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वसंत मेरे द्वार
-विद्या निवास मिश्र
लोगों ने सुना, फागुन आ गया है। फागुन आया
है तो वसन्त भी आया होगा, फूलों के नए पल्लवों का ऋतु-चक्र मुड़ा होगा।
पर सिवाय इसके कि कुछ पेड़ों की पत्तियाँ बड़ी निर्मोही हो गई हैं अपनी
डाल पर रुकती नहीं, पेड़ की छाया तक भी नहीं रुकती, भागती चली जाती है,
और कोई संकेत यहाँ बड़े शहर में फागुन का या वसन्त का मिलता नहीं। क्या
निर्मोहीपन को ही वसन्त मान कर वसन्त का स्वागत करें या इसे कोसें, फिर
तुम आ गए। तुम आते हो कितना कुछ गवाँ देना पड़ता है, पास से और कुछ भी
हाथ में हासिल नहीं आता। राग की ऋतु हो, कितना विराग दे जाती हो, अपने
आप से। ब्रजभाषा के किसी कवि ने ऐसा ही प्रश्न किया थाः
झूरि से कौन लये बन बाग,
कौने जु आंयन की हरि भाई।
कोयल काहें कराहित है बन,
कौन धौं, कौन ने रारि मचाई।।
कौनधौं कैसी किसोर बयारि बहै,
कौन धौं कौन ने माहुर जाई।
हाय न कोऊ तलास करै,
या पलासन कौन ने आगि लगाई।।
यह क्या हुआ है, किसने बन बाग झुलसा दिये सब नंगे ठाठरी-ठाठरी रह गए,
किसने आमों की हरियाली हर ली। किसने यह उपद्रव किया कि ’बन बन‘ कोयल
कराहती रहती है। कैसी तो जाने मारू हवा बही, किसने इसमें जहर घोल
दिया। कोई तलाश करने को भी तैयार नहीं कि किसने ढाक बनों में आग लगाई?
इन अनेक उत्पातों के पीछे कोई छिपी शक्ति काम कर रही है, उसी का नाम
वसन्त है। लोग इसे मदन महीप का उत्पाती बालक बताते हैं, बाप से एक सौ
प्रतिशत ज्यादा ही उत्पाती। पर मदन तो काम का देवता है, मन के देवता
चन्द्रमा का मित्र है। वह क्यों इतना उन्मन करता है। चाह पैदा करने का
मतलब यह तो नहीं तो चाहने वाला मन ही न रहे।
इस वसन्त से बड़ी खीझ होती है, इतना सारा दुःख चारों ओर, दरिद्रता चारों
ओर, दरिद्रता बाहर से अधिक भीतर की दरिद्रता का ऐसा पसारा है, इन सबके
बीच क्यों एक अप्राप्य सुख की लालसा जगाने आता है। क्या वसन्त कोई
विदूषक है, पुराने विदूषकों का नाम वसन्त इसीलिए हुआ करता था? क्या
वसन्त कोई कापालिक है, लाल लाल गुरियों की माला पहने, हाथ में कपाल लिए
आता है, कन्धे पर एक लाल झोली लटकी रहती है, उसी में नए फूल, नए पल्लव,
नई प्रतिमा, नई चाह, नई उमंग सब बटोर कर चला जाता है। फिर साल भर बाद
ही लौटता है, कुछ भी लौटता नही, बस बरबस सम्मोहन ऐसा फैलाता है कि सब
लुटा देता है। फूल और रस वह लाल लाल आँखें लिए अट्ठहास करता चला जाता
है? या वसन्त यह सब कुछ नहीं, निहायत नादान सा शरारती छोकरा है, जिसे
कोई विवेक नहीं, किसी के सुख दुख की परवाह नहीं खेल खेल में जाने कितने
घर बन और कितने बन घर करता हुआ निकल जाता है। धूलि भरी आँधियों के
बगूलों के बगूलों के बीच से किधर और कब कोई नहीं जानता?
या वसन्त कुछ नहीं विश्व की विश्व में
आहुति जिस आग में पड़ती हैं, उसका ईंधन है सूखी लकड़ी है, तनिक भर में
धधक उठती है, बस एक चिनगारी की लहक चाहिए, तनिक सी ऊष्मा कहीं से मिले,
निर्धूम आग धधक उठती है, समष्टि की आकांक्षा को ग्रसने के लिए लपलपाती
हुई। वसन्त केवल उपकरण है, उसमें कुछ अपना कर्तृत्व नहीं। मैं तब सोचता
हूँ। शायद यह सब कुछ नहीं, केवल छलावा है मन का भ्रम है, कोई
वास्तविकता नहीं। पत्तों के झरने से फूलों के खिलने से वसन्त का कोई
सरोकार नहीं, ये सब पौधे के पेड़ के धर्म हैं वसन्त कोई ऋतु भी नहीं है,
गीली है या सूखी। मौसम खुला है या बादलों से घिरा है। वसन्त यह कहाँ से
आ गया? कवियों का वहम है और कुछ नहीं। यह वहम ही लोगों के दिमाग में
इतनी सहस्त्राब्दियों से चढ़ गया कि इतना बड़ा झूठ सचाई बन गया है और हम
वसन्त से खीझते हैं, पर उसकी प्रतीक्षा भी करते हैं। मानुष मन चैन के
लिए मिला नहीं, अकारण किसी भी मधुर संगीत से, किसी भी आकर्षक दृश्य से
खींचकर वह कहाँ से कहाँ चला जाता है, आधी रात कोयल की विहृल पुकार पर
वह सेज से उठ जाता है, अमराइयों में अदृश्य के साथ अभिसार के लिए निकल
पड़ता है।
जाने संस्कृतियों ने कितने मोड़ बदले,
मनुष्य जाने कहाँ से कहाँ पहुंचा, मन आदिम का आदिम रह गया, वह एक साथ
फुलसुंघनी चिड़िया, बिजली की कौंध, तितली की फुरकन, गुलाब की चिटक,
स्मृति की चुभन, दखिनैया की विरस बयार, कोयल की आकुल कुहक, सुबह की
अलसाई सिहरन, दिन का चढ़ता ताप, नए पल्लवों की कोमल लाली, पलास की दहक,
सेमल के ऊपर अटके हुए सुग्मों के नरौश्मय निर्गमन, यह सब है और इसके
अलावा भी अनिर्वचनीय कुछ है। वह सदा किशोर रहता है, इसीलिए वह इतना
अतर्क्य बना रहता है। यह वसन्त निगोड़ा उसी मन से कुछ साँठगाँठ किए हुए
है। इसीलिए सारी परिस्थितियाँ एक तरफ और वसन्त का आगमन एक तरफ वसन्त से
मेरा तात्पर्य एक दुर्निवार उत्कंठा से है। जो सब कुछ के बावजूद मनुष्य
के मन में कहीं दुबकी रहती है, यकायक उदग्र हो उठती है, कहाँ से सन्देश
आता है, कौन बुलाता है, कोई नहीं जानता। कौन बसन्ती रास के लिए वेणु
बजाता है, उसका भी कुछ पता नहीं।
सब कुछ तो अगम्य है। इस अगम्य अव्यक्त से
यकायक एक दिन या ठीक कहें एक रात कोयल कुहक उठती है और मन सुधियों के
जंगल में चला जाता है। इस जंगल में कितनी तो अव्यक्त इच्छाओं के नए
उकसे पत्र कुड्मल हैं कितने संकोच के कारण वचनों के सम्पुटित कर्ले हैं
कितनी अकारण प्रतीक्षा के दूभर क्षणों की सहमी वातास है कितनी भर आँख न
देख पाने वाली अधखुली आँखों की लालसा की लाल डोरियाँ हैं और कितना
सबकुछ देने की उन्मादी चाँदनी का लुटना है। हाँ, इस जंगल में अमराई की
आधार भी है, जगह जगह मधुक्खियों की भिनभिनाहट भी हैं, बँसवारियों की
छोर भी है, जाने कितने खुले एकान्त भी हैं। इस जंगल में निकल जाएँ तो
फिर मन किसी को कहीं का नहीं रखता न घर का न वन का। यह मन केवल विराग
का राग बन कर फैलना चाहता है, कभी फैल पाता है कभी नहीं।
यह मन चिन्ता नहीं करता कि हमें फल का रस
मिलेगा या नहीं। वह फूल के रस का चाहक है। बाउल गीतों में मिलता है कि
फल का रस लेकर हम क्या करेंगे। हमें मुक्ति नहीं चाहिए। हमें रसिकता
चाहिए। रस दूसरों के लिए होता है न। हमें वह पराया अपना चाहिए। अपने का
अपना होना क्यों होना है पराए का अपना होना होना है। पराया भी कैसा जो
परायों का भी पराया है, परात्पर है। उसका अपना होने के लिए सब निजत्व
लुटा देना है, सब गन्ध रूप रस गान लुटा न्यौछावर कर देना है।
बसन्त आता है तो अनचाहे यह सब स्मरण आ जाता
है और एक बार और बसन्त को कोसता हूँ। बन्धु तुम क्यों आए अब तो मुझे
चैन से रहने दो घरूपन, अब क्यों अपनी तरह बनजारा बनाने के लिए आ जाते
हो। अब मधुबन जाकर क्या करूँगा। मधुवन है ही कहाँ? क्यों रेतीले ढूहों
में भटकने के लिए उन्मन करते हो? मैं क्या इतना अभिशप्त हूँ कि वसन्त
मेरे दरवाजे पर दस्तक दे देता है। मुझे उसकी प्रतीक्षा भी तो नहीं, यह
सोचता हूँ तो लगता है यह मेरे उन संस्कारों का अभिशाप है, जो विनाशलीला
के बीच अँधियारे सागर में बिना सूर्य के निकले सृष्टि का एक कमल नाल
उकसा देता है। उसमें से स्रष्टा निकल पड़ते हैं। वसन्त स्वयं भी संहार
में सृष्टि है। निहंगपन में समृद्धि का आगमन है, अनमनेपन में राग का
अंकुरण है, जड़ता में ऊष्मा का संचार है। इसी से उसके दो रूप हैं-मधु और
माधव। फागुन मधु है, मधु तो क्या, मधु के आस्वाद की लालसा है और माधव
लालसाओं का उतार है।
चैत पूरा का पूरा ऐसे माधव की बिरह व्यथा
है जो माधव को मथुरा में चैन से नहीं रहने देती है। माधव व्यग्र हैं,
राधा माधव के लिए व्यग्र नहीं है। राधा माधव हो गई है, माधव से भी अधिक
माधव की चाह हो गई है। उन्हें माधव की अपेक्षा नहीं रही। यह वसन्त राधा
माधव के बीच ही ऐसा नहीं करता। समूची सृष्टि में, जो स्त्री तत्व और
पुंस्तत्व से बनी है, ऐसे ही कौतुक करता है। एक सनातन आकुलता और एक
सनातन चाह में मनुष्य के मन को बाँट कर फिर उन्हें मथता रहता है।
मनुष्य के भीतर का मनुष्य नवनीत बन कर, नवनीत पिंड बन कर, नवनीत पिंड
का चन्द्रमय रूपान्तर बनकर अँधेरी रातों को कुछ प्रकाश के भ्रम में
बिहँसित करता रहता है। वसन्त और कुछ नहीं करता, बस कुछ को न-कुछ और
न-कुछ को कुछ करता रहता है। बार बार बरजने पर भी मानता नहीं। वसन्त की
ढिठाई तो वानर की ढिठाई भी पार कर जाती है। कोई हितु है जो इसे रोक सके?
मैं जानता हूँ कोई नहीं होगा, क्योंकि दिन में तो हवा की सवारी करता
है। रात में चाँद की सवारी करता है। वह कहाँ रोके रुकेगा।
तो फिर आ जाओ अनचाहे पाहुन, आओ भीतर कुछ
क्षण आ जाओ, इन कागदों के पत्रों के बीच आ जाओ, इन्हें ही कुछ रंग दो,
सुरभी दो, गरमाहट का स्पर्श दो, स्वर दो ये पत्ते प्राणवन्त हो जाएँ
भले ही अपने को गला दें, जला दें कुछ नए बीजों को अँखुआने की ऊष्मा तो
दे दें।
२५ मार्च २०१३ |