स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक
लाल किले से ही
राष्ट्रध्वज क्यों फहराया जाता है और प्रधानमंत्री
नेहरू ने सर्वप्रथम राष्ट्रध्वज फहराने के लिए इसी
स्थान को क्यों चुना? लाल किले से ही देश की जनता को
संबोधित करने की परंपरा क्यों शुरू हुई तथा
प्रधानमंत्री लाल किले के इस प्राचीर से ही सलामी
क्यों लेते हैं? इन सवालों के उत्तर के लिए हमें लाल
किले की उस ऐतिहासिक भूमिका पर दृष्टिपात करना पड़ेगा,
जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी।
सर्वविदित है कि भारत
के स्वतंत्रता आंदोलन में लाल क़िले की उल्लेखनीय
भूमिका रही है, जिसके फलस्वरूप लाल किला भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक बना। १० मई, १८५७ को मेरठ
में क्रांति की शुरुआत हुईं और भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम के सिपाहियों ने अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ़
खुला विद्रोह कर दिया। मेरठ से बढ़ते हुए इन सिपाहियों
ने ११ मई को दिल्ली में प्रवेश किया और अंग्रेज़ों के
छक्के छुड़ाते हुए उन्होंने मुगल साम्राज्य के अंतिम
बादशाह बहादुर शाह द्वितीय (१८३७-१८५८) को हिंदुस्तान
का सम्राट घोषित किया।
इससे अंग्रेज़ी शासन
को बहुत बड़ा धक्का लगा। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता
आंदोलन को कुचलने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी।
स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों की यह विजय अधिक
दिनों तक स्थायी नहीं रह पाई और २१ सितंबर, १८५७ को,
यानी लगभग तीन महीने बाद अंग्रेज़ी ने दिल्ली पर फिर
अधिकार कर लिया। इस संघर्ष में अनेक सिपाहियों को गोली
से उड़ा दिया गया, जितने विद्रोही थे, उन्हें
गिरफ़्तार कर लिया गया। जहाँ से उन्हें मदद मिलती थी,
सबको तहस-नहस कर दिया गया। क्रांति की इस ज्वाला को
दबाने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत ने निर्दोष लोगों को भी
नहीं बख़्शा। हज़ारों स्वतंत्रता सेनानियों को जेलों
में ठूँस दिया गया, उन्हें काला पानी और देश निकाले की
सज़ा दी। सैंकड़ों क्रांतिवीरों को फाँसी पर लटका दिया
गया।
बहादुरशाह ज़फ़र पर मुकदमा
बाद में अंग्रेज़ों
ने लाल किले से दक्षिण की ओर लगभग छह मील दूर हुमायूँ
के मकबरे के पास बहादुरशाह को भी गिरफ़्तार कर लिया।
२२ सितंबर, १८५७ को बहादुर शाह ज़फ़र के दो पुत्रों को
भी मकबरे के पास से ही गिरफ़्तार कर लिया गया और किले
की तरफ़ लाते हुए लेफ्टिनेंट हडसन ने उन्हें खूनी
दरवाज़े के पास गोली से उड़ा दिया।
बहादुर शाह को
गिरफ़्तार करने के बाद उन पर लाल किले में ही जनवरी,
१८५८ में मुकदमा चला। यह मुकदमा भी उसी दीवान-ए-ख़ास
में चलाया गया, जहाँ कभी मुगल शासनकाल में मुकदमे चलते
थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इस नायक पर आरोप
लगाया गया कि उसने अंग्रेज़ी हुकूमत को उखाड़ फेंकने
का षड्यंत्र किया और उस षड्यंत्र की अगुवाई की। बादशाह
के खिलाफ़ लगभग ४० दिन मुकदमा चला और आज़ादी के इस
प्रथम सेनानायक को आजीवन देश निकाले की सज़ा दी गई।
बहादुरशाह को रंगून भेज दिया, जहाँ ७ नवंबर, १८६२ को
तड़के पाँच बजे के करीब स्वतंत्रता संग्राम के इस
प्रथम नायक ने अपनी अंतिम साँसें लेकर जीवन-लीला
समाप्त की। इस प्रकार जिस लाल किले में मुगल वैभव काल
में मुगल सम्राट शाहजहां ने बड़ी शान और आन-बान से
प्रवेश किया था, उसी में लगभग दो साल अंतिम मुगल
बादशाह बहादुर शाह पर मुकदमा चला और उसे देश निकाले की
सज़ा दी गई।
आज़ाद हिंद फौज के सेनानियों पर मुकदमा
एक अन्य मुकदमा भी
अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जो इसी लाल किले पर लगभग ८७
साल बाद चला। सन १९४५ में चले इस मुकदमे का भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन और लाल किले से सलामी शुरू करने में
महत्वपूर्ण योगदान है। इस मुकादमे में प्रमुख अभियुक्त
थे। आज़ाद हिंद फौज के उच्च अधिकारी कैप्टन शाहनवाज़,
कैप्टन पी.के.सहगल और लेफ्टिनेंट जी.एस.ढिल्लन और उन
पर अभियोग यह लगाया गया था कि उन्होंने अंग्रेज़ी
साम्राज्य के खिलाफ़ बग़ावत की थी। जब इन पर मुकदमा
चला, तो सारे राष्ट्र ने एक होकर अंग्रेज़ों का विरोध
किया। मुकदमे की पैरवी में इन स्वतंत्रता सेनानियों की
ओर से नेहरू सहित पूरा राष्ट्र एक हो गया। परिणाम यह
हुआ कि अंग्रेज़ों के खिलाफ़ सारी जनता आंदोलन के लिए
खड़ी हो गई। लिहाज़ा देश की जनता के इस दबाव के आगे
अंग्रेज़ी शासन को झुकना पड़ा और जनमत के ज़बर्दस्त
दबाव को देखते हुए गोरी सरकार ने इस स्वतंत्रता
सेनानियों को मुक्त कर दिया। इस मुकादमे में इन
स्वतंत्रता सेनानियों की रिहाई के बाद देशभर में
विजयोत्सव-सा माहौल बन गया और लाल किला स्वतंत्रता
सेनानियों तथा देश की जनता के बीच स्वाधीनता का
परिचायक बन गया। इसी मुकदमे ने अंग्रेज़ी शासन की
जड़ें हिला दीं और अंततः उसके दो वर्ष बाद ब्रिटिश
सरकार को भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय करना पड़ा।
नेहरू जी के बाद
निरंतर सभी प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से १५
अगस्त की सुबह राष्ट्र ध्वज फहराते हैं और भारत की
जनता को स्मृति दिलाते हैं कि कोई भी राष्ट्र बलिदान
और कुरबानियों के बिना स्वतंत्र नहीं हो सकता। भारत की
आज़ादी का इतिहास शांति और सद्भावना का नहीं रहा।
लगातार रक्त क्रांतियों और यातनाओं के बल पर ही सत्ता
मिल सकी है। अहिंसा हमारा नारा भले रहा हो, .यह पूरा
देश महान हिंसा की विभीषिका से गुज़रा है, इस तथ्य को
अनदेखा नहीं किया जा सकता।
११
अगस्त २००८ |