|
शीशी का गोलगट्ट ढक्कन अपनी कसी
और कड़क मुठ्ठी में भर कर ज़ोर से मरोड़ा - तिड़िक्! एक
छोटी-सी ध्वनि हुई, ढक्कन टूट गया। तब भी गुस्सा कुछ इसी तने
का ही आया था। एक कूदनी मार कर दुकान के काउंटर पर जा चढ़े और
जोर से पकड़ ले गावड़ी, फिर मरोड़ डाले इसी तने - तिड़िक! खेल
खतम!! चिक-चिक खलास!! ले साले, अब चढ़ा खात में झूठी-झूठी
तीन-तीन तरपीन के तेल की शीशियाँ, अरे, उधारी करनी पड़ती है।
धंधे में उतरा हर आदमी उधारी करता हैगा, नी तो जाय कहाँ? चाहे
किरौड़ीमल हो या छदम्मीलाल। पण, भइया इसका मतलब ये तो नी हुआ न
कि तू हमारा पटिया ही उलाल कर दे! न फिर तू भी समझ ले कि कम्मू
पेंटर ये कब्भी सहन नी कर सकता कि कोई उसको पोतता चला जाए और
वो चुपकी साधे बैठा रहे,
'अब्भी तक कोई सैंकड़ों के बोर्ड पोत डाले होंगे, तू हमें क्या
पोतेगा!' कम्मू पेंटर ने टूटे ढक्कन को झुंझलाहट की गिरफ्त में
फँसे हाथ से झटका दे दूर फेंका और तरपीन के तेल की ताज़ा शीशी
बगल में रख दी। फिर वार्निश का डिब्बा खोला और उसमें से
थोड़ा-सा कप में निकाल तरपीन मिला कर ब्रश से हिलाने लगा। उसे
उस बनिये पर खुर्राट-खीझ छूट रही थी, जिसने उसके साथ बेईमानी
कर ली थी।
|