समकालीन कहानियों में भारत से
राजीव तनेजा की हास्य-कथा
छई छप्पा छई
“सुनो…
“हूँ... ऊँ…
“अरे! हूँ... के आगे भी तो कुछ बोलो ना।"
"सुनो…मैं कह रही थी कि इस बार वैलेंटाइन का तो रह गया। कम से
कम अब ही ले चलो।"
"कहाँ?"
"गोवा?”
"होली पे भला गोवा कौन जाता है?” मेरे स्वर में असमंजस था।
"कौन जाता है से मतलब? सारी दुनिया जाती है।“
“गोवा?”
“हूँ......वहाँ समुद्र किनारे छपाक से छई..छप्पा..छई करने में
बहुत मज़ा आएगा।“
“छोड़ो...हमें नहीं जाना गोवा...कहीं और चलेंगे।“
“क्यूँ?...गोवा क्यूँ नहीं?”
“बस...ऐसे ही।“
“कोई दिक्क़त?”
“दिक्क़त तो है? हर जगह कोरोना वायरस फैला हुआ है। नहीं फैला है
क्या?“
आगे...
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डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का व्यंग्य
होली
पर अमृत वर्षा
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दीपिका ध्यानी घिल्डियाल का
संस्मरण- पहाड़ पर
वसंत
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रघुवीर सहाय का
आलेख- होली का दिन
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शिल्प कोना में बच्चों के लिये
कागज से
बनाएँ होलिका और प्रह्लाद
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