“सुनो…
“हूँ... ऊँ…
“क्या हूँ... ऊँ…?”
“अरे! हूँ... के आगे भी तो कुछ बोलो ना।"
"सुनो…मैं कह रही थी कि इस बार वैलेंटाइन का तो रह गया। कम से
कम अब ही ले चलो।"
"कहाँ?"
"कहाँ के लिए उस दिन मैं कह रही थी?”
"गोवा?”
"हूँ...
"होली पे भला गोवा कौन जाता है?” मेरे स्वर में असमंजस था।
"कौन जाता है से मतलब? सारी दुनिया जाती है।“
“गोवा?”
“हूँ......वहाँ समुद्र किनारे छपाक से छई..छप्पा..छई करने में
बहुत मज़ा आएगा।“
“छोड़ो...हमें नहीं जाना गोवा...कहीं और चलेंगे।“
“क्यूँ?...गोवा क्यूँ नहीं?”
“बस...ऐसे ही।“
“कोई दिक्क़त?”
“दिक्क़त तो है? हर जगह कोरोना वायरस फैला हुआ है। नहीं फैला है
क्या?“
“हुंह!... तुमने कह दिया और हो गया? गोवा में कौन सा केस हुआ
कोरोना का?”
“नहीं हुआ है तो जबतक पहुँचेंगे हो जाएगा। ऐसे में जाना ठीक
नहीं है। त्यौहार ही तो मनाना है...अपना..यही घर बैठ के ही
होली मना के ऐश कर लेते हैं। जैसे जैसे हर साल करते हैं। अगर
वृंदावन चलना हो तो बोलो... वहीं करेंगे छई.. छप्पा.. छई, मैं
कुछ प्लान बनाता हूँ।“
"हुंह!... वृंदावन में कोरोना न होगा क्या?
"हाँ कृष्ण भगवान से सब राक्षस डरते
हैं।"
"हा हा हा इतने धार्मिक कब से हो गए
बीवी मुँह बिचकाने की मुद्रा अपनाते हुए बोली।"
“यह सब धार्मिक नहीं, स्वास्थ्य और अर्थशास्त्र की भी बात है।
खुद ही तो उस दिन अपनी बहन के गुण गा गा सुना रही थी कि उसकी
सहेली ने वृंदावन में होटल लिया है लीज़ पर।" मेरा मुस्कुराना
जारी था।
"तो?... उससे क्या होता है? कौन सा उसने खुद लिया है कि किराया
नहीं देना पड़ेगा।" हाथ नचा बीवी ने मुँह बना ही लिया।
"हुंह!... तुम तो हमेशा फ्री के चक्कर में रहा करो। फ्री
बिजली, पानी और बस क्या मिली...सबके मचलते अरमानों पे झाड़ू फेर
दिया?” मुझे गुस्सा आने को हुआ।
"अरे!... वोट दिया उसको तो जीता भी तो वही। तुमने तो खामख्वाह
उस मिरासी के चक्कर में आ, अपना वोट बेकार कर दिया।" खिखिला कर
हँसती हुई बीवी बोली।
“तो?”
"अच्छा!... चलो छोड़ो...हमें इससे क्या? बस तुम इस उस के चक्कर
में मेरी होली ना खराब कर देना।" बीवी ने हथियार डालने का
उपक्रम किया।
"अच्छा!... चलो देखते हैं कि क्या करना है...तुम एक काम करो...
"क्या?"
"फटाफट गरमागरम चाय बना के लाओ। तब तक मैं इस बारे में सोचता
हूँ।"
"ठीक है... जितना मर्ज़ी सोच लो मगर याद रखना जाना तो हमें गोवा
ही है।"
"अच्छा बाबा...पहले तुम जाओ तो सही।" बीवी के कंधे पकड़ मैं उसे
किचन की तरफ ठेलता हुआ बोला
"अरे!... धक्का क्यों दे रहे हो?...जा तो रही हूँ। वैसे...जाना
तो हमें गोवा ही है।" बीवी हँसती हुई बोली।
“अच्छा...और सुनो...चाय के साथ अगर हो सके तो कुछ खाने के लिए
भी लेती आना।“ मैं रिक्वेस्ट करता हुआ बोला।
“पता है बाबा...पता है, बिना कुछ साथ में लिए खाली चाय
तुम्हारे गले से नीचे नहीं उतरती है।" शरारती मुस्कान बीवी के
चेहरे पर तैर रही थी।
“हाँ!...ये बात तो है।" मैं ख़ुशी से चहकता हुआ बोला।
“मैं पहले ही बेसन घोल के आई हूँ..पनीर पकोड़े बना रही
हूँ..खाओगे?” बीवी का मुस्कुराना जारी था।
“नेकी और पूछ पूछ?” मेरा संक्षिप जवाब।
बीवी तो रसोई में चली गयी लेकिन मैं सोच में डूब गया कि
आख़िर...माजरा क्या है? बात सर के ऊपर से निकली जा रही थी कि
जिस बीवी को पहले कभी मैं फूटी आँख नहीं सुहाया, वही आजकल दिन
रात मुझ पर मेहरबान हुए जा रही थी। दिमाग के घोड़े हर तरफ
दौड़ाने के बाद भी इस सब का कोई वाजिब कारण मुझे दिखाई नहीं दे
रहा था। वो बार बार किसी ना किसी बहाने से गोवा जाने की ज़िद कर
रही थी और मैं?...मैं तो किसी भी कीमत पर वहाँ जाना नहीं चाहता
था । ना चाहते हुए भी मन पुरानी यादों की तरफ जाता जा रहा था।
यही कोई दो-चार साल पहले की ही तो बात थी । गोवा की कहानियाँ
यारों दोस्तों में कोरोना वायरस की तरह फैल रही थीं। उन बातों
को सुनकर कौन न वहाँ जाना चाहता मगर हर बार तो किसी ना किसी
वजह से मिस हो जाता था। मैंने सोच लिया था कि इस बार नहीं।
बीवी इन दिनों मायके गयी हुई थी। सोचा कि इस बार तो कोई कसर
नहीं छोड़नी है। पर एक डर बार बार न जाने कहाँ से आ टपका कि अगर
कहीं...भगवान ना करे..किसी भी तरह से बीवी को पता चल गया तो
मेरा क्या होगा? मैं तो कहीं का नहीं रहूँगा। क्या सोचेगी भला
कि मैं उसकी अनुपस्थिति में आवारागर्दी करने चला गया। लेकिन एक
दोस्त ने सहारा दिया-
“अरे!...यार तू चिंता क्यों करता है? किसी को कानों कान भी खबर
नहीं होगी। मैं हूँ ना, तुम बस दिल खोल के खर्चा किए जाओ ।
बाकी सब मुझ पर छोड़ दो कि क्या..कब और कैसे सब का सब मैनेज
करना है ।“
“मगर....
“अरे!...अगर मगर को मारो गोली...वहाँ एक से एक टॉप की आइटम
हैं। तेरी ऐश न हुई तो मेरा नाम भी बन्ने खां भोपाली नहीं।“
बायीं आँख दबा वो मुस्कुराता हुआ बोला।
अब दिन रात...सोते जागते मैं गोवा के हसीं नज़ारों में डूबा
वहाँ जाने के बारे में ही बस सोच रहा था...
हर समय सपनों और ख़्वाबों में मुझे बस वहाँ के समुद्र तट पर
बिकिनी पहनी हुई लड़कियाँ ही नज़र आ रही थी। मेरे ज़हन में उन
दिनों कोई चिंता परेशान नहीं कर रही थी। आने जाने की टिकट,
होटल-रिसोर्ट..कैब वगैरह की बुकिंग..सब पहले ही हो चुकी थी। दो
दिन बाद दोपहर की फ्लाईट से हमें निकलना था कि अचानक पता चला
कि पुलिस की रेड में मेरा वो दोस्त ड्रग सप्लाई करते हुए रंगे
हाथ पकड़ा गया। सब के सब ख्वाब पूरे होने से पहले एक ही झटके
में टूट के बिखर चुके थे।
टिकट और होटल के पैसे अगर जा ना चुके होते तो शायद मुझे अपना
जाना कैंसिल करना पड़ता मगर मजबूरी का नाम अगर महात्मा गांधी है
तो फिर वही सही। किसी तरह झूठ-मूठ के ज़रूरी काम का बहाना बना
मैंने फ्लाईट पकड़ी और जा पहुँचा सीधा गोवा। गोवा माने...जन्नत।
यहाँ किसी को किसी का कोई डर नही । जहाँ मर्ज़ी..जैसे मर्जी
घूमो फिरो..कोई देखने सुनने वाला...कोई रोकने टोकने वाला नहीं।
वहाँ पहुँचते ही मैं भी वहीं के रंग में रंग चुका था। इधर उधर
पूछ पाछ के पता लगाया तो पता चला कि अब वो पहले जैसी सब कुछ
खुले-खुले वाली बात नहीं है और नए सख्त नियमों के चलते आजकल
वहाँ पर काफ़ी दिक्क़त है। सो!...कुछ भी खुलेआम नहीं।
ऐश करने के नियम मुझे पता नहीं थे... सोचने लगा सब मेरी ही
ग़लती है...मुझे अकेले आना ही नहीं चाहिए था। खामख्वाह सब के सब
पैसे बरबाद हो गए...अपने घर से बढ़ कर कोई और दूजा सुख नहीं।
लेकिन फिर इस तरह के तमाम वाहियात ख्यालों को मैंने अपने मन
में आने नहीं दिया और ठान लिया कि कुछ भी हो जाए, यहाँ से खाली
हाथ तो लौटना ही नहीं है।
अपने दिन पर दिन बड़े होते बुजुर्गों से भी कई बार सुना था
कि...
“अगर एक रास्ता बंद होता है तो ऊपरवाला मंजिल तक पहुँचने के सौ
नए रास्ते खोल देता है।“
यही सोचकर मैं समुंदर की सैर को निकल गया।
यह बात उस वक्त मुझे सच होती लगी जब ‘कैलिंगूट बीच’ पर मुझे
स्विम सूट में लहराती...बल खाती तीन हब्शी लडकियाँ दिखाई दीं,
जो मुस्कुरा कर मुझे बुला रही थीं। मुझे लगा कि मेरी किस्मत का
एक नहीं बल्कि तीन दरवाजे खुल गए हैं। मैं उनके पास जा खड़ा
हुआ। उस वक्त वो तीनों सबके साथ हँस हँस के फोटो खिंचवा रही
थी। टूटी फूटी अंग्रेजी में मैंने भी उनसे फोटो खिंचवाने की
रिक्वेस्ट की तो उन्होंने कॉफ़ी विद बर्गर खिलाने की शर्त पर
ख़ुशी ख़ुशी हामी भर ली। हामी क्या भर दी...कुछ ना कुछ फरमाइश कर
के समझो मेरी जेब ही खाली कर दी। मगर खाली जेब की किस कंबख्त
को चिंता थी? मैं तो इसी बात से खुश हुए जा रहा था कि मेरी
तमाम आशंकाओं के बावजूद बिना किसी नानुकर के वो तीनों झट से
मेरी मित्र बन गयीं। ये तो वही बात हुई कि...बिन माँगे मोती
मिले...माँगे मिले ना भीख। अब ये तो पता नहीं कि ये मेरी
डैशिंग पर्सनैलिटी का कमाल था या फिर मेरी भरी हुई जेब का।
खैर!...कुछ भी हो जब बिना किसी हील हुज्जत के मनचाही मुराद
पूरी हो रही हो तो वैसे भी जेब का मुँह नहीं ताकना चाहिए। ये
भी मैंने अपने उन्हीं बुजुर्गों से सुना था जिनसे पहले वाली
बात सुनी थी।
मैंने बस सीधे सीधे ऊपरवाले का शुक्र मनाया कि...
“हे!...ऊपरवाले...तेरी लीला अपरंपार है।“ बातों बातों में डिनर
के दौरान चल रही आपसी छेड़छाड़ और हँसी मज़ाक के बीच मैंने उन्हें
होली के बारे में बताया कि किस तरह इस त्यौहार में एक दूसरे को
पकड़ पकड़ के यहाँ वहाँ..हर जगह गुदगुदी करते हुए भांग और दारु
की मस्ती के बीच रंग लगा...छई..छप्पा..छई किया जाता है। फिर
क्या जनाब? उन्होंने तो उसी वक्त जिद पकड़ ली कि उन्हें भी मेरे
साथ छई..छप्पा..छई करते हुए होली खेलनी है। अब अंधा क्या चाहे,
बस..दो ही आँखें ना? मगर मुझे तो यहाँ छह- छह आँखें मिल रही
थी, वो भी अलग-अलग नहीं बल्कि एक साथ। तो मैं भला कैसे और
क्यों इनकार कर देता?
होली में मगर अभी दो दिन बाकी थे तो सोचा कि क्यों ना इस बीच
के समय का सदुपयोग करते हुए पूरा गोवा एकसाथ घूमा जाए? उनके इस
सुझाव पर तो मेरी बाँछों ने खिलना ही था, सो..बिना किसी नानुकर
के तुरंत ही खिल उठीं। अगले दिन हिप्पियों के स्वर्ग याने के
‘अंजुना बीच’ पर चलने की बात फाइनल हुई और सुबह ९ बजे तैयार
रहने का मुझसे वादा ले वो तीनों अपने होटल चली गयी।
अब वो चली तो गयी मगर यहाँ मेरी यहाँ नींद गायब, पूरी रात बस
कभी इस करवट लेटता तो कभी उस करवट पलटता। घड़ी-घड़ी रह रह कर घड़ी
देखता कि अभी कितनी देर है सुबह होने में मगर रात कंबख्त थी कि
बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी। पता नहीं कब तक जागता
रहा..रात के दो-अढाई तो मेरे ख्याल से बज ही गए होंगे । सुबह
भी जल्दी ही आँख खुल गयी मगर कंबख्त इंतज़ार की घड़ियाँ इतनी
लंबी थी कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। खैर!...किसी
तरीके से राम-राम करते हुए ठीक ९ बजे वो तीनों आ पहुँची। एक
बात की तो खैर दाद देनी ही पड़ेगी कि तीनों समय की बड़ी पाबन्द
थी । उनके हिसाब से टाइम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट जो था।
ब्रेकफास्ट के दौरान पता चला कि उनमें से एक की तबियत उस दिन
ठीक नहीं थी, सो...नाश्ते के बाद उसने साथ चलने से इनकार कर
दिया कि वो शाम को ही हमारा साथ दे पाएगी। फिलहाल उसने मेरे
कमरे में ही आराम करने की इच्छा जताई। अब इसमें मुझे भला क्या
ऐतराज़ हो सकता था? दो तो मेरे साथ जा ही रही थी, और फिर इसी
बहाने थोड़ा उसे और थोड़ा मुझे भी स्टेमिना गेन करने का मौका मिल
जाता। हम सबने एक साथ होली जो खेलनी थी। उसे होटल में आराम
करने की कह हम तीनों चल दिए अपनी मंज़िल याने के ‘अंजुना बीच’
की ओर। वहाँ पहुँचते ही समझो मेरी तो निकल पड़ी जब मैंने देखा
कि ड्रैस चेंज कर वो सीधा बिकिनी पहने छपाक से पानी में कूद
पड़ीं और इशारे कर हँसती हुई मुझे अपने पास बुलाने लगीं।
मैं भी कौन सा कम था? झट से छलांग लगा उनके पीछे हो लिया मगर
ये क्या?...बुरा हो इस कंबख्तमारी यादाश्त का। अब भला पानी में
टाईट जींस पहन के कौन कंबख्त नहाता है? वो भी तब, जब साथ की
सुंदरियाँ बिकिनी में छपाक से छई...छप्पा..छई करने को उतारू
हों। हद होती है यार नासमझी की भी, अब बीच पे भजन कीर्तन तो
करना नहीं था...साथ में उनके नहाना ही था ना? मगर हाय री मेरी
किस्मत...स्साली यहाँ भी दगा दे गयी। दिल के सब अरमां आँसुओं
में बहने को आतुर हुए ही थे कि उम्मीद की एक किरण दिखाई दी।
वहीं किनारे पर नज़दीक ही रंग-बिरंगे कास्ट्यूम बिक रहे थे। जा
पहुँचा सीधा वहीं। शायद...मेरा चेहरा पढ़ लिया था पट्ठे ने। तभी
उसने हर एक के उल्टे-सीधे दाम बताए मगर मैं भी कहाँ पीछे हटने
वाला था? पकड़ा दिए चुपचाप...और चारा भी क्या था मेरे पास?
अकेला होता तो चलो आदत से मजबूर हो कर थोड़ी बहुत सौदेबाजी तो
मैं कर ही लेता मगर यहाँ?...यहाँ तो मेरा एक एक मिनट...एक एक
पल कीमती था और सबसे बड़ी बात कि लड़कियों के सामने बारगेनिंग
जैसी छिछोरी हरकत करने से तो अच्छा है कि बंदा जहाँ कहीं थोड़ा
ढंग का साफ़ पानी देखे, वहीं टुब्बी मार...डूब के मर जाए। वैसे
भी उस वक्त मेरा मरने का (वो भी डूब कर) कोई इरादा नहीं था।
खुला निमंत्रण पा मैंने भी आव देखा ना ताव..झट से तौलिया लपेट,
कपड़े बदले और ये जा और वो जा...छपाक।
छपाक की आवाज़ के साथ ही पर्र...र्र र्र र्र की एक तीखी सी आवाज़
हुई और देखा तो पाया कि..बस्स...हो गया काम। दाहिनी तरफ से
निक्कर जवाब दे अपने हाथ..ऊप्स!...सॉरी...पाएंचा खड़ा कर चुकी
थी। कच्ची सिलाई के चक्कर में कास्ट्यूम वाले को सौ सौ गालियाँ
देने के अलावा और कुछ मैं कर नहीं पाया कि उस वक्त मैं अपने
शहर दिल्ली में नहीं बल्कि गोवा में था। खैर!...इस तरह के छोटे
मोटे हादसे तो आजकल हर एक की लाइफ में होते ही रहते हैं।
सो...बिना परवाह किए दाहिने हाथ से निक्कर थाम मैं उनके पास जा
पहुँचा। मज़े अभी आने ही शुरू हुए थे कि दूसरी तरफ से भी निक्कर
ने हाथ धो के जवाब दे दिया कि...
“भय्या अब मेरे बस का नहीं...अपनी इज्ज़त अब आप खुद ही संभालो।“
मरता क्या ना करता? मजबूरन मुझे उनसे कुछ दूर जाना पड़ा क्योंकि
मैं ये भली भाँति जानता था कि सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी
लेकिन कोई ग़म नहीं कि कुछ दिन पहले ही मैंने हाई इंडैक्स का
फ्रेमलैस चश्मा बनवाया था। सो!...दूर से भी सब कुछ साफ़ साफ़
दिखाई दे रहा था और राज़ की बात ये कि ऐसी काम की दिलचस्प चीज़ें
तो मैं घुप्प अँधेरे में भी बिना किसी मुश्किल के टाल टटोल कर
खोज लिया करता था। यहाँ तो खैर ऊपरवाले की दया से खूब करारी
धूप खिली हुई थी।
अजीब सी उस वक्त हालत हो रही थी मेरी। बाहर से तो ठंड लग रही
थी मगर भीतर ही भीतर मैं गर्मी से परेशान था। बुरा हो इस
कंबख्तमारी निक्कर का...इसे भी आज ही जवाब देना था।
उफ्फ...दोनो हाथों से निक्कर पकड़े पकड़े कितना थक चुका था मैं।
जिस हाथ को ज़रा सा भी आराम देने की सोचूँ...निक्कर फट से
स्प्रिंग माफिक ऊपर उठ...हिचकोले ले तैरने लगे। !...हाथ फिर
वापिस..वहीं का वहीं अपनी पुरानी तयशुदा पोज़ीशन पर। ज़्यादा तो
नहीं मगर हाँ...थोड़ी बहुत तसल्ली तो अब भी थी कि कुछ कर नहीं
पा रहा तो क्या? आँखें तो फिर भी मगर जैसे तैसे सिंक ही रही
हैं। भागते चोर को सही सलामत अगर लंगोटी भी मिल जाए तो वो
उसमें भी संतोष कर लेता है।
अभी ठीक से मैं आँखें सेंक भी नहीं पाया था कि एक बावली को
जाने क्या सूझी कि उसने खेल खेल में हाथ में पकड़ी बॉल मेरी तरफ
उछाल दी। अब मैं ठहरा अपनी गली की क्रिकेट टीम का माना हुआ
वर्ल्ड फेमस विकेट कीपर...ऐसे कैसे आसानी से कैच छोड़ देता?
मैंने झट से उछल के कलाबाज़ी सी खाने का उपक्रम किया और बॉल
सीधा मेरे हाथों...कैच आउट। मगर इस उछलकूद के दौरान
चर्र...पर्र..र्र..र्र..र्रर्र की सी आवाज़ के साथ मुझे अशांत
करता हुआ सब कुछ शांत हो चुका था।
बीच मंझधार में मुझे अकेला छोड़ते हुए निक्कर ने अपने
हाथ..ऊप्स!...सॉरी...पाएंचे हर तरफ से खड़े कर दिए थे। अब वो
निक्कर कम..माइक्रो स्कर्ट ज़्यादा दिखाई दे रही थी। सही कहा है
किसी नेक बंदे ने कि मुसीबत कभी अकेले नहीं आती..आठ-दस को
हमेशा अपने साथ लाती है। दरअसल...हुआ क्या कि अब इस निक्कर
ऊप्स!...सॉरी..स्कर्ट के नीचे तो हमेशा की तरह मैंने कुछ पहना
नहीं था। अब दिक्क़त ये आई कि जैसी ही पानी में मैं ज़रा सा भी
आगे बढूँ, कंबख्तमारी खुदबखुद तैर के ऊपर आ जाए और नीचे...अब
अपने मुँह से मैं कैसे कहूँ ?...अच्छा बुरा जैसा भी था..सब का
सब मुँह फाड़ पानी से बातें करने लगे।
अब जानबूझ कर या फिर अनजाने में ऊपर से नीचे तक भीगी दोनो
लड़कियाँ मुझे इशारे कर कर अपनी तरफ बुला रही थी और मेरे पास
उन्हें बस दूर से ताकते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
अभी सोच ही रहा था कि क्या करूँ और क्या ना करूँ कि अचानक
शरारती मुस्कान लिए वो दोनो बाहें फैलाए मेरी तरफ बढ़ने लगीं।
ओह!...कहीं मेरी हालत का अन्दाज़ा तो नही हो गया था उन्हें?
अपनी तरफ उन्हें आता देख पहले मैं कुछ शरमाया फिर कुछ सकुचाया
और उसके बाद घबराते हुए सरपट किनारे की तरफ भाग लिया मगर
हैं?...ये क्या?...बाहर पहुँचते ही ज़ोर का झटका...ज़ोर से ही
लगा। देखा तो कपड़े-लत्ते, मोबाइल, पर्स सब ऐसे गायब जैसे गधे
के सिर से सींग। न जाने कौन उन पर हाथ साफ़ नौ दो ग्यारह हो
चुका था।
पीछे मुड़ के देखा दोनो हँसती खिलखिलाती हुई मेरी ही तरफ आ रही
थी। उनकी क्या...किसी की भी परवाह ना करता हुआ मैं गिरता पड़ता
सीधा भाग लिया अपने होटल की तरफ, मगर मुसीबतों का खेल अगर इतने
से ही ख़त्म हो जाता तो क्या बात थी? कमरे पर पहुँचते ही एक
झटका और लगा। वो कल्लो मेरे सब कीमती सामान पे झाड़ू फेर वहाँ
से खिसक चुकी थी। अब ना मेरे पास कैश था, ना ही किसी किस्म के
कपड़े लत्ते। दोनो डेबिट और क्रैडिट कार्ड भी नदारद थे और
ड्रैसिंग टेबल के शीशे पर सुर्ख लाल लिपस्टिक से अंग्रेजी में
लिखा ‘होली मुबारक’ मुझे चिढ़ा रहा था।
मोबाईल तो मेरा वहीं...’अंजुना बीच’ पर ही कपड़ों समेत गायब हो
चुका था। लड़कियों के मोबाईल नंबर चूँकि मुझे मुँह ज़बानी रटे
रहते हैं इसलिए उनको कांटेक्ट करना मेरे लिए दिक्क़त की बात
नहीं थी । अखबार अखबूर लपेट के जैसे तैसे मैं कमरे से बाहर
निकला और बड़ी हील हुज्जत के बाद किसी के मोबाइल से उनका नंबर
डायल करने में जब सफ़ल हुआ तो स्विच्ड ऑफ की आवाज़ मानों मुझे ही
चिढ़ाने के लिए बज रही थी। कंबख्त तीनों की मिलीभगत थी इसमें ।
जी तो कर रहा था कि अभी के अभी कहीं से रिवाल्वर मिल जाए तो
दाग दूँ पूरी की पूरी छह की छह इनके सीने में।
मैं लुटा पिटा चेहरा लिए उस घड़ी को कोस रहा था जब मुझे गोवा जा
के होली मनाने की सूझी। बड़ी मुश्किल से होटल वालों से बहुत कुछ
कह कहवा के पीछा छूटा। फिर कभी गोवा ना जाने का प्रण ले, इधर
उधर से माँग मूँग के एक ट्रक वाले से अपनी सारी कहानी सुनाने
के एवज में दिल्ली तक की लिफ्ट मिली। तब का दिन है और अब का
दिन है...मैंने कभी गोवा जाने का नाम नहीं लिया मगर अब...अब
बीवी अड़ के खड़ी हो गयी है कि इस बार होली पर गोवा घूमने जाना
है। चाय पकोड़े बस बन कर आने ही वाले हैं। अब आप ही बताइए कि
क्या उन खतरनाक यादों के शहर में मैं सहज रूप से जा सकूँगा? |