रसिया ना माने हो मोरी
अँखियों में डाले गुलाल या-
गोरी बाँह मरोरी मोरी मोतियन की लर तोरी
जइसे सौदागर घोडा को पाले
हाथ लिए बागडोरी...
बइसे गोरी जोबनवाँ के पाले
मात-पिता की चोरी... गोरी बाँह मरोरी... से हो जाता है
आगाज फागुन का जो शिवरात्रि आते-आते परवान चढ जाता है
कइसे के शिव के मनाई हो शिव मानत नाहीं
पूडी मिठाई शिव के मनही न भावे
भांग-धतूरा कहाँ पाई हो
शिव मानत नाहीं।
फिर तो रंग जाता है
तन-मन दोनों फागुनी माहौल में। गुनगुनाती, आम्र मंजरी
के मादक गंध में सनी फागुनी बयार उन्मुक्त होकर
वातावरण को मदहोश कर देती है। विरहन को कोयल और पपीहे
की आवाज व्याकुल कर देती है। साजन कब घर आएँगे। लम्बे
रास्ते को दरवाज़े की ओट से निहारती प्रतीक्षारत
आँखें, उनमें फागुनी सपने, कुछ प्रश्न, कुछ उत्तर और न
जाने क्या.. क्या..।
इधर चौपाल में पतरू
चाचा ऊँचे स्वर में ललकारते इस साल का फागुन क्या इसी
तरह बीत जाएगा? न गवनई, न भंग का तरंग, न अभी तक
रंग... सब कुछ सूना-सूना। इन्हें याद आता है अपनी
जवानी का दिन।
जब वे नौजवान थे, प्रात:काल कुल्ला दतुवन से निपटकर,
खेतों की तरफ़ जाते, कचरी (चने का पौधा) उखाड़कर होरहा
भूनते, कचरस (गन्ने का रस) पीते, होरहा खाते। कटोरी
में भांग भिंगोकर रख देते। दोपहर के आराम के बाद शाम
को भांग सिल पर तब तक पीसते जब तक सील और लोढा आपस में
चिपक न जाएँ। ठंडई के साथ भांग छानकर चौपाल में
पहुँचते, जब सुरसुरी चढ़ती तो ऊँची आवाज़ में ज़ोर
लगाकर गाते: होली खेले रघुबीरा अवध में- ...सभी लोग
उनका साथ देते। फिर गवनई रघुबीरा से फिसलकर होली के
गीत गोरी के आँख, कलाई, कमर, कलकत्ता, दिल्ली चोली आदि
तक पहुँच जाता है...
सदा अनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेलें होरी पर जाकर
समाप्त हो जाती।
यह क्रम पूरे फागुन
भर चलता। दरवाज़े-दरवाज़े घूम-घूमकर गवनई, लौंडों की
नाच, कुछ अश्लील संवाद इत्यादि का मिला-जुला स्वर देर
रात तक माहौल में तैरता रहता था। भौजाइयों की तो ख़ैर
नहीं थी, वे चाहे जिस भी वय की हों। पाँच साल के
देवरों से लेकर साठ साल तक के देवरों के फागुनी मज़ाक
का लक्ष्य बनती और उनका अंग-प्रत्यंग, क्रियायें,
फागुनी वाक्यांशों के तीर का शिकार बन जाते या जाती
थीं और पतरू को इससे मानसिक संतोष मिलता। फागुनी अतीत
के पन्नों को उलटने पर मुझे धुंधली-सी याद आती है कि
माई (माँ) बिगड़ पड़ी थी एक दिन शाम को। कहने लगी- कब
तक खेलता रहेगा। चल बुकवा (उबटन) लगवाकर झिल्ली छुडवा
ले, और पाँच ठो गोईठा (उपले) पर रखकर सम्मत में डाल आ।
मैंने माई से बाल-सुलभ चेष्टा में पूछा कि- यह सम्मत
क्या होता है? तो उन्होंने होलिका और प्रह्लाद की पूरी
कथा सुना दी, जिसका प्रभाव मेरे बाल सुलभ मन पर पडा था
और उसके बाद होली के अध्यात्म एवं उसके पवित्रता का भी
स्वरूप मेरे सम्मुख खड़ा था। मैं मन-ही-मन सोच रहा था
कि, जब यह इतना पवित्र त्योहार है तो इसमें अश्लीलता
और उन्मुक्तता का समावेश कब और कैसे हुआ? यह प्रश्न आज
तक मेरे लिए अनुत्तरित है। पतरू चाचा से पूछा कि होली
का क्या महत्व है? तो वह हो-हो करके हँसने लगे। महत्व
हो तो महत्व बताएँ। महत्व यह है कि भंग-तरंग, चंग,
रंग, अंग... और वे खामोश हो गए।
बहुत कुरेदने पर
उन्होंने व्याख्या की- फागुन में पहले भंग पियो। भंग
पीने पर तरंग उठेगी। जब तरंग उठेगी तो अपने आप चंग
बजने लगेगी और जब चंग बजाकर हाथ थक जाएँगे तब रंग
लगाने का मन करने लगेगा काहे कि बिना रंग के होली
कैसी? और जब रंग लगाने का मन करेगा तो अंग की आवश्यकता
पड़ेगी फिर खुल करके ऊपर से नीचे तक आवश्यकतानुसार
किसी भी अंग पर रंग लेपन कर स्पर्श सुख प्राप्त करना
ही होली का महत्व है।
मैंने मन ही मन उनकी
व्याख्या का विश्लेषण करना आरंभ किया तो ब्रज के
लट्ठमार होली की याद आ गई कि अंग स्पर्श सुख प्राप्ति
हेतु होली में लाठी खाने में भी गुनाह नहीं है। नहीं
तो मर्द, मर्द से लाठी अगर खा ले तो मामला सरकारी
न्यायालय में पहुँचकर दुश्मनी में बदल जाता है। लेकिन
होली में यदि किसी कमनीय बाला से लाठी खा ले तो मामला
दिल के न्यायालय में चला जाता है और लाठी खाने वाला
दुश्मनी नहीं प्यार के सपने देखने और बुनने लगता है।
तभी तो लोग कहते हैं कि होली प्रेम का त्योहार है।
जहाँ तक प्रेम परवान
चढ़ने की बात है अगर हाथों में रंग या गुलाल हो तो गाल
छूने का सर्वप्रथम सुख तो मिल ही जाता है। यदि
ना-नुकुर नहीं हुई तो स्पर्श सुख आगे न जाने कहाँ-कहाँ
तक पहुँच जाए। यह रंग-गुलाल लगाने और लगवाने वाले की
प्रतिभा पर निर्भर करता है।
होलिका या सम्मत
जलाने की प्रक्रिया भी खूब है। मैंने आरंभ से ही चर्चा
किया था। बसंत-पंचमी को जो फागुनी चादर बिछती है तो
उसकी लंबाई सम्मत जलाने तक फैली रहती है। बसंत-पंचमी
को रेंड (एक तरह का तैलीय पौधा) का पेड़ गाड़ते हैं।
फिर सम्मत जलने तक उसमें लकड़ी, उपले, जलने वाले अन्य
पदार्थ पड़ते रहते हैं। सम्मत की आकार वृद्धि होती
रहती है। हद तो तब हो जाती है, जब दूसरों के घर के
दरवाजे, घरन, चऊकी, खटिया तक सम्मत में डाल दिया जाता
है। लोग असहाय जलते हुए अपने सामानों को, अपने ही
आँखों के सामने देखते रह जाते हैं। क्यों कि परंपरा है
कि सम्मत में जो पड जाए उसे निकालने से पाप चढ़ता है।
बस विवशता और बेचारगी हमें उस पाप से बचाती है।
एक कर्कश स्वर जो
शायद ललऊ पिताजी का रहा होगा कि- ई मटिलगना बहियां
मरोरलस-कइसे के पिसूं हरदिया। और मेरे पग अनायास उसी
ओर बढ़ते हैं कि अंधेरे में एक जोड़ी चमकती हुई आँख
अचानक मुझे अपनी बांहों में भरकर उठा लेती है और ज़ोर
से चिल्ला उठती है जीयऽऽ! राजा होली है। और मेरा जेहन,
सोच का स्तर देशी ठर्रे के दुर्गध से नहा उठता है।
मैं सोचने लगा कि अभी
६-७ ही महीने तो हुए हैं मेरी पत्नी को मुझसे बिछड़े
हुए जो फागुन तो क्या किसी भी त्योहार को मेरे लिए
अधूरा छोड गई... यह वाक्यांश कि- बिना बीबी ज़िंदगी
बेकार है इस फागुन में यह मुझे नश्तर-सा चीर गया और
मैं फागुन को गरियाते हुए सोने का उपक्रम करने लगता
हूँ... लेकिन नींद कहाँ।
९ मार्च
२००९ |