग में हंसराज। यह स्थान रायबरेली शहर से
लगभग दो मील की दूरी पर था। ऐसी थी मुंशीगंज गोलीकांड स्थल की
रचना।
किसानों का जमाव
जिले के किसान नेताओं ने एक दिन पूर्व ही स्थिति की गंभीरता
देखकर पं. जवाहरलाल नेहरू को तार कर दिया था। अधिकारियों ने
रातोंरात सेना बुला ली। किसानों का समूह नदी पार न करने पाये,
इसके लिए उन्होंने पुल पर बैलगाड़ियाँ खड़ी करके, मार्ग अवरुद्ध
कर दिया था। पुल के इस पार सशस्त्र सेना थी। किसानों की भीड़
जेलखाने तक जाकर अपने नेताओं को देखना चाहती थी। ९ बजते-बजते
सई नदी की रेती में अपार जनसमुद्र हिलोरें लेने लगा। जनरव एवं
जयघोषों से आकाश गूँज उठा। एक ओर किसानों का अपार जन-समूह दूसरी
ओर सशस्त्र सेना।
खुरेहटी के तालुकेदार सरदार वीरपाल सिंह एम. एल. सी. ने इस
कांड के ‘हीरो’ का रोल अदा किया। उन्हें भय था कि किसानों का
आक्रमण जिला कारागार के अतिरिक्त उनकी कोठी पर भी हो सकता है।
तालुकेदारी के मद में चूर, एम. एल. सी. का पोर्टफोलियो साफे
में लपेटे सरदार वीरपाल सिंह लगभग १० बजे जिलाधिकारी मि. ए.
जी. शेरिफ के पास पहुँचे। मि. शेरिफ के संबंध में कहा जाता है
कि वे बड़े ही शिष्ट, विद्वान तथा विनम्र व्यक्ति थे। वे
अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कृत के भी विद्वान थे।
श्री शेरिफ के अनुसार, उस वक्त वहाँ सात हजार से दस हजार तक की
भीड़ थी। स्त्रियों को छोड़ सबके हाथों में लाठियाँ थीं। यह भीड़
बड़ी मुश्किल से पीछे हट रही थी। भीड़ को दो सौ गज पीछे हटाने
में लगभग एक घंटा लगा। इसी बीच भीड़ छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट
गयी। तभी किसी ने गोली चला दी। इसके बाद तो किसानों पर
अंधाधुंध गोली वर्षा हुई। सई नदी की रेत लहूलुहान हो गयी। नदी
का पानी लाल हो गया। रातों रात लाशें फौजी ट्रकों में भरकर
डलमऊ भेज दी गयीं। रात में इधर-उधर खोजने पर जो लाशें मिली
उन्हें सामूहिक रूप से रेत में गाड़ दिया गया। कुछ असमर्थ
घायलों को अस्पताल भेज दिया गया। लोगों का अनुमान है कि पहली
गोली सरदार वीरपाल सिंह ने चलायी थी।
जिस समय यह गोलीकांड हो रहा था, उस समय पं. नेहरू नदी के दूसरे
पार पहुँच चुके थे। वे पुल पार कर गोलीकांड वाले स्थान पर जाना
चाहते थे, लेकिन एक अंग्रेज अफसर ने उन्हें उस पार जाने नहीं
दिया। बाद में पं. नेहरू ने ‘दैनिक इंडिपेंडेंट’ के १३ जनवरी
१९२१ के अंक में इस घटना पर दो किश्तों में एक लेख भी लिखा।
अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने मुंशीगंज गोलीकांड का उल्लेख
किया है। |