मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
स्वाती भालोटिया की कहानी— क्या लौटेगा वसंत


नदी किनारे, घास पर पग सहलाता, बौद्ध मंदिर को स्वयं में समाए टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर डोलता-सा रायन, अपने स्वच्छंद चेहरे पर धूप का ताप लिए, मेरी ओर ही चला आ रहा था। अपने गेरुए चोंगे में, सर मुँडाए, रायन मुझे सदा से किसी ऐतिहासिक बौद्ध भिक्षु की भाँति ही लगता है जो किसी ईश्वरीय माया से, धुंध उड़ाती दार्जिलिंग की पर्वत-शृंखलाओं के बीच, अनायास ही प्रकट हो गया हो।

जब भी मैं ग्रीष्मावकाश में अपने वार्षिक भ्रमण के लिए दार्जिलिंग आती, रायन मुझसे यों ही रोज़ मिलने आता, पास बैठा-बैठा बातें करता, निहारता और लजायी-सी हताशा फैला जाता। इस बार भी पिता द्वारा सहेजकर बनवाई गई, बरसों पुरानी ईटों से बने श्वेत घर का पल्लवित आकर्षण कलकत्ता शहर के कोलाहल से दूर मुझे इस हरित भूमि में खींच ही लाया। धुली-सी सफेद ईटों की दीवारें,  प्रवेश द्वार पर पत्थर की सीढ़ियों के किनारे, खड़िया मिट्टी से पुताई किए गमलों की करीने से की गई सजावट, और उन पर खिले, केसरी फूल, जीवन के किसी भी पड़ाव पर, मन को सुवासित करने में आज भी चूके नहीं हैं।

इस समय भी बगिया की गोद में बैठी, गरम चाय का प्याला हाथों में लिए, धूप की लाली बटोर रही थी जब रायन आ पहुँचा।

''अरे तुम्हारे खड़े कान अब भी उतने ही लाल है?'' पास आने पर मैंने उसे छेड़ा।
उसके अधर जैसे चौड़े और फैल गए और नैनों में कातरता थोड़ी और पसर गई। उसकी यह अर्ध-मुस्कान मैं सालों से ऐसे ही देखती आई हूँ, जब से रायन, महाप्राण के चरणों के प्रति भक्ति-भाव से आकर्षित हो, यूरोप का ब्रायन्ज नगर छोड़, दार्जिलिंग में सोनताल के निकट, बौद्ध मंदिर की सेवा में रत है।

''आज नदी के पास टहलने जाओगी?'' चलो, मैं साथ ले चलता हूँ। तुम्हारे मनभावन रंगों में बहुत से कमल खिले हैं इस साल।''
''तुम्हें आज हिंदी पढ़ने नहीं जाना है क्या गोलचौक?''
''जाना तो था, पर कल की भीषण वर्षा के कारण, आज बच्चे नहीं बैठ पाएँगे वहाँ।''
''अच्छा, तो इसलिए आज इतनी नर्म धूप खिली है मेरे घर।''

मेरी हँसी की खनक से रायन के कान, उस क्षण मानो और लाल हो उठे- जैसे ये लालिमा उसके कानों से होते हुए उँगलियों तक रंग एवं उष्णता उकसा रहें हो। ऐसी स्थिति में वह सदा ही पैरों के अंगूठे से मिट्टी कुरेदता शांत खड़ा हो जाता है। छोटी-छोटी हरी पत्तियों वाली बड़ी-बड़ी बेलों की छाया में हम चलते-चलते माल रोड की ओर निकल पड़े। दार्जिलिंग की वही चिर-परिचित राहें- मटकती, लचकती-सी।

अंतर्मन में उठने वाली भावनाओं के बारे में अंतिम रूप से कुछ कह पाना, मैंने हमेशा ही कठिन माना है। रायन के प्रति मेरे मन में प्रेम प्रकट नहीं हुआ या मैंने उसे स्वयं कार्यभार का बहाना खोज दबा दिया था यह मुझे आज तक पता नहीं चला। शायद कोई कोमल इच्छा मेरे पाषाण-ह्रदय में जन्म ही नहीं ले सकती, पर इस विषय में भी सोचने का समय नहीं मिला। ये बातें मन के किसी धूल भरे कोठों में बरसों से बेकार पड़ी थी। रायन बौद्ध भिक्षुक था और मैं समाज सेविका फिर दोनों के बीच ऐसे किसी सूत्र का जन्म लेना बहुत स्वाभाविक तो नहीं था। पग पग पर आशंकाएँ जन्म लेतीं और हमारी भौगोलिक पृष्ठ भूमियों में भी तो कितनी दूरी थी। क्या हम सामान्य जीवन जी सकते थे। फिर भी लगता कि शायद हम प्रेम की ओर पग बढ़ा रहे हैं। क्या रायन भी ऐसा सोचता होगा? कभी-कभी मन में उठने वाले भाव कितने सच हो जाते हैं या कैसे सच हो जाते हैं, यह सोचते सोचते उद्विग्नता आ घेरती है।

छोटी-सी दुकान के सामने बैठे, चाय पीते, रायन ने मेरे कलकत्ता के हस्पताल के काम और मेरे स्वतंत्र लेखन के बारे में पूछा। ऐसी व्यक्तिगत बातें हमारे बीच हाल ही में शुरू हो गयीं थीं। संध्या तक होती बातचीत में रायन अपने पढ़ाने के बारे में, विहार में खिले बड़े-बड़े पत्तों पर विराजे कमलों के बारे में और दार्जिलिंग के नित नए बदलते रंगों के बारे में ही बताता रहा। उसकी बातों और मेरी चुप्पी में जब अंतराल लंबा होने लगता। तब साँझ की सुंदर अरुणाई, अपनी ओर खींच कर, बीच की असहजता कम करती जाती। हम दोनों के जीवन का अकेलापन एक और कारण था जो हमें पास ले आता।

''तुम फिर ब्रायंज क्यों नहीं लौट जाते रायन? वहाँ जाकर पिता के साथ फलों के उत्पादन में सहयोग दे सकते हो। तुम्हारा मन भी लगा रहेगा। यहाँ क्या रखा है रायन अजनबियों के बीच?''

मेरा यह कथन उसे असहज ही नहीं छोड़ गया, अपितु उसकी आँखों में तरल-सा, बहती हुई चाँदनी का भ्रम भी हुआ मुझे।
''अपनों का साथ क्या सबके भाग्य में होता है कही?'' अपने ह्रदय में छिपा प्रेम, रायन कभी भी मुखरित नहीं कर पाएगा, ऐसा अनुभव तो था, किंतु यह बात शूल बनकर इतने बरसों तक उसका ह्रदय भेदती रहेगी, इसका भान शायद मैं नहीं कर पाई। मेरे लिए भी मुख खोलकर कुछ साफ साफ कहना कहाँ संभव हुआ। हम दोनो के ही लिए हमारा काम हमारी कामनाओं से ऊपर था।

समय का बहाना बना कर घर तो चली आई, पर अब सोचती हूँ कि क्या रायन के प्रति चुप रह कर मुझसे कोई भूल हो गई?  क्या प्रेम मार्ग पर न चलने वाले निष्ठुर होते हैं?   पुरुष-संग बिना क्या जीवन जीना असंभव ही रहेगा? जीवन-दर्शन क्या किसी को अपनाकर केवल प्रेम दर्शाने में है? क्या अन्य रास्ते हीन होने की श्रेणी में आते हैं? क्या स्त्री-पुरुष का प्रेम ही शाश्वत सत्य रह गया है? प्रेम अगर मनुष्यता के नाते हो तो क्या वह हीन या गौण हो जाता है?

''दीदी, शीत टा औनेक बेढ़े गेछे माँ। एकटु शान'' लिए बौशो, चा खाबेल की? कोरे देबो एकटू?'' (दीदी ठंड बढ़ गई है, साल ओढ़ कर बैठे। क्या चाय पिएँगे? बना दूँ?)  मिश्री से घुले शब्दों ने, मुझे अपनी बंगाली-भाषी परिचारिका, अभिन्न साथिन मालती की ओर जो मोड़ा, तो लगा ज्यों शरीर में लहु की गति धीमी पड़ी है- अलसायी-सी। मालती का जीवन जिस ज़िद का प्रवाह लिए बहा है, वह अक्षुण्ण सत्य बन कर रहा है मेरे साथ। सदा साथ रहने की उसकी उस ज़िद ने मेरे अच्छे लगने या ना लगने की प्रतीक्षा नहीं की। मेरे पढ़ने-लिखने के कमरे में बेतरतीबी से बिखरे कागज़ के पन्नों के बीच वही स्थिर खड़ी बोल सकती है। और ज़िद की उसी एक धारा में वह मुझे झीनी सी नीली शाल ओढ़ा गई। उसी की थी शायद।

कुछ ही देर में देखती हूँ तो मालती गर्म चाय, और ताले-मखाने के साथ गर्म बादाम-तेल की कटोरी लिए खड़ी थी। मेरे सर में तेल डालने की उसकी क्रिया मेरे जीवन के हर दर्द पर लेप लगा देती। उसका यही स्नेह शायद मेरा शरीर जिलाए हुए है अब तक। हर बार की तरह अब मालती मुझे छोटे से गोलाकार तकियानुमा पीढ़े पर बैठाकर, बालों में तेल लगाएगी और कहेगी- ''ए की! आपनाए चूल ता ऐकदौम शादा होए जाच्छे, एबार आपना के प्रतिदिन तेल दिते हौबे।'' (ये क्या, आपके बाल तो बिल्कुल सफेद हो रहे हैं, अब प्रतिदिन तेल लगाना पड़ेगा।'') ये कहते समय, वह प्रतिदिन पर बड़ा बल देती।

जिस पिता ने हमेशा अपनी बेटी की गठन और मिट्टी, दोनों को जग से जुदा माना है, अपनी उसी बेटी का सत्य और दृढ़ता का तेज उन्हें हमेशा से ही सुखातुर करता आया है। प्रातः भ्रमण के समय, माँ से कहते, ''तोषी तुम देखना, मेरी बेटी ब्याह के बाद भी वल्लरी के समान सहारा नहीं खोजेगी, अपितु वृक्ष के समान जड़ें फैलाकर सबको सँभालेगी।'' पिता द्वारा ब्याह प्रसंग सदा माँ को चिंता से तर ही करता रहा। ''तुम्हारे और माही के मन-लायक पुरुष क्या विधाता ने धरती पर बनाया भी है?'' ऐसे में जब मैं माँ से पूछती, ''माँ क्या गृहस्थी बसाने में ही जीवन की सार्थकता है? क्या दूसरों के कष्टों के बारे में किसी नारी का सोचना-विचारना भी पाप है?'' तब माँ शायद यही सोचती कि मैंने स्वयं ही ब्याह की लकीरों को अपने हाथों से मिटा दिया है और बेबस होकर साँस छोड़ती सी उठ जाती। माता पिता का साया भी कम उम्र में सर से उठ गया और काम में लगे हुए उस दर्द को अनुभव करने का भी समय नहीं मिला।

अगली प्रातः चिड़ियों के गान के साथ गर्म चाय में भीगी, दार्जिलिंग की सुवासित हवा में मिश्री ही मिली मुझे।
''महुआ दी, आपनार फोन आछे कोलकाता थेके।'' (महुआ दी, आपका फोन है कलकत्ता से)
मालती की आवाज़ सुन कर जब फोन लिया, तो दूसरी तरफ़ मेरे 'बाल विकास' हस्पताल के मिश्रा जी भरी सी आवाज़ में बोले, ''महुआ दी, अब आप हस्पताल जॉइन करने में और देर न करें। तीन ही दिनों में मानो सब कुछ अव्यवस्थित होता जा रहा है।''
''क्यों मिश्रा जी? ऐसी क्या बात हो गई? सुहास और नकुल हैं न वहाँ? उनके रहते चिंता जैसी तो कोई बात नहीं दिखती।''
''नहीं दी। वो ५०५ नं का जो बच्चा था न अमन... उसी वीपिंग एग्ज़ीमा दो दिनों से बहुत ही बढ़ी हुई है पैरों में। डॉ. सुहास कह रहे हैं कि शायद पैर ही काटने पड़ेंगे। किंतु अमन तो  बस आपसे ही मिलने की रट लगाए है और दवा भी बिना ज़ोर दिए नहीं खाता। उसके पिता बड़े ही व्याकुल हो रहे हैं।''
''अच्छा... आप चिंता न करें, मैं कल ही आती हूँ।'' कहकर मैंने कुछेक काम की बातें पूछकर फोन रख दिया।

उस सुबह हर पल, अमन से बिना मिले दार्जिलिंग आने के लिए मन कचोटता रहा। जो बच्चा मुझे माँ बनाकर सदा के लिए मेरी गोद में खेलना चाहता था, उससे जब मैं यह कहती कि, ''धत! मैं तुझे लिए बैठी रहूँगी, तो हस्पताल के दूसरे बच्चे मेरा मुँह तकेंगे?'' तब बड़े प्यार से आँखें बड़ी करके उत्साह से बोलता, ''अरे नहीं बाबा! तुम सबको ठीक करना... मैं तुम्हारे पीछे तुम्हारा बैग लेकर चलूँगा।'' और हम दोनों की हँसी के साथ उस कमरे में रंग गूँज उठते। उसी अमन के अब पाँव कटने को है? सच, विधाता से बड़ा शत्रु, मनुष्य का और कोई कभी बन सकता है?

दिन में बैठी-बैठी, साग करने के लिए चोलाई-पत्ते बिंदारने बैठी। उसमें मन नहीं लगा तो मालती से यात्रा के लिए बैग ठीक करने कहा। कहना भर था कि बस! वह दुर्गा! दुर्गा! करती विस्मय ही बिखेरती रही पूरे दिन कि ऐसा ही मोह माया क्यों है मेरा। दूसरी तरफ से जब रायन को आते देखा, तो उसी से उलझ पड़ी।

''एई तो, रायन दादा! तोमार देवी माँ, चौले जाच्छेन काल के ई। ऐमौन माथा कादेर देखी ना। एबार जे काल थेके, शेई ना शुए, आर ना खेई थाकबेन आर की। निजेर शास्थो देखे ना, शुदू जौगौतेर चिंता निए बोशबेन। ऐमोन जा काज होए? किंतु आमार बौलले की लाभ? आपनी जौदी पारेन, एकटू जौत्नो कौरे देखून। एई रौकोम कि ओनादेर जौर ठीक होने?''
(ओ रायन भैया, तुम्हारी देवी माँ तो चली जा रही है कल ही। ऐसा माथा तो किसी का नहीं देखा। कल से बस वही, न खाने और न सोने का सिलसिला फिर शुरू हो जाएगा। पूरे जगत की चिंता लिए बैठी है, किंतु स्वयं अपना स्वास्थ्य नहीं देखती। ऐसे क्या काम किया जाता है? लेकिन मेरे बोलने या न बोलने से फर्क ही क्या पड़ता है? तुम्हीं से अगर हो, तो एक बार रोकने की कोशिश करो, नहीं, ऐसे क्या उनकी बिमारी ठीक होगी?'')

अपनी रौ मैं बोलती मालती की बड़ी देर तक चौके से कुछ-कुछ आवाज़ आती रही। और रायन? रायन जैसे काट खाया-सा बस आँखें नीची किए बैठा रहा। अंत में मुझे ही चुप्पी से हारना पड़ा।
''अरे! आज फिर से पढ़ाने की छुट्टी है क्या? या गोलचौक में अभी तक पानी भरा है?''
तब भी मैंने उसे कुछ कहने का अवसर न दिया। तो क्या वह कुछ कहने आया था? अगर हाँ तो क्या?

---        

बरसों से कलकत्ता में हूँ। दार्जिलिंग नहीं गई। कलकत्ता की सड़कें अब बड़ी थकान साथ लिए दिखती है मुझे! दमा भी तो बढ़ गया है। अब कहाँ पहले जैसी फुर्ती रही। जो झटपट ७ बजे 'बाल विकास' पहुँच जाऊँ? हस्पताल पहुँचते-पहुँचते ९ तो बज ही जाते हैं। आज भी 'बाल-विकास' में कदम रखते ही बिशन ने आदतानुसार पहले महकते चंपई फूल दिए और प्यारी मुस्कान के साथ मेरी व्हीलचेयर ले आया। सुहास की मदद से कुर्सी पर बैठती हूँ, किंतु मुखड़ा निर्विकार रखने पर भी सुवास को हलकी दर्द वाली उच्छैवास का भान हो ही जाता है। औऱ, आज फिर...
''मौसी, इस बरस आप एक बार दार्जिलिंग हो ही आइए। ८ बरस बीत गए आपको वहाँ गए। घर भी ऐसे ही पड़ा हुआ है। और इस बार, मैं बिल्कुल नहीं सुनूँगा आपकी।''
''अच्छा! और मैं क्या करूँगी वहाँ?'' मेरी छोटी मुस्कान भी सुवास को रोक नहीं पाती...
''अरे, आपका दमा कितना बढ़ा हुआ है, इसका आभास है आपको? और फिर जो तो 'बाल-निकेतन' वाले आपको कितनी बार बुला भी तो चुके हैं।''
''हाँ सुहास। किंतु सोचो तो इतने बरसों में वह प्रदेश कितना बदल गया है। मालती भी तो किसी और ही जग में बिना संदेसा दिए, सदा के लिए चली गई... ऐसे में मैं वहाँ कहाँ फिर होउँगी?''
''पर मौसी, आपका कितना सुंदर मकान है वहाँ। सुना है किसी बौद्ध-मठ के सचिव रायन नाम के विदेशी ने आपके नाम से वहाँ एक अनाथालय खोला है आपकी जन-सेवा से प्रेरित होकर और आप इतनी उदासीन बातें कर रही हैं... 'बाल-निकेतन' वाले भी तो आपको बतौर व्यवस्थापक बुलाने के लिए आतुर हो रहे हैं।''
''तुमसे कोई आज तक जीता है सुहास?''
''नहीं, ऐसे ही तो आपको माँ सी नहीं मानता।''

----

मुझे विशेष रूप से निमंत्रित किया गया है अनाथालय के एक कार्यक्रम में जिसका निर्माण रायन ने मेरे नाम पर किया है। धुंध उड़ाती हरे पत्तों वाली चूनर, सदा से दार्जिलिंग की धरोहर रही है पर अब इस बावन वर्ष की उम्र में शरीर के साथ हरियाली भी कितनी धूमिल और बेबस-सी ही लग रही है। और मन? मन के जो विचार हैं, वे तूफान की भाँति घरघराते हुए से, मुझे स्वयं में खो देने के लिए बढ़े आ रहे हैं। जो किशोरावस्था में, यौवन-वसंत में कभी विचलित न हुआ वही ह्रदय मेरा, सारे बाँध तोड़ डालने के लिए विचलित है। रायन आज बौद्ध-मठ का सर्वेसर्वा है। सबके आदर और श्रद्धा का स्रोत है। उस स्रोत से अब करुणा और जन-हित का झरना बहता है।

अनाथालय में जैसे प्रेम और सुरक्षा की छत तानी है रायन ने इन बच्चों के लिए। लगता है जैसे एक परिवार जन्मा है। जहाँ मैं माँ हूँ रायन पिता है और ये बच्चे हैं छोटी छोटी आँखों विशाल भविष्य का सपना संजोए। जैसे कलकत्ता की थकान हवा बनकर उड़ रही है जैसे गुज़रा हुआ वसंत लौट रहा है जैसे जीवन का उत्साह फिर से जन्म ले रहा है। न जाने कितना समय बीत गया है इन बच्चों के बीच। यह बच्चों से मिलने की खुशी है या रायन से सान्निध्य की समझ नहीं पाती हूँ। इन अनाथ बच्चों के बीच जैसे मैं अपने जीवन की कड़ियाँ जोड़ रही हूँ। यहाँ बहते हुए झरने में प्रेम और संग की लड़ियाँ खोज रही हूँ! उसे छूने के लिए मानो उँगलियों के पोर नर्म हुए जा रहें हों... पसीजे जा रहे हों... मेरी बंद आँखें सिर्फ रायन की भौचक्की खुली आँखों को ही देखती है। कार्यक्रम के बाद भोजन हो जाने पर रायन ने जीवन भर का चुप तोड़कर केवल एक प्रश्न पूछा- चलें, मठ पर कुछ देर शांति से बैठें।

जीवन का सारा वसंत पार कर के आयी हूँ। इस वेला में जब सारा जीवन मौन बीता अब क्या कहना है बैठना तो शांति में ही है। एक शिला पर वह दूसरी पर मैं प्रकृति के विशाल विस्तार में स्वयं को खोजते हुए या एक दूसरे को खोजते हुए। हमारे चारों ओर हमारे प्रशंसकों की भीड़ का एक सागर है, हमारे चारों ओर हमारे कार्यों निरंतर निर्मित एक चौकस बाड़ है वह हमें एक दूसरे को खोजने नहीं देगी। हम इस संसार की नदी के दो किनारे हैं जो इस संसार को सहारा देंगे। हम एक दूसरे को देखकर जीवन पाते हैं नदी के लिए स्वस्थ खड़े रहते का। हमें साथ तो रहना ही होगा। भले ही दो अलग छोरों पर।

शायद रायन भी यही सोच रहा है। वह पहले की तरह आँखें झुकाकर बात नहीं करता है। वह सिर उठाकर बात करता है- "लंबी सर्दियों के बाद इस बार दार्जिलिंग में वसंत आया है। अच्छा हुआ वापस आ गयीं। बच्चों की देखभाल तुमसे बेहतर कौन कर सकता है। कलकत्ता के अस्पताल को संभालने वाले बहुत से लोग हैं पर यहाँ अनाथालय को संभालने वाला कोई नहीं। सुहास और भारती तुम्हारी सेवा में रहेंगे। बहुत पहले कुछ कहना चाहता था। पर साहस नहीं हुआ। मैं ठहरा भिक्षुक, इतना समर्थ नहीं था कि तुम्हारी जैसी कर्मठ डाक्टर, पत्रकार और समाज सेविका के लिए घर बना सकूँ पर अब तुम्हारे नाम का एक घर बनाया है। मेरे कामों की सराहना करती हो तो इस घर की देखभाल रखना। मुझे लगता है एक दूसरे का साथ हमें प्रेरित और उत्साहित रखता है। रह सकोगी दार्जिलिंग में? सर्दियाँ सहन न हों तो कलकत्ता चली जाना फिर आ जाना वसंत के उतरते ही।" रायन कहीं दूर देखता हुआ कह रहा था।

मेरी आँखें तरल हो उठीं शायद रायन की भी तभी तो वह दूसरी ओर देख रहा था।

दूर दूर खड़े दोनों तटों को सद्भावना का पुल जोड़ रहा था। बर्फ की नदी पिघल चुकी थी और वसंत उस पुल से होकर लौटने को था। क्या सचमुच लौटेगा वसंत?

१ फरवरी २०२१

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।