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ललित निबंध      

यह पगध्वनि
—उमाकांत मालवीय

शिशिर हेमंत विदा हो रहा है। एक पगध्वनि गुदगुदाती हुई सी निकटतर हो रही है। यह पगध्वनि मेरी पहचानी हुई है, छियालीस बार यह मेरे द्वार पर सांकल खटखटा गई है। मैं कैसे कहूँ कि वसंत आया है कोई उत्कंठा नहीं। इतना बड़ा सच महसूसने और फिर उसे अभिव्यक्त करने के लिये भीतर जो रस रसाव चाहिए जो आचरणगत साहस अपेक्षित है, वह मेरे पास कहाँ है, न तो वैसा अर्जन है और न ही वैसे संस्कार।

हां तो हेमंत के पियरा पत्ते एक एक कर झर चले हैं, जीर्ण वसन विहाय प्रकृति नया परिधान धारण कर रही है, वह ललछर नन्हा मुन्हा किसलय और वह चिकनी रेशमी कोंपलें जैसे मेरे अपने बेटे और बिटिया। पत्तों की यह हरीतिमा, एक साथ इतनी ढेर सी हरीतिमा मन प्राणों में उतरती जा रही है, मैं नेत्रों से ही नहीं वरन रोम रोम से इस हरीतिमा को पी रहा हूँ कि मन है कि अघाता ही नही, क्या मैं ऐसा पियक्कड़ हूँ जो लबालब चषक को बार बार खाली कर रिक्त चषक लिये बराबर साक़ी को तंग ही करता रहता है। ऐसे में परत दर परत सुधियों हरी हो उठी हैं पेड़ों में पत्ते आते देख मेरे भीतर डा शांति सुमन के गति की एक पंक्ति महक उठती है
``तुम आए जैसे पेड़ों में पत्ते आए।''
और अब छोटे छोटे पीले फूलों की बहार है। हवा का एक शरीर झोंका उन्हें छेड़ जाता है, सरसों की पतली कमर हज़ार हज़ार बल खा गयी, लाजवंती तन्वंगी छुईमुई हो चली, वासंती छवि आंखों में आँज लेता हूँ। सामने एक स्वर्ण द्वीप जगमगा रहा है। सोने के ताल में लहरिया वर्तुल थिरक रही है। सारा का सारा पलाश वन दहक उठा है। एक मशाल जुलूस सा यह पलाश वन। विंध्य क्षेत्र में बरिगवां जाते समय जो मील डेढ़ मील लंबा पलाश वन देखा था वह आँखों के सामने थिरक उठा।

हां तो यह आया है फूलों का मौसम, रूप का मौसम, रस का मौसम, गंध का मौसम। नरेश जी ने फूलों को पौधों द्वारा परमात्मा को समर्पित प्रार्थना माना है। फूलों का मौसम अर्थात अहर्निश अगरु, धूप, गंध चर्चित प्रार्थना का मौसम। उनके आंगन माधवी में एक वैष्णवता खिली तो उन्हें लगा शायद ऐसे ही विदुर के घर कृष्ण आए रहे होंगे। यह दृष्टि हम भी चाहते हैं ले किन कहाँ से लाएँ यह दृष्टि यह संवेदनशीलता जिसे हमारा क्षण क्षण पर्व बन जाए और संपूर्ण जीवन एक उत्सव एक समारोह हो जाए। प्रतिकूल कठिनतम परिस्थितियों में भी जीवन की इस उत्सव धर्मिता को निस्तेज न होने देना ही कदाचित वास्तविक पुरुषार्थ है। जब हम हँसते हैं तो वह हंसी वास्तव में परमात्मा द्वारा प्रदत्त प्रसन्नता की हमारी ओर से एक कृतज्ञतापूर्ण स्वीकृति होती है। हम केवल कृतज्ञ होना सीख सकें तो हमें किसी प्रार्थना या उपासना की आवश्यकता नहीं होगी। कृतज्ञता स्वयं में सर्वोत्तम प्रार्थना और उपासना है।

ढोल और मंजीरे की तान के साथ फगुआ की तान से बार बार रोमांच हो आता है। राधा-कृष्ण पार्वती-शंकर राम-सीता गोकुल ब्रज के गोप गोपियों और बाल गोपालों के माध्यम से भारतीय मानस होली खेलता है। अबीर और गुलाल के बादल उड़ रहे हैं ऐसे में डा जगदीश गुप्त विश्वजू कहते हैं- ``ऐसे उताने फिरै होरिया बिरज में जनौ दूसरे होरी न ह्वैं हैं'' सचमुच जीने का सुख तो अभी या कभी नहीं के स्तर पर जीने का ही होता है। रंगों का पर्व है यह मैं सोचता हूँ आखिर विष्णु को रंगनाथ क्यों कहा गया है। उनकी सृष्टि की रंगमयता के कारण? रंगों की गुंजाइश ऐकोहं द्वितीयो नास्ति के अद्वैत में नहीं वरन एकोहं बहुस्यामि में होती है। सर्वत्र रंगनाथ की रंगमयता ही तो नज़र आती है। अभी इस रंग में सराबोर रहा ही कि फिर एक जिज्ञासा सिर उठाती है। नाटक और मंच को रंग कर्म या रंग मंच क्यों कहा गया है? यह सारा का सारा संसार एक रंगमंच ही तो है जहां हम अपनी अलग अलग भूमिका लेकर आते हैं मंच पर प्रवेश लेते हैं और भूमिका संपन्न होने पर मंच से बाहर हो लेते हैं। एक ज़िन्दगी है जो नेपथ्य में भी स्पंदित होती रहती है-

ज़िन्दगी नेपथ्य में गुज़री
मंच पर की भूमिका तो सिर्फ अभिनय है।
शीशे का एक विम से धुला धुला पारदर्शी गिलास जिसमें जल भरा हो जल की सतह पर लाल रंग का छीट दीजिए रंग को घोला न जाए और तब आप देखिए जल में रेशा रेशा रंग किस तरह मिलता है। ज़रूरत है विम धुले शीशे के पारदर्शी गिलास की, कोपाग्नि से वह अपने प्राण सखा को जैसे मन की ओर खींचता है और उसमें जल जैसा सरल तरल आग्रह है- तभी केवल तभी रंग रेशा रेशा मिलता है। फूल की जल भरी थाली में जल के तल पर एक बूंद तेल डाल दें। तेल अर्थात स्नेह अपने भीतर इंद्रधनुष उतार लेता है।

होली का इंतज़ार था। और होली आ भी गयी न भी आती तो कोई गिला कोई शिकवा शिकायत नहीं होता। मैंने मात्र पढ़ा ही नहीं, आचरण में जीना भी चाहता हूँ। प्रतीक्षा स्वयं में एक तपस्या एक सेवा नहीं है क्या? होली आई है तो स्वागत है। प्रतीक्षा पर आग्रह का यह अर्थ तो नहीं होता कि वह जो प्रतीक्षित है उसके आगमन के प्रति कोई अवमानना है। होली आई और होलिका दहन हुआ कहते हैं इस अग्नि परीक्षा से सत्याग्रही प्रह्लाद कुंदन की तरह दमकता हुआ निकला था। मुझे तो विश्वास नहीं होता। औरों को क्या कहूँ स्वयं मेरे भीतर अभावों लोकेष्णा और एक अदद चुपड़ी वासना का अनवरत होलिका दहन हो रहा है और उसमें मेरी ईमानदारी, निष्ठा, आस्था, श्रद्धा, स्वाभिमान का प्रह्लाद नित्यप्रति भस्म होता जा रहा है। नृसिंह के प्रकट होने में तो अभी विलंब है कौन है जो इस होलिका दहन से मेरे भीतर के प्रह्लाद को बचाएगा। त्राण बाहर खोजना स्वयं में एक नादानी है । त्राण तो मेरे भीतर मेरे अंदर है उसे टेरना होगा। इस टेरने और हेरने के क्रम में स्वयं में एक टेर हो जाना होगा। हेरते-हरते हेरा जाना होगा।

यह वसंत तो कंदर्प का सखा है यह होली का पर्व स्वयं में मदनोत्सव है। महाशिव की समाधि भंग करने जब काम गया था तब उसका सखा वसंत भी उसके साथ ही था। परंतु हा हंत! शिव के तीसरे नेत्र को बचा न सका। भगवान शंकर का कोप भी विधाता के इस शरीर बेटे के लिये वरदान हो गया। वह अनंग असरीरी होकर और भी व्यापक हो गया ऐसे में कामस्तवन की गुनगुनाहट पास पड़ोस यत्र तत्र सर्वत्र सुन पड़ती है।
कुसुम लिपि में लिखे आमुख
मूल जिससे निसृत हर सुख
अपरिचित तुमसे सभी दुख
अनवरत गतिशील सक्रिय
कब हुए श्लथ
अहे मन्मथ
विधाता का यह बेटा निहायत शरीर सिद्ध हुआ सबसे पहले इसने विधाता को ही अपने पंच साधक का लक्ष्य बनाया फिर क्या था ब्रह्मा आत्मज सरस्वती पर आसक्त हो गये। धर्म के देवता यम और सहोदरा यमी परस्पर कामगत आकर्षण से दग्ध कर दिया था इस मीन केतु ने। यही नहीं क्यूपिड के रूप में इसने यूनानी पुराण में कौन से अनर्थ नहीं कराए।
गुजराती के अमर रचनाकार श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कहते हैं अधोगत काम विधाता और यम जैसे अनर्थ कराता है बलात्कार और हत्याएँ करवाता है और कामोन्नयन संस्कृति को राधा-कृष्ण उमा महेश कालिदास टेगोर और गेटे आदि देता है। होली के रंग में सराबोर लथपथ अबीर गुलाल के बादलों में विजेता के डैनों पर उड़ते हुए मन को जब यह हल्की हल्की आँच देता है तो पोर पोर अनिर्वचनीय आनंद का आतिथेय होता है।

पति पत्नी प्रिया और प्रिय से इतर भी भारतीय समाज में कुछ रस सिक्त रिश्ते सिरजे हैं यह रिश्ते हैं देवर भावज के साली जीजा के सलहज नंदोई के और कहीं कहीं मामी और भांजे के इन रिश्तों के फींके पड़ते रंग भरी हुई पिचकारियों के संदर्भ में होली के चटक हो कर उभर आते हैं उनके ऊपर का फीकापन एक केंचुल की तरह उतर जाता है। बारह महीनों में सावन और फागुन न हों तो सारा का सारा वर्ष निष्प्राण हो जाता है।

होली के रंगारंग अबीर गुलाल फगुआ और पकवानों के दौर में पसली के नीचे कहीं कुछ चिलक उठा है और मुझे पता है कि यह चिलकन देश के उस बहुमत के लिये है जो दैनिक अभावों के कारण इसमें शामिल नहीं हो पाता।
मुझे याद आता है स्तवन -
आ युग के सिया राम क्षुधा काम तुमको मेरे प्रणाम
वह जो कुछ नहीं कर पाता प्रार्थना करता है सुना है प्रार्थना अनुत्तरित नहीं होती। इस भरोसे से इस विश्वास से मैं प्रार्थना करता हूँ उन सबको भी इस रंगारंग आनंद में शामिल होने का आमंत्रण और अवसर दो मेरे प्रभु ताकि हमारा पर्व तुम्हारी तरह पूर्ण हो सम्पन्न हो।

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