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दृश्य, पटकथा, पात्र- एक संस्मरण
शशि पाधा
मेरे माता पिता का घर
मेरे मध्यवर्गीय माता पिता का घर। प्रत्येक वस्तु अपने
स्थान पर करीने से लगी हुई। छोटा सा आँगन,
गुलाब-गेंदा, चम्पा, हरसिंगार आदि सभी मोहक फूलों से
शोभित छोटी सी बगिया, तुलसी का चौबारा, धूप-दीप तथा
फूलों से सुगन्धित ठाकुरद्वारा, शयन कक्ष की अलमारी
में साहित्यिक पुस्तकें सजी हुईं। यानी पूरा का पूरा
घर साफ़ सुथरा। पिता कहते थे स्वच्छ घर में लक्ष्मी का
निवास होता है। वैसे माता-पिता दोनों शिक्षक थे। अत:
लक्ष्मी से अधिक सरस्वती का निवास ही था हमारा घर।
महीने में एक बार तो किसी न किसी सांस्कृतिक संध्या का
आयोजन भी होता था जिसमें अन्य प्रान्तों से पधारे हुए
रेडियो कलाकार आमंत्रित होते थे। गाना-बजाना, काव्य
पाठ, साहित्यिक चर्चा से हमारा छोटा सा घर सदैव
खुशियों से भरा रहता था।
(दृश्य एक ) कुछ वर्षों के बाद
अवकाश प्राप्त माता- पिता का शयन कक्ष। चारपाइयों के
दोनों ओर की तिपाइयों पर बहुत सारी पुस्तकें
-पत्रिकाएँ, बिना खोल के दो-दो चश्में (एक दूर का, एक
पास का), पानी पीने का चाँदी का गिलास तथा ताँबे का
पानी भरा लोटा। दोनों का अपना-अपना दवाइयों का
प्लास्टिक का डिब्बा। पिता जी की तरफ खिड़की की सिल पर
पंचांग, कल्याण के नये पुराने अंक, पत्र लिखने के लिये
के उनके नाम का पैड, कलम, गांधी जी के सिद्धांतों के
अनुसार छोटी-छोटी पेंसिलें, ऊनी टोपी, जुराबें हाथ-
पाँव पोंछने के लिये छोटा सा तौलिया, चश्में के खोल,
कुछ नये पुराने पोस्ट कार्ड आदि-आदि न जाने कितनी छोटी
मोटी चीज़ें। माता जी की चारपाई के पीछे की सिल के ऊपर
बिस्तर गर्म करने के लिये रबर की बोतल, छोटा सा
ट्राँसिस्टर, कुछ भजनों की कैसटें। शरतचन्द्र,
वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यास, धर्मयुग–साप्ताहिक
हिन्दोस्तान के नए-पुराने अंक, एक छोटा सा पर्स जिसमें
यहाँ-वहाँ देने के लिये कुछ पैसे, हाथ पाँव मे दर्द के
लिये लगाने वाली कोई टयूब, आदि -आदि- आदि न जाने कितनी
चीज़ें। यानी उनका सारा वैभव, सारा संसार, सारी
अवश्यकताएँ सिमट कर उनकी चारपाइयों के इर्द-गिर्द समा
गईं। कभी कभी मुझे इतना सामान देख कर खीज आती थी तो
धैर्य की मूर्ति मेरे पिता मन्द-मन्द मुस्कुरा कर कहते
"यहीं रहने दो सब, सुविधा रहती है, किसी को आवाज़ नहीं
देनी पड़ती"। मैं चुप रहती। वैसे भी मैं साल में एक- आध
बार ही तो उनसे मिलने जाती थी, क्या फ़र्क पड़ता था।
३५ वर्षों के बाद
अत्यन्त रोमांचक, शौर्य पूर्ण कार्यों से भरा पूरा
जीवन जीने के बाद अब मेरे सैनिक अधिकारी पति रिटायर्ड
हो गए हैं। बड़े-विशाल सरकारी सुसज्जित भवनों (जिनके
साथ अति सुन्दर बाग-बगीचा भी होता था) में ही हमारा
अधिकांश जीवन बीता। उन घरों की सफ़ाई तथा देख रेख के
लिये हमारे साथ बहुत से सहायक रहते थे। यानी घर की सुई
के लिये भी निश्चित स्थान। सारा घर सजा-सजाया, साफ़
सुथरा। लेकिन दोनों बच्चे दूर विदेश में थे। हर स्थान
पर उन विशाल भवनों में उनकी कमी खटकती थी। अत: अवकाश
प्राप्ति के बाद हम अपने बच्चों के साथ अमेरिका में
रहने के लिये आ गए हैं। भरा पूरा परिवार है, बड़ा सा घर
भी है। सारी सुख सुविधाएँ हैं। किन्तु कुछ है जो नहीं
है। भारती संगीत, भारतीय साहित्य, बिना सूचना दिए
मित्रों के घर जा पहुँचना आदि–आदि कितनी ही चीज़ें हमें
यहाँ नहीं मिलतीं। फिर भी आ गए गए हैं तो यहाँ के
वातावरण में अपने को पूरी तरह से ढालने का पूरा–पूरा
प्रयत्न है।
(दृश्य २ कुछ और वर्षों बाद)
हमारे शयन कक्ष में क्वीन साइज़ बेड के पास नाइट स्टैंड
पर एक एक टेबल लैम्प, दोनों की मेज पर दो-दो चश्में
(खोल के बिना) नीचे के खुले दराज़ों में मेरी तरफ़ एक
छोटी डिब्बिया जिसमें में रात को सोने से पहले अँगूठी
कान के टाप्स आदि रखती हूँ, पीठ दर्द के लिये लगाने
वाली दवाई की टयूब, फोन का चार्जर, टिशु पेपर का रोल,
मेरी पूर्ण-अपूर्ण रचनाओं की डायरियाँ, कुछ नई पुरानी
हिन्दी की पत्र पत्रिकाएँ। लिखने के पैड, पेन-पेंसिलें
आदि-आदि-आदि न जाने छोटी-मोटी कितनी चीज़ें। एक छोटी
मेज पर छोटा सा सी.डी सिस्टम जिसके साथ ही रखी रहती
हैं गुलज़ार, फ़रीदा खानम, आशा भोंसले, मुकेश, जगजीत आदि
की मशहूर सीडी का संग्रह आदि।
मेरे पति की मेज पर दो चश्में (एक पास का, एक दूर का)
हाथ की घड़ी, टेलीफोन के नम्बरों की डायरी। नीचे खुली
दराज़ के एक खाने में दवाइयों का प्लास्टिक का डिब्बा,
चश्मों के खोल पेन, और वालेट, पानी की बोतल। दूसरे
खाने में हाथ-पाँव पोंछने का तौलिया ( क्योंकि पेपर
टावल रखना उन्हें पर्यावरण के सिद्धान्तों के विरुद्ध
लगता है) , एट्लस, कुछ नक्शे, कुछ नए पुराने बिल। पास
ही छोटी टेबुल पर लैप टाप, अमेरिका की पत्रिकाएँ,
विश्व के प्रसिद्ध सैनानियों की जीवनियाँ, योग ध्यान
की पुस्तकें आदि दिनचर्या की न जानें कितनी चीज़ें।
काम करते करते जब भी मुझे समय मिलता है मैं हर चीज़ झाड़
पोंछ कर करीने से अपनी -अपनी जगह रख देती हूँ। लेकिन
धीरे-धीरे सब छूटता जा रहा है। बहुत कोशिश के बाद भी
कमरा अस्त-व्यस्त ही लगता है। अब जब भी कभी रात को
अपने कमरे में सोने के लिए आती हूँ तो सोचती हूँ “वही
दृश्य, वही पटकथा, बदले हैं तो केवल पात्र”।
२१
मई
२०१२ |