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डलहौज़ी से आने जाने वाली बसों का सफ़र उन दिनों
कुछ ज़्यादा लंबा हो गया था। गले में लटकाए ढोल बजाते, बाहें उपर उठाकर अपने
उम्मीदवारों के नाम और निशान के झंडे फहराते, मुँह से लगे भोंपू में आनेवाली चुनाव
सभा का वक्त और तारीख़ चिंघाड़ते हुए मर्दों की टोलियाँ जहाँ-तहाँ पहाड़ी रफ़्तार
से चलती बसों को रोक लेतीं। कहीं पड़ाव के बाद रोककर बस में चढ़ने के लिए, कहीं
पड़ाव से पहले बस के नीचे उतरने के लिए। अचानक रुकती बस के हिचकोले से एक दो
मुसाफ़िर सरक लुढ़क पड़ते। ऊँघती सवारियों की आँखें खुल जातीं, फिर बस अपनी रफ़्तार
पकड़ती, फिर अंदर बैठी सवारियाँ खिड़कियों से झाँकने और ऊँघने का सिलसिला जारी कर
देतीं।
हीरा मंडी के पड़ाव पर जब बस रुकी तो न कोई पुरानी
सवारी नीचे उतरी न नई सवारी अंदर गई। बस के कंडक्टर और ड्राइवर हाथ पाँव सीधे करने
के लिए बस से उतर आए। पड़ाव पर टाट बाँस की झुग्गी वाले ने बिना पूछे, मिट्टी के
कसोरों में धुआँ छोड़ती चाय उड़ेली और लकड़ी की दाग़दार तिपाई पर रख दी। ड्राइवर
कसोरा उठाकर चाय सुड़कने लगा। कंडक्टर ने बीड़ी सुलगाई और झुग्गी वाले से पूछा,
"वो नहीं माने न?"
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