होली राग रंग
से भरा ऐसा उल्लास पर्व है जिसका धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक
एवं राष्ट्रीय महत्व है। इसमें भारतीय जनमानस का स्वाभाविक
व्यक्तित्व झलकता है। हालाँकि यह
पर्व प्राचीन काल से आज तक अनेक रूपों में विकसित हुआ है फिर
भी हर्ष, उल्लास और उत्सवधर्मिता में कभी कोई कमी नहीं आई।
राम और कृष्ण
भारतीय जनमानस के नायक हैं। साहित्य संस्कृति और कला में
इनकी महत्वपूर्ण उपस्थिति पाई जाती है। लोक गीत और लोक कथाएँ
भी इससे अछूती नहीं रही हैं। अवध और ब्रज की होली विख्यात
है। कृष्ण और ब्रज की गोपिकाओं की होली के वर्णन से भारतीय
साहित्य समृद्ध हैं। लेकिन अवध की होली में राम सीता और उनके
भाइयों से जुड़े प्रसंग का वर्णन लोकगीतों में अपेक्षाकृत
काफ़ी कम हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि भारतीय जन के
मानसपटल पर राम की छवि मर्यादा पुरुषोत्तम
के रूप में अंकित है जिसके कारण लोक साहित्य के मनीषियों ने
उन पर आधारित होली के प्रसंग लिखना अनुचित समझा होगा। होली
जिस तरह राग रंग की भावनाओं से जुड़ी हुई है वह आवेग कृष्ण
के चरित्र में उभारना सहज है। जबकि राम धीर गंभीर हैं और रास
रंग की लीलाओं में उनकी इस मर्यादा को बनाए रखते हुए गीतों
की रचना सहज नहीं।
अवध राम की
जन्म स्थली और क्रीड़ा स्थली रही है। उनकी यशोगाथा से भरे
अवधी लोकगीतों में लोकमानस की भावनाएँ, आशाएँ, आकांक्षाएँ व
कामनाएँ परिलक्षित होती है। इस परिप्रेक्ष्य में डाक्टर महेश
अवस्थी द्वारा संपादित 'लोकगीत रामायण' में संकलित लोकगीतों
में राम से संबंधित होली का सहज चित्रण देखने को मिलता है।
होली के मादक रंग में रंगे हुए चारो भाइयों के होली खेलने का
यह दृश्य लोकजीवन और लोकप्रेम की सुरम्य झाँकी
प्रस्तुत कर रहा है :
अवध माँ होली खेलैं रघुवीरा।
ओ केकरे हाथ ढोलक भल सोहै, केकरे हाथे मंजीरा।
राम के हाथ ढोलक भल सोहै, लछिमन हाथे मंजीरा।
ए केकरे हाथ कनक पिचकारी ए केकरे हाथे अबीरा।
ए भरत के हाथ कनक पिचकारी शत्रुघन हाथे अबीरा।
अवधी लोकगीतो
में राम मिथिलापुर में भी होली खेल रहे हैं, मिथिलापुर की एक
चतुर स्त्री अपनी सहेलियों से कह रही है कि राम फिर जनकपुर
नही आएँगे और न ही हम लोग अवधपुर जाएँगे इसलिए इनसे खूब जमकर
होली खेल ली जाय। जब सीता अपनी सहेलियों के साथ हाथ में
पिचकारियाँ लेकर चली तो सीता राम का मुख मोड़
कर सिंहासन पर बैठने का निवेदन करते हुए कहती है कि मैं
समुद्र को काटकर उसमें से नदी ले आऊँगी
और जलयानों में रंग घोलकर पिचकारी भर-भर कर रंग चलाऊँगी,
जैसे सावन की बूँदे पड़ती
हैं। और केसर, कुसुम तथा अरगजा चंदन से एक ही पल में आपको
सराबोर कर दूँगी। सीता के ऐसे उमंगमय
भावों को मुखरित करता है होली का यह लोकगीत :
होरी खेलैं
राम मिथिलापुर माँ
मिथिलापुर एक नारि सयानी, सीख देइ सब सखियन का,
बहुरि न राम जनकपुर अइहैं, न हम जाब अवधपुर का।।
जब सिय साजि समाज चली, लाखौं पिचकारी लै कर माँ।
मुख मोरि दिहेउ, पग ढील दिहेउ प्रभु बइठौ जाय सिंघासन माँ।।
हम तौ ठहरी जनकनंदिनी, तुम अवधेश कुमारन माँ।
सागर काटि सरित लै अउबे, घोरब रंग जहाजन माँ।।
भरि पिचकारी रंग चलउबै, बूँद परै जस
सावन माँ।
केसर कुसुम, अरगजा चंदन, बोरि दिअब यक्कै पल माँ।।
सीता जी के
द्विरागमन के उपरांत अयोध्या में पहली होली पड़ी तब राम और
सीता ने सरयू तट पर लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न आदि के साथ होली
खेलने का निश्चय किया। सरयू तट पर होली के रंगारंग धमाल में
राम हाथ में सोने की पिचकारी लिए हुए हैं, लक्ष्मण के हाथ
में अबीर की पुटकी तो भरत के हाथ में रंग गुलाल है। एक तरफ़
शत्रुघ्न के साथ मित्र मंडली तो दूसरी ओर सीता के साथ वधुएँ
हैं और उर्मिला के साथ सहेलियों का झुंड। प्रस्तुत होली गीत
में इसी का उल्लेख है :
सरजू तट राम
खेलैं होली, सरजू तट।
केहिके हाथ कनक पिचकारी, केहिके हाथ अबीर झोली, सरजू तट।
राम के हाथ कनक पिचकारी, लछिमन हाथ अबीर झोली, सरजू तट।
केहिके हाथे रंग गुलाली, केहिके साथ सखन टोली, सरजू तट।
केहिके साथे बहुएँ भोली, केहिके साथ सखिन टोली, सरजू तट।
सीता के साथे बहुएँ भोली, उरमिला साथ सखिन टोली, सरजू तट।
२४ मार्च
२००५
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