होली का दिन
- रघुवीर सहाय
बसंती रंग भी जानते थे न पंसारी
न मुसद्दीलाल
दोनों ने राय दी कंधे से कंधा
मिला ले चलो पाल की
ये पंक्तियाँ आत्महत्या के विरुद्ध २० वर्ष पहले लिखी
गई थीं। बसंती रंग न जाने का क्या अर्थ है भाई? बसंती
क्या कोई ऐसा रंग है जिसे न जानना कविता में बताने
लायक मानवीय भूल हो? न जानना कोई बड़ी भूल नहीं है।
पीले और बसंती के बीच फर्क न कर पाना एक तरह की आलोचना
है, जो पीला रंग बसंती कहकर बेचने वाले पंसारियों ने
हमारे ऊपर छोड़ दी है। यह बात उतनी ही अशोभनीय है
जितनी तिरंगे झंडे में केसरिया के स्थान पर नारंगी रंग
का इस्तेमाल करना, पर आजकल हजारों छोटे-मोटे झंडे ऐसे
ही बनते हैं और इसे संविधान का दंडनीय अपमान नहीं
होता। ठीक भी है अगर रंग की समझ संविधान में लिख दी गई
होती तो पूरी भारत सरकार को भरती के इम्तिहान में एक
वर्ण-निर्णय की जाँच का पर्चा भी रखना पड़ता जिससे
शायद लालफीताशाही ही बढ़ती, बसंती रंग की परख नहीं।
बसंती रंग को न परख पाने से किसी का कुछ बिगड़ नहीं
गया है। विद्यानिवास मिश्र भी शुद्ध दही, दूध, मक्खन न
मिलने पर काम चला ही लेते होंगे, जैसे सभी संस्कृति
प्रेमी चला लेते हैं, फिर बसंती रंग में धोती कुर्ता
अब रंगाता ही कौन है। धोबी ही कहाँ है और कुर्ता भी
कहाँ है, जो है वह काली पतलून के साथ पहनने के वास्ते
बना-बनाया मिलता है।
हाँ धोती एक रईस के यहाँ देखी थी। किसी साहित्यिक
आयोजन में जब गोष्ठी आधी चल चुकी थी और अतिथि काफी जमा
थे, आतिथेय के दो बेटे जिन्हें पहले कभी घर से बाहर
अंग्रेजी पोशाक के सिवाय कोई पोशाक पहने देखा नहीं गया
था, धोती कुर्ता पहनकर सभा में आए। धोती की चुन्नट
देखने लायक थी। बल्कि आदमी समेत पूरी पोशाक में वही एक
देखने लायक चीज थी। और उसी को सब देखने लगे। कुछ देर
बाद जब माता-पिता को संतोष हो गया कि उनकी सांस्कृतिक
भारतीयता सिद्ध हो गई है, उन्होंने बेटों को इशारा
किया और वे अपनी चुन्नट संभालते हुए घर लौट गए। यह भी
कोई नई बात नहीं हुई। जैसे जाने कितने हिंदी प्रेमी
हिंदी का प्रदर्शन करते हैं, वैसे ही इस आधुनिक परिवार
ने अपनी भारतीय चुन्नट का प्रदर्शन कर दिया। फर्क इतना
ही था कि हिंदी का प्रदर्शन वहीं किया जाता है जहाँ
समतुल्य समाज में इस भ्रम में पड़ जाने वालों के मौजूद
होने की आशंका न हो कि यह व्यक्ति अंग्रेजी नहीं बोल
पाता इसलिये हिंदी बोलता है। जबकि धोती के प्रदर्शन
में अंग्रेजी का सर्टिफिकेट नत्थी करना जरूरी नहीं।
मुँह में पाईप दबा रखने से काम चल जाएगा।
बहरहाल यह तो आप जानते हैं कि यह लेख लिखने का प्रयोजन
बसंती रंग तो नहीं है यह लिखा भी ऐसे वक्त जा रहा है
जब बसंती रंग कहीं पता भी नहीं रहने वाला है। काला,
बैंगनी, नीला और कींचड़, डामर, वार्निश वगैरह दिखाई
देने के दिन होली में आते हैं। पहले भी एक जमाने में
रंग और रोगन होली में चला करते थे मगर तब यह आमतौर पर
माना जाता था कि यह हथियार जाहिल गँवारों के हैं। होली
में एक खास बात यह है कि वह घटियापन और नफासत के बीच
की सीमा बनाना सिखाती है। मूलतः वह फगुनाहट का त्यौहार
है, जिसकी शोभा इसी में है कि वह उजड्डपन से बचकर चले।
फोश और रसियापन के बीच इसी तरह होली ऐसा पर्दा बनाती
है जिसमें कानून की वातानुकूलित दीवार नहीं होती।
दोनों पक्षों की परस्पर पर्दादारी होती है। रस इसी में
है और होना भी चाहिए। किसी समय होली का त्योहार शुरू
करने के लिए आर्य समाज जैसी सभाओं ने आंदोलन किया था।
इसका कार्यक्रम होली जलाने के दिन से शुरू होता था और
होली खेलने से गुजरता हुआ कम से कम तीन दिन तक चलता ही
था। आठ दिन तक चलाने पर कैद न थी। आंदोलन शालीनता और
शिष्टता के साथ मिलन का था। होली जलाने के समय घरों
में गोबर के उपले, नया गन्ना, हरे चने का बूट और अबीर
गुलाल लेकर लोग चौराहे पर आते थे और होली जलाते समय
मिलन और भुने होरे का आदान-प्रदान होता था अबीर गुलाल
और किसी किसी विशिष्ट रुचि संपन्न के यहाँ चंदन बाँटा
जाता था। रंग के दिन भी पलाश के फूलों का ही रंग असली
रंग कहलाता था बाकी कामचलाऊ रंग थे।
पर रंग का इंतजाम न कोई धार्मिक संस्था करती थी न होली
मिलन समिति। वह हर परिवार की सांस्कृतिक चेतना ही करती
थी जिसके बनाने में बड़ा हाथ परिवार की राजनीतिक चेतना
का भी था। राजनीतिक चेतना, सांस्कृतिक चेतना का अंश
हमारे सभी समाजों के लगभग पूरे दौर में वही है, जिसमें
स्वतंत्रता संग्राम चला है। होली की याद मेरे उसी दौर
के रास्ते में पड़े मिले अवशेषों की याद है 18 बरस के
लड़के (उनमें लड़कियाँ शामिल ना होतीं) अबीर गुलाल
झोली में लेकर सड़क पर गाते हुए निकलते। गाने में
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लड़ने वाले गाने नहीं थे, पर
गाने वाले प्रायः सब पराधीनता के विरुद्ध थे। राजनीतिक
चेतना, स्वाधीनता के मूल्य को यदि जागृत न करती तो
होली के त्यौहार के सामूहिक रूप को परिष्कार न मिलता।
गुलामी की पूजा करने वाले समाज से कुत्सा और हिंसा में
ही मनोरंजन प्रसारित किया जाता है। उसमें परिहास और
उपहास के बीच एक पारदर्शी दीवार तक नहीं होती। दोनों
के पीछे से एक दूसरे के बहाने चिढ़ाने की हिंसक
संस्कृति होती है।
आज की होली में जैसी हम सिनेमा और अखबार में देख पाते
हैं किसी को होली सुधारती बदलती नहीं। कभी-कभी पुलिस
पहरा जरूर देती दिखाई देती है कि हुड़दंग न हो।
हुड़दंग और दंगे के बीच का फर्क लोग सीखें, यह संभव
नहीं मानती है पुलिस, या वह नगरपालिका जो कानूनी
विज्ञप्ति छापकर अपना काम खत्म समझ लेती है, कि जो न
चाहे उस पर रंग न डालिए, जुर्माना माना जाएगा।
फिर भी गनीमत है कि अभी तक यह विज्ञप्ति नहीं छपी है
कि रंग का डलवाना न चाहना जुर्म नहीं घोषित किया गया
है वह जाने कैसे लोगों की समझ पर निर्भर रहने दिया गया
है। अच्छा ही है, कोई रंग न डलवाना चाहता तो पुलिस
चाहे यही समझे कोई धार्मिक कारण होगा, मगर उदाहरण के
लिए मेरा कारण तो यह भी हो सकता है कि जो रंग होली
वाले के हाथ में है वह बेहूदा है।
१ मार्च २०२० |