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संस्मरण

 

संत सिपाही
(कैप्टन अरुण जसरोटिया, अशोक चक्र, सेना मेडल, निशाने पंजाब)
-शशि पाधा


'संत सिपाही', विरोधाभास लगता है न आप सब को, कि हिंसक - अस्त्र-शस्त्रों के साथ शत्रु संहार की शिक्षा-दीक्षा लेने वाला, युद्ध के दाँव पेंच का दिन रात अभ्यास करने वाला सैनिक क्या संत भी हो सकता है? हो सकता है... 'महाभारत' के धर्मराज युधिष्ठिर, भीष्म पितामह,मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने तभी शस्त्र उठाए थे जब शत्रु को नष्ट करने के अलावा उनके पास और कोई विकल्प नहीं था। भगवद् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्"

कैप्टन अरुण जसरोटिया के स्वभाव में भी सेवाभाव, अपने साथियों के प्रति अनन्य प्रेम, माता पिता के लिए अपार श्रद्धा और कर्तव्य के प्रति दृढ़ संकल्प आदि मानवीय गुण कूट- कूट के भरे हुए थे। भारत माँ की रक्षा के लिए शत्रु का संहार करना उनका कर्म था किन्तु अपने निजी जीवन में वे नितांत शांत स्वभाव के स्वामी थे।

मैं उनसे वर्ष १९९५ में हिमाचल प्रदेश में स्थित सैनिक छावनी 'नाहन' में मिली थी। वहाँ पर 'इंडो - अमेरिकन स्पेशल फोर्सिस जॉइंट ट्रेंनिंग' के प्रशिक्षण एवं अभ्यास के लिए शिविर आयोजित था। मेरे पति, जो उस समय कमांडर स्पेशल फोर्सिस के पद पर थे, इस जॉइंट प्रशिक्षण की बागडोर सँभाले हुए थे। अरुण ट्रेनिंग के समय अभ्यास के प्रति इतने तल्लीन रहते कि महाभारत के 'अर्जुन' की स्मृति आ जाती। कुछ ही दिनों में यह कर्मठ योद्धा भारतीय एवं अमेरिकन साथियों का प्रिय मित्र बन गया था। मैं भी एक दो बार उनसे इस शिविर में मिली थी।

जैसा कि पूरा विश्व जानता है कि वर्ष १९८९ में विदेशी चरमपंथियों ने कश्मीर घाटी के अलगाववादी तत्वों के साथ मिल कर प्रकृति की क्रीड़ास्थली, कश्मीर घाटी में इतना आतंक फैलाया कि वहाँ का जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया। इन्होंने सदियों से कश्मीर के निवासी कश्मीरी पंडितों के साथ क्रूर व्यवहार करके, उन्हें डरा-धमका कर अपनी जन्मभूमि को छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। तब से आज तक, भारतीय सेना, सीमा सुरक्षा बल, राजकीय पुलिस और न जाने कितनी सुरक्षा एजेंसियाँ इस घाटी में शान्ति स्थापना और घुसपैठियों को सीमा से बाहर निकालने के महत्वपूर्ण कार्य में संलग्न हैं। इसी भूमि की रक्षा में लगे हुए भारतीय सेना ने न जाने कितने वीर योद्धाओं को खो दिया है। कैप्टन अरुण की पलटन ९ पैरा स्पेशल फोर्सिस भी कई वर्षों से इसी क्षेत्र में आतंकवादियों को नष्ट करने के दुरूह कार्य करने में लगी हुई थी। इसी बीच अरुण इस महत्वपूर्ण शिविर में अभ्यास हेतु आए हुए थे।

मैं जितनी बार भी उनसे मिली, मुझे वो मितभाषी एवं कुछ शर्मीले स्वभाव के लगे हालाँकि उनके दोस्त बताते हैं कि वो बहुत हँसमुख थे। उसी ट्रेनिंग के दौरान उनकी नियुक्ति भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष के चीफ़ सेक्योरिटी ऑफिसर के महत्वपूर्ण पद पर हो गई थी। एक शाम वो हमारे घर आए। औपचारिक बात चीत के बाद अरुण ने मेरे पति से कहा-

"सर, मैं जानता हूँ कि सेनाध्यक्ष की सेक्योरिटी का काम भी बहुत महत्व पूर्ण है, लेकिन मेरी पलटन इस समय कश्मीर घाटी में आतंकवादियों से जूझ रही है। मेरा कर्तव्य है कि मैं इस समय अपनी यूनिट, अपनी टीम और अपने साथियों के साथ युद्धभूमि में ही रहूँ। यही मेरा धर्म है और यही मेरा कर्म है। मैं जानता हूँ कि आपने ही सेनाध्यक्ष को मेरा नाम प्रेषित किया है, इसीलिए आपसे ही आग्रह करता हूँ कि इस पोस्ट के लिए किसी और का नाम भेज दीजिए। मैं इस समय जितनी भी जल्दी हो सके अपनी पलटन के साथ अभियान क्षेत्र में जाना चाहूँगा।” यह कह कर मितभाषी अरुण मौन हो गए।

ऐसे महत्वपूर्ण निर्णायक पलों में मेरी भूमिका तो केवल आतिथ्य सत्कार में लगी सैनिक पत्नी की ही होती थी, फिर भी अरुण की यह बात सुन कर एक बार मैंने बड़ी उत्सुकता से उनकी ओर देखा। मेरे पति उनके इस आग्रह से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उनसे कहा-

"आप जो कह रहे हैं बिलकुल ठीक है, शायद मैं भी ऐसी परिस्थिति में यही करता। मैं कल ही सेनाध्यक्ष के कार्यालय में आपकी यह रिक्वेस्ट पहुँचा दूँगा। आप ट्रेनिंग शिविर के बाद अपनी यूनिट में जाने की तैयारी रखिए।"

अपने पाठकों के लिए मैं इस बात का विशेष उल्लेख करना चाहूँगी कि उस समय अरुण के सामने उनका सैनिक धर्म ही चरम लक्ष्य था और वो इससे परे नहीं जाना चाहते थे। सेनाध्यक्ष के सेक्योरिटी अफसर की ड्यूटी में उनके दो वर्ष शांतिमय वातावरण में बीतने थे, किन्तु धन्य हैं ऐसे संकल्प निष्ठ योद्धा जिनके लिए कर्म ही सर्वोपरि है और कर्मभूमि ही निवास स्थल। आज इस मुलाक़ात का महत्व इसीलिए भी अधिक है कि जब भी अरुण के विषय में सोचती हूँ तो यह भी ध्यान आता है कि यह हमारी उनसे आखिरी मुलाकात बन गयी। भाग्य और विधना कैसे-कैसे अपनी दिशाएँ बदलती जाते हैं। यहाँ एक बार फिर कहावत चरितार्थ होती है कि ‘होनी को कोई नहीं टाल सकता।’

यह बात जुलाई के अंत की है, अरुण शिविर की समाप्ति के बाद अपनी पलटन जो कि उस समय कश्मीर घाटी के विभिन्न क्षेत्रों में विदेशी आतंकवादियों एवं गुमराह हुए देसी चरमपंथियों के साथ युद्धरत थी, में चले गए। अरुण एवं उनकी कमांडो टीम ने जिस 'लोलाब घाटी' को विदेशी आतंकवादियों के घृणित इरादों से बचाया, उसके विषय में भी मैं अपने पाठकों को कुछ जानकारी देना चाहूँगी।

वैसे तो पूरा कश्मीर क्षेत्र ही प्राकृतिक सौंदर्य की अनुपम निधि है किन्तु इसमें स्थित 'लोलाब घाटी' का सौन्दर्य सदियों से ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। भौगोलिक एवं प्राकृतिक दृष्टि से यह एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ की पहाड़ियों में 'पाइन' और 'फर' जाति के वृक्षों के सघन जंगल हैं। इस सुन्दर घाटी को जम्मू कश्मीर का “फ्रूट बोल” के नाम से जाना जाता है क्यों कि यहाँ पर सेब, चेरी, अखरोट और पीच आदि विभिन्न प्रकार के फलों के वृक्ष भी हैं।

खैर, असीम प्राकृतिक सौन्दर्य और स्वादिष्ट फल की अपार संपदा वाले इस क्षेत्र में विदेशी चरमपंथियों ने घुसपैठ करके अपने छिपने के ठिकाने बना रखे थे ताकि, समय-समय पर यहाँ की शान्ति भंग कर सकें और धीरे-धीरे कश्मीर घाटी में आतंक फैला सकें। सामरिक दृष्टि से इस क्षेत्र में छिपे आतंकवादियों के ठिकानों को नष्ट करना उस समय भारतीय सेना का मुख्य लक्ष्य था। उसी लोलाब घाटी के घने जंगलों में शत्रु को परास्त करते और अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए अरुण ने अपने जीवन का महाबलिदान किया।

विश्वस्त सूत्रों से भारतीय सेना को यह सूचना मिली थी कि इस पर्वतीय स्थान के घने जंगलों में लगभग २० चरमपंथी छिपे हुए थे। सेना की ९ पैरा (स्पेशल फोर्सिस) को इन चरमपंथियों के ठिकानों को नष्ट करने का आदेश मिला। १५ सितम्बर के दिन कैप्टन अरुण जसरोटिया ने अपनी टीम के साथ लोलाब घाटी की ओर प्रस्थान किया। दुश्मन की टोह लेते हुए, बड़ी सूझबूझ के साथ कमांडो ट्रेनिंग का एक महत्व पूर्ण दाँव पेच 'stealth and surprise' को पूर्णरूप से चरितार्थ करते हुए, अरुण अपनी टीम के साथ उनके छिपने के स्थान के पास पहुँच गए।

बिना समय गँवाए अरुण और उनकी टीम ने दुश्मन के ठिकाने के आस-पास घेरा डाल दिया और चुपके से दुश्मन की ओर बढ़ना शुरू किया। भारतीय सेना की बहादुर कमांडो टीम को सामने देख कर सतके में आए शत्रु ने अपने बचाव के लिए इनकी टीम पर रॉकेट और रायफल से गोले दागने आरम्भ दिए। अपने साथियों को आगे बढ़ने का निर्देश देते हुए अरुण स्वयं रेंगते हुए सीधे शत्रु के सामने पहुँच गए। स्थिति की सूक्ष्मता को परखते हुए उन्होंने शत्रु पर हैण्ड ग्रनेड दागने शुरू किए जिससे बहुत से चरमपंथी घायल हो गए। ऐसे में उनकी टीम के अन्य साथियों को आगे बढ़ कर शत्रु पर वार करने में सफलता मिली।

इस कार्यवाई में दुश्मन के कई लोग मारे गए। इस गुत्थम-गुत्था मुठभेड़ में अरुण बुरी तरह घायल हो गए थे। गोलियों के घाव से उनके शरीर से रक्तस्राव हो रहा था किन्तु अपने घावों की चिंता न ना करते हुए,अपने जवानों का नेतृत्व करते हुए वे स्वयं बाकी बचे आतंकवादियों पर प्रहार करते रहे। इनकी टीम के सदस्यों ने इन्हें घायल देख कर सुरक्षित स्थान पर ले जाना चाहा किन्तु यह अंत तक दुश्मन को पूर्णत: समाप्त करने के अपने ध्येय में जी जान से जुटे रहे।

लक्ष्य की पूर्ति हो चुकी थी। सामने परास्त शत्रु के शव थे, लेकिन उस अँधेरे में भी अचानक अरुण ने एक बचे हुए आतंकवादी को अपनी टीम की ओर आते देखा। इन्होंने घायल अवस्था में अनुपम साहस और शौर्य से उस बचे हुए आतंकवादी पर अपने कमांडो डैगर (एक प्रकार का चाकू जो प्रत्येक कमांडो के अस्त्र सहस्रों अस्त्र का एक आवश्यक भाग है) से प्रहार करके उसे मार गिराया। अब वहाँ कोई शत्रु नहीं था केवल भारतीय सेना की ९ पैरा स्पेशल फोर्सिस के बहादुर जवानों की विजयी टुकड़ी थी। जवानों को अपने अभियान की पूर्ति पर गर्व था किन्तु उनका नेतृत्व करने वाले नेता के बुरी तरह से घायल होने का अपार दुःख था।

एक युद्ध का अंत हुआ था किन्तु, जीवन का मृत्यु के साथ महायुद्ध आरम्भ हो गया था। अभियान की समाप्ति के तुरंत बाद समय को नष्ट न करते हुए अरुण को कश्मीर के सैनिक हॉस्पिटल में पहुँचा दिया गया। वहाँ कुशल डाक्टरों ने उन्हें बचाने के अथक प्रयत्न किये, किन्तु गहरे घावों के कारण वे इस वीर योद्धा को बचा न सके। भारत माँ ने एक और वीर सदा सदा के लिए खो दिया।

कैप्टन अरुण की वीरता, त्याग, संकल्प और बलिदान के सामने कोई भी सम्मान पुरस्कार पर्याप्त नहीं है। ऐसी वीर गाथाएँ तो इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाती हैं। पूरा राष्ट्र उनके सामने नतमस्तक था। इनके महाबलिदान को सम्मान देते हुए कृतज्ञ राष्ट्र के राष्ट्रपति ने कैप्टन अरुण को वीरता के सर्वोच्च मेडल "अशोक चक्र" से सम्मानित किया। जब इस मेडल को इनके पिता कर्नल प्रभात सिंह जसरोटिया ने राष्ट्रपति से ग्रहण किया तो इनकी यूनिट ९ पैरा स्पेशल फोर्सेस, इनका परिवार और इनके मित्र, सभी का हृदय गर्व से गद्गद हो गया। उसी वर्ष गणतंत्र दिवस पर कश्मीर घाटी में चरमपंथियों के साथ जूझते हुए अनुपम पराक्रम दर्शाने वाले परमवीरों की शूरवीरता से कृतज्ञ हुए राष्ट्रपति ने भारतीय सेना की पलटन ९ पैरा स्पेशल फोर्सेस को "ब्रेवेस्ट ऑफ द ब्रेव" के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया।

गत वर्ष जब हम ९ पैरा कमांडो यूनिट के सदस्यों से मिलने गए तो मुख्य ऑफिस के ठीक सामने स्थापित कैप्टन अरुण जसरोटिया, कैप्टन सुधीर वालिया और नायक संजोग क्षत्री की कांस्य मूर्तियों को देख कर हमारा हृदय श्रद्धा और गौरव से भर गया। यह त्रिमूर्ति हर कमांडो को, हर सैनिक को युगों-युगों तक इन वीरों के अदम्य साहस और बलिदान की गाथा सुना कर प्रेरित करती रहेगी। इस त्रिमूर्ति में से कैप्टन सुधीर वालिया, अशोक चक्र, भी कश्मीर घाटी में ही शत्रु के साथ युद्ध करते हुए शहीद हुए थे। तीसरी मूर्ति नायक संजोग क्षत्री की है जो आज भी भारतीय सेना में सेवारत होकर सेना का गौरव बढ़ा रहे हैं। हमारे परिवार को इस बात का गर्व है कि मेरे पति ने भी इसी बहादुर पलटन के पराक्रमी सेनानियों के साथ मिल कर वर्ष १९७१ में पाकिस्तानी सेना को हराया था।

अरुण के परिवार से मिलने की मेरी तीव्र इच्छा थी किन्तु समयाभाव या परिस्थति वश मैं उनसे मिल नहीं पाई। मेरे पास उनसे सम्पर्क करने का एक ही माध्यम था, टेलीफोन। अत: एक शाम मैंने टेलीफोन के द्वारा अरुण के पिता जी के साथ संपर्क स्थापित किया।

अभिवादन, औपचारिक बातों के बाद मैंने उनसे कहा-
"अरुण के सैनिक जीवन के विषय में तो मैं बहुत कुछ जानती हूँ। पुणे के नेशनल डिफेन्स एकैडमि के सभागार में भी उनके चित्र के सामने खड़े हो कर श्रद्धांजलि दे कर आई हूँ। पलटन के में मेस के मुख्य कक्ष में उनकी तस्वीर उनकी वीरता और बलिदान की गाथा दोहराती है। कुछ बातें ऐसी होंगी जो केवल आप ही हम सब के साथ साझा कर सकते हैं। क्या बचपन से ही वो इतने बहादुर थे?"

अपने वीर पुत्र के २७ वर्ष के जीवन की अनगिनत स्मृतियाँ थीं उनके पास। शायद यादों की उसी पिटारी को खोलते हुए उन्होंने कहा- "मैम, अरुण बचपन से ही बड़ी सूझवाला, निर्भीक और बहादुर था। उसे अपनी माता से अनन्य स्नेह था। बस अपना अधिक समय वो उनके साथ ही व्यतीत करता था। एक बार उनकी माँ बिजली के कूलर में पानी चेक कर रहीं थी तो उसी से चिपट गईं। इन्होंने अपनी माँ की भयभीत आवाज़ें सुनीं और बड़े साहस के साथ माँ का हाथ खींचना शुरू किया। तीन बार इन्हें बिजली का झटका लगा और यह दूर छिटक गए। आखिरकार चौथी बार यह अपनी माँ को उस आघात से बचाने में सफल हो गए। उस समय यह कक्षा ५ के छात्र थे। छोटी सी आयु में भी इन्होने धैर्य और साहस का प्रमाण दे दिया था।”

यह सुनकर मन में विचार आया कि जन्म देने वाली माँ और जन्मभूमि भारत माँ का यह वीर सुपुत्र इसी भावना के साथ अंत तक अपने कर्तव्य का पालन करता रहा। एक बार विधि ने इन्हें प्राणदान दे दिया किन्तु दूसरी बार उसने भी हार मान ली।

मैंने उनसे हिमाचल प्रदेश में हुए इंडो-अमेरिकन जॉइंट ट्रेनिंग के अवसर पर अरुण के अपने ध्येय के प्रति पूरे मनोयोग से समर्पित होने की बात की। उन्हें यह भी बताया कि वे भारतीय तथा अमेरिकन सैनिकों के प्रिय सदस्य थे तथा हर अवसर पर दूसरों की सहायता के लिए तत्पर रहते थे। परसेवा की उनकी भावना की बात सुनते ही उनके पिता ने मुझे एक और घटना के विषय में बताया।

अरुण एक बार कोचीन से 'अंडर वाटर डाइविंग' के शिविर से वापिस अपनी पलटन में लौट रहे थे। मार्ग में रेलवे ट्रैक पर भयंकर बम विस्फोट हो गया। इन्होंने बहुत से घायल यात्रियों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया और स्थानीय रेलवे तथा सिविल एडमिनिस्ट्रेशन की सहायता में घंटों लगे रहे।

यह सुन कर मैंने मन में सोचा, 'करते भी क्यों नहीं। सैनिक का कर्तव्य केवल सीमाओं पर शत्रु के साथ युद्ध करना ही नहीं है। शान्ति के समय देशवासियों की रक्षा, सहायता और सेवा करने का पाठ तो प्रत्येक सैनिक को ट्रेनिंग के समय जन्म घुट्टी की तरह पिलाया जाता है।

अपने बहादुर पुत्र को याद करते हुए वे कहने लगे, "बहुत डिसिप्लिन था उसमें, कभी नियम नहीं तोड़ सकता था वो। एक बार किसी कोर्स के बाद अपनी यूनिट उधमपुर वापिस लौट रहा था। रास्ते में ही हमारा घर पड़ता था। बस रेलवे स्टेशन से फोन किया कि मैं वापिस जा रहा हूँ। सुन कर माँ थोड़ी विचलित हो गईं। भावुक होकर फोन पर ही कहने लगीं, "बेटा, स्टेशन यहाँ से दो मील की दूरी पर है, हमसे मिल लेता, अगली ट्रेन से चला जाता।"

अरुण ने बस यही कहा, "मम्मी, एक बार यूनिट को बता दिया है कि मैं सीधा ही आ रहा हूँ, उन्हें बिना बताए नहीं आ सकता। जल्दी ही छुट्टी पर आऊँगा।"
थोड़ी देर के मौन के बाद कहने लगे- "ऐसा था हमारा बेटा, अपने नियमों का पक्का”।

उस समय टेलीफोन से भी मुझे एक पिता के अपने पुत्र के प्रति गर्व के स्वर सुनाई दे रहे थे। मेरी चुप्पी को भाँपते हुए कहने लगे, "He was a terror to the terrorist. वर्ष १९९१-१९९२ में भी यह कश्मीर क्षेत्र में अनेक आतंकवादियों के साथ जूझता रहा। इसने कई आतंकवादियों को मौत के घाट उतारा था। यह उनकी 'हिट लिस्ट' में था। उस समय के अभियानों में अरुण की बहादुरी को देखते हुए उन्हें 'सेना मेडल' से सम्मानित किया गया था।"

इस शूरवीर की ना जाने कितनी ऐसी कहानियाँ होंगी जो हमें अभी तक पता नहीं थीं। मैंने उनसे पूछा- "आपके परिवार में तो उनकी बहादुरी की बातें बार - बार दोहराई जाती होंगी। इनसे प्रेरित होकर क्या कोई और युवा सेना में भर्ती होने को इच्छुक है?"
बिना विलम्ब के बड़े जोश पूर्ण स्वर में बोले- "मैम, मेरा पोता अमन सिंह केवल १७ वर्ष का है किन्तु वो भी अपने चाचा की तरह सेना में ही जाना चाहता है।" मैं जानती हूँ यह जोश, यह संकल्प, यह भावना। मेरे परिवार से भी तीन पीढियाँ सेना में ही कार्यरत हैं।

भारत का गौरवमय इतिहास साक्षी है कि किस प्रकार समय समय पर सैनिकों ने भारत की अखंडता और अक्षुण्यता बनाये रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है। उनके बलिदान का ऋण तो किसी भी प्रकार से चुकाया नहीं जा सकता। प्रश्न यह है कि क्या भारत की जनता, सरकार उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए कुछ विशेष कार्य करती है? मैं ऐसे भी परिवारों से मिल चुकी हूँ जिनकी पूछताछ केवल शहीदी दिवस पर ही होती है।
इसी प्रश्न को दोहराते हुए मैंने कर्नल जसरोटिया से पूछा- "अरुण की स्मृतियाँ तो सदैव आपके पास हैं। आपका नगर या कोई संस्था कुछ ऐसा विशेष कार्य कर रहे हैं जिसके द्वारा आने वाली पीढ़ी भी प्रेरित हो?"

बड़े गर्व और धैर्य से उत्तर देते हुए उन्होंने बताया- "वर्ष २००१ में हमारे परिवार ने अरुण के नाम से 'शहीद कैप्टन अरुण जसरोटिया ट्रस्ट' की स्थापना की थी। हर वर्ष उनके बलिदान दिवस, २६ सितम्बर को हमारे नगर सुजानपुर में 'शहीदी दिवस' मनाया जाता है। इस दिन इस क्षेत्र के अन्य शहीदों के परिवारों को भी आमंत्रित किया जाता है। उस समारोह में सभी शहीदों को सामूहिक रूप से श्रद्धांजलि दी जाती है। निर्धन परिवारों की सहायता के लिए उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ भेंट की जाती हैं। स्कूल के बच्चों को यूनीफॉर्म तथा पाठ्य पुस्तकें भेंट की जाती हैं। पढ़ाई में विशेष स्थान पाने वाले बच्चों को पुस्तकें या खेल सामग्री पुरस्कार के रूप में दी जाती है।"

बड़े संतोष सिक्त शब्दों में वो कहने लगे- "मैम, बड़ा भव्य आयोजन होता है। स्कूल के बच्चे उस दिन देश भक्ति से ओतप्रोत सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हैं। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद प्रीति भोज होता है। शहीद परिवार अन्य लोगों से अपना सुख-दुख बाँटते हैं। लगभग २००० लोग उस दिन एक स्थान पर एकत्रित होते हैं।"
वे उस शहीदी मेले का रोमांचक विवरण दे रहे थे और मैं मन ही मन बचपन में पढ़ी एक रचना दोहरा रही थी-

"कभी वो दिन भी आएगा, कि आज़ाद हम होंगे ये अपनी ही ज़मी होगी, आसमाँ अपना होगा
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले वतन पर मिटने वालों का बाकी यही निशाँ होगा"

अब तक मैं गर्व एवं कृतज्ञता की भावना के गहरे समंदर में पूरी तरह डूब चुकी थी। भाव विह्वल हो कर मैंने उनसे केवल यही कहा, "ऐसे आयोजन किसी भी देश प्रेमी को भारत माँ की ऱक्षा के लिए सदैव प्रेरित एवं प्रोत्साहित करते रहेंगे। आज सीमाओं पर भारत की जो स्थिति है, उसे ध्यान में रखते हुए आने वाली पीढ़ी के लिए ऐसी वीरगाथाएँ उनके जीवन में प्रकाश स्तम्भ की तरह उनका पथ प्रशस्त करती रहेंगी। जो देश अपने वीरों के बलिदानों को याद रखता है, शत्रु उससे सदैव भयभीत रहेगा।"

मैंने फिरोज़पुर छावनी में शहीद भगतसिंह की समाधि पर कई बार अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाए हैं। ऐसे पावन स्थल पर खड़े होकर हृदय में जो गौरव की भावना का संचार होता है, उसे शब्दों में लिखना कठिन है। मैंने समाचार पत्र में यह भी पढ़ा था कि वर्ष १९९९ में पंजाब सरकार ने उन्हें ‘निशाने खालसा’ के सम्मान से विभूषित किया था। मैंने उनसे पूछा-
"आपके नगर में उनके नाम से कोई विशेष स्मृति स्थल बनाया गया है?"
उनके पिता को इस बात से संतोष था कि पंजाब राज्य ने कैप्टन अरुण जसरोटिया के बलिदान की चिरस्मृति में बहुत सराहनीय कार्य किया है।

इस विषय में बात करते हुए वो कहने लगे, "अरुण की जन्मस्थली सुजानपुर में दो स्कूलों को उनका नाम दिया गया है, शहर की मुख्य सड़क तथा पठानकोट को मामून छावनी से जोड़ने वाली सड़क भी अब उनके नाम से सुशोभित है। छावनी के एक आवासीय परिसर (नार्थ कालोनी) को भी अरुण का नाम दे दिया गया है। पठानकोट नगर को शेष भारत से जोड़ने वाले राज मार्ग पर अरुण के नाम पर निर्मित एक भव्य प्रवेश द्वार है जिस पर अमिट अक्षरों से 'कैप्टन अरुण जसरोटिया प्रवेश द्वार' लिखा हुआ है।"

इन सब स्मृति स्थलों के देखते हुए श्रद्धा की भावना तो उमड़ती ही है पर, यह भी आभास होता है कि अरुण जैसे योद्धा प्रत्यक्ष रूप से हमारे सामने नहीं हैं किन्तु उनकी वीरता, पराक्रम और देश रक्षा की भावना उन्हें युगों युगों तक अमर रखेगी। उन्होंने अपना 'आज' हमारे 'कल' के लिए न्योछावर कर दिया, हमें अपने आज को पीढ़ी दर पीढ़ी उनके जैसा बनने के लिए प्रेरित करना है।

विजय पथ, राज मार्ग, विजय चौक, शहीद अरुण जसरोटिया मार्ग, अमर शहीदों की पुण्य स्मृति में और न जाने कितने मार्ग होंगे हमारे देश में। आज उनके बलिदान को नमन करते हुए मैं यही सोच रही हूँ कि भारत माँ ऐसे साहसी सपूतों के निस्पृह मन में केवल एक ही इच्छा होती होगी जिसे महा कवि माखन लाल चतुर्वेदी ने अपनी कालजयी रचना में शब्दबद्ध किया है-

"मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जाएँ वीर अनेक"

 

१५ जनवरी २०१६

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