लगता है कि व्यक्ति के
सुख को विस्तृत करके जन-जन में बाँटने की महती आकांक्षा
ने पर्वों एवं त्यौहारों का सृजन किया होगा क्यों कि जीवन
के क्षण-प्रतिक्षण को उत्सव एवं आनंद के रूप में जीने के
अभ्यासी थे भारतीय ऋषि। पर्वों का प्रारंभ कब से हुआ,
बता पाना कठिन है। इसका इतिहास संभवत: इतिहास लिखने की
शुरुआत से भी पहले का है अर्थात पर्व मानव जीवन में उस
काल से जुड़े हैं जिसके पहले वह स्वयं नहीं जानता था कि
आज कौन-सी तारीख है।
'पर्व' शब्द का अर्थ गाँठ, जोड़, हर्ष का अवसर, संधिकाल
इत्यादि लिया जा सकता है। कहा जाता है कि जैसे बांस का
एक कल्ला फूटता है तो एक ओर छूटता चला जाता है। पर्व इसी
प्रकार के विकास के सूचक हैं जो मनुष्य रूपी वंसवाड़ी
में विशेष समय पर आते हैं। इन क्षणों में नवसृजन की
संभावनाएँ रहती हैं।
पर्वों के महत्व को
समझने का मतलब है ऋतु परिवर्तन के महत्व को समझना। ऋतु
परिवर्तन जहाँ एक ओर प्रकृति के यौवन के शृंगार के लिए
होता है (बासी फूलों से प्रकृति का यौवन-शृंगार संभव
नहीं है) वहीं दूसरी ओर मनुष्य के जीवन में 'कालनेमि
चक्रेण' की सजग अनुभूति के लिए होता है। गाड़ी के पहिए
का हर एक हिस्सा घिस-घिसकर ही तो आगे बढ़ते हुए मंज़िल
तक पहुँचता है। ठीक इसी प्रकार मानव जीवन भी सुख-दुख
रूपी पहिए के द्वारा ही लक्ष्य तक पहुँचता है।
सभी ऋतुओं का अपना-अपना
महत्व है किंतु वसंत ऋतु को ही ऋतुराज कहा जाता है।
शिशिर का अंत वसंत का प्रारंभ है। वसंत नए होने का दर्द
है। फाल्गुन-चैत्र महीने (लगभग आधा फरवरी, पूरा मार्च और
आधा अप्रैल) वसंत ऋतु के महीने कहे जाते हैं। वसंत को नए
वर्ष का प्रारंभ कहना अजीब लगेगा क्यों कि लोगों को पहली
जनवरी को ही नयापन मान लेने की विवशता हो गई है, भले ही
पहली जनवरी को नयापन पेड़-पौधों में लगे या न लगे
क्यों कि लोग नया वर्ष मनाते हैं, मनाने का फैशन है और डर
भी है कि फाल्गुन-चैत्र के वसंत ऋतु को नया वर्ष मनाएँ
तो कहीं - ग्लोबलाइजेशन (विश्वग्राम) से बाहर न दिखने
लगें और बहुत पिछड़े यानी फिसड्डी न बन जाएँ, काली-काली
कोयल वसंत की मस्ती से अलसाई कमलिनी, धरती और आकाश को तो
पिछड़ने का भय नहीं है वे निर्भय वसंत में व्यग्र हो
उठते हैं, उनको अनुभूति होने लगती है कि भीतर कुछ अघटित
घटित हो रहा है। भीतर सब कुछ जैसे परिवर्तित हो गया है
और भला क्यों न हो, वसंत में होली के रंग-बिरंगे गुलाल
और अबीर ने विरहिनियों तक को भी अपने रंग में रंग लिया
है। साकेत में उर्मिला बोल उठती हैं :
काली-काली कोइल बोली
होली-होली-होली!
हँसकर लाल-लाल होठों पर हरियाली हिल डोली
फूटा यौवन, फाड़ प्रकृति की पीली-पीली चोली।
होली-होली-होली!
अलस कमलिनी ने कलरव सुन उन्मद अँखियाँ खोलीं,
मल दी ऊषा ने अंबर में दिन के मुख पर रोली!
होली-होली-होली!
रागी फूलों ने पराग से भर ली अपनी झोली
और ओस ने केसर उनके स्फुट-संपुट में घोली।
होली-होली-होली!
ऋतु ने रवि शशि के पलड़ों पर तुल्य प्रकृति निज तोली,
सिहर उठी सहसा क्यों मेरी भुवन-भावना भोली?
होली-होली-होली!
गूँज उठी खिलती कलियों पर उड़ अलियों की टोली,
प्रिय श्वास-सुरभि दक्षिण से आती है अनमोली
होली-होली-होली!
होली भारत के प्राचीनतम
उत्सवों में से एक प्रमुख उत्सव है। होली का आरंभिक शब्द
रूप 'होलाका' था। भारत के पूर्वी भागों में यह शब्द
विशेष रूप से था। जैमिनी और शबर का कथन है कि 'होलाका'
सभी आर्यों द्वारा संपादित होना चाहिए। काठकगृह में एक
सूत्र है - 'राका होलाके' जिसकी टीका की है देवपाल ने -
होला कर्मविशेष :
सौभाग्याय स्त्रीणां
प्रातर नुष्ठीयते।
तत्र होलाके राका देवता।
यास्ते राके सुमतय इत्यादि।
अर्थात होला एक कर्मविशेष हैं जो स्त्रियों के सौभाग्य
के लिए संपादित होता है, उस कृत्य में पूर्णचंद्र देवता
है। होलाका का स्थान उन बीस क्रीड़ाओं में से एक प्रमुख
क्रीड़ा का है जो संपूर्ण भारत में प्राचीन काल से
प्रचलित है। कई ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है
कि फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग शृंग यानी आजकल की
पिचकारी से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित
चूर्ण बिखेरते हैं।
लिंगपुराण में इस बात
का उल्लेख मिलता है कि फाल्गुन पूर्णिमा को फाल्गुनिका
कहा जाता है। यह बाल-क्रीड़ाओं से परिपूर्ण है और लोगों
को धन-धान्य से समृद्ध करने वाली है - फाल्गुने
पौर्णमासी च सदा बालविकासिनी। जेया फाल्गुनिका सा:च
ज्ञेया लोकविभूतये।
वाराहपुराण में भी
फाल्गुन पूर्णिमा को फाल्गुनिका कहा जाने का वर्णन और
'पटवास विलासिनी' अर्थात चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली
कहा गया है तथा लोक समृद्धि हेतु लोक कार्य की संज्ञा दी
गई है -
वाराहपुराणे।
फाल्गुने पौर्णमास्यां तु पटवासविलासिनी।
ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये।
प्राचीन शास्त्रकारों
ने स्पष्ट रूप से कहा है कि 'होलास्ति समता पर्वस्तछिने
योअन्यस्य वै असमता सुरत्वस्यदाह : कार्यो होलिकावत्'
अर्थात होली सभी प्रकार के राग-द्वेष से मुक्त समता के
धरातल पर सुख के मुक्त आदान-प्रदान का पर्व है। इस दिन
असमता रूपी असुरता का होली की तरह दाह करना चाहिए। जन-जन
को अपने भीतर की मलिनता को जलाकर भस्म कर देना चाहिए।
होली की परंपरा कब और
कैसे प्रारंभ हुई, इसके लिए पुराणों एवं धर्मशास्त्रों
में कई प्रकार की कथाएँ, किंवदंतियाँ भी प्रचलित हैं।
हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद की अत्यंत प्रचलित लोककथा से
हम सभी भली-भाँति परिचित हैं। भक्त प्रह्लाद की
एकनिष्ठता, दृढ़ता, सत्य और उनके मानवीय संवेदनाओं के
अस्तित्व को समूल नष्ट करने में जुटे हिरण्यकश्यपु के
संहार के लिए स्वयं भगवान को नृसिंह रूप में आना पड़ा।
आज भी होली के दिन हमारे मन में यह बात समा जाती है कि
भारतीय परंपरा, संस्कृति, सभ्यता एवं भाई-चारे की
भावनाओं को नष्ट करने में लगे राक्षसी संस्कार वाले
आतताइयों और आक्रांताओं का वही परिणाम सुनिश्चित है जो
हिरण्यकश्यपु का हुआ। अपने अस्तित्व के लिए छटपटाती
भावनाएँ प्रह्लादी चीत्कार बनकर उन्हें लील जाएँगी।
एक और कथा आती है।
धर्मराज युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन पूर्णिमा
को प्रत्येक गाँव और नगर में एक जैसा ही उत्सव क्यों
होता है, घर-घर में बच्चे रंगीन जल से क्रीड़ा करते हुए
अति प्रसन्न दिखाई देते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं?
उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसके द्वारा इस उत्सव
का प्रारंभ किया गया? यह अडाडा क्यों कही जाती हैं?
कृष्ण ने राजा रघु के
विषय में एक किंवदंती कही - राजा रघु के पास लोग यह कहने
के लिए गए कि 'ढोंढ़ा' नाम की एक राक्षसी बच्चों को
दिन-रात डराया करती है, उससे बच्चों की सुरक्षा की जाए।
'ढोंढा' के विषय में पता करने पर राजा के पुरोहितों ने
बताया कि वह मालिन की पुत्री राक्षसी है जिसे शिव ने
अमरता का वरदान दिया है। वह किसी भी अमोघ अस्त्र या अचूक
शस्त्र से भी नहीं मर सकती किंतु भगवान शिव ने इतना कह
दिया है कि -क्रीड़ायुक्त बच्चों से भयभीत हो सकती है।
पुरोहितों ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को
जाड़े की ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ होता
है तब लोग हँसे और आनंद मनाएँ तथा बच्चे लकड़ी, खरपतवार,
उपले इत्यादि इकठ्ठे कर रक्षोघ्न मंत्रों के साथ उसमें
आग लगाएँ खुशी से नाचें, गाएँ, तालियाँ बजाएँ और जब
अग्नि की लपटें ऊपर उठने लगें तब अग्नि की तीन बार
प्रदक्षिणा करें और अपनी मातृभाषा एवं बोली में
भद्दी-भद्दी अश्लील गालियों के साथ गाने गाएँ, तब जाकर
राक्षसी मरेगी। पुरोहित की बात सुनकर राजा ने वैसी ही
व्यवस्था की तो राक्षसी मर गई और वह दिन 'अडाडा' और
'होलिका' कहा गया।
इस उत्सव को 'मदनोत्सव'
या 'वसंतोत्सव' के रूप में भी मनाए जाने का वर्णन मिलता
है। फाल्गुन का महीना ही मदमस्ती से भरा होता है। अकबर
इलाहाबादी तो साल के बारह महीनों में फाल्गुन की बेसब्री
से प्रतीक्षा करते रहते थे। प्रकृति अपने आप बतला देती
थी कि लो फाल्गुन आ गया :
छिड़ा है राग भँवरे का
हवा की है नई धुन भी
गज़ब है साल के बारह
महीनों में ये फागुन भी
यह रंगे हुस्न गुल
सह अग्सए मस्तनाए बुलबुल
इशारा करती है फितरत
इधर आ, देख भी, सुन भी!
मौज-मस्ती,
आनंद-उल्लास, भीतर-बाहर से एक रंग; जात-पांत, छुआछूत,
छोटे-बड़े, धनी-गरीब के भेद को एकदम भुलाए हुए होली का
त्यौहार आज भी भारत के सभी प्रांतों में तो मनाया जाता
है। विदेशों में भी जहाँ भारतीय मूल के लोग बसे हैं,
होली की परंपरा है।
फरवरी दो हज़ार में
द्वितीय विश्व भोजपुरी सम्मेलन के अवसर पर मॉरिशस जाना
हुआ था। वहाँ के तीज-त्यौहार, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ
इत्यादि को देखते हुए तथा वहाँ के लोगों से बातचीत करने
पर ऐसा लगा कि मैं दूसरे भारत में हूँ। दशहरा, दीपावली,
होली, शिवरात्रि एकदम भारत जैसे ही मनाई जाती हैं।
भारतीय परंपरा मॉरिशस के अतिरिक्त सूरीनाम, त्रिनिनाद,
फीजी इत्यादि देशों में पूर्ण सुरक्षित है।
होली उमंग एवं उत्साह
का त्यौहार है, इस दिन बदरंग होकर भी हम कितने रंगों से
लबालब लगते हैं जिसकी सहज अनुभूति तो केवल होली के दिन
ही हो पाती है। देखने में लगता है कि उन्माद का ज्वर बढ़
गया हे, पर होली में गाए जाने वाले होली गीत (फगुआ) इसी
तान पर टूटते हैं - सदा आनंद रहै यहि द्वारे मोहन खेले
होरी।
सदाआनंद लोकमंगल का ही
परिचायक है। भारत के कुछ प्रातों में होलिका के दिन ही
रंग, गुलाल, अबीर एक-दूसरे पर फेंका, लगाया और पोता जाता
है। कहीं-कहीं रंग-गुलालों के खेल फरवरी के अंतिम सप्ताह
से ही प्रारंभ हो जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते हैं।
ब्रजमंडल की होली संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।
शिव-चौदस को महादेव जी का व्रत रखकर अमावस को बमभोला
मनाते हैं। उसके बाद होली तक के पंद्रह दिन ब्रज में
बहुत ही चहल-पहल रहती है। गाँव-गाँव के घर-घर में
स्त्री-पुरुषों की छेड़छाड़, रंग-गुलाल और पानी की बौछार
में डफ, ढोल, करताल और चंग द्वारा होली के अनेक गीत गाए
जाते हैं। प्रत्येक मंदिर में भी होली के उत्सव मनाए
जाते हैं, गायन और नृत्य भी होता है। पुरुषों द्वारा डफ,
करताल के साथ होरियाँ गाई जाती हैं :
ब्रज में हरि होरी
मचाई।। (टेक)
इतते निकसी सुघर राधिका, उतते कुँवर कन्हाई।
खेलत फाग परसपर हिलमिल सोभा बरनि न जाई
नंद घर बँटति बधाई।।
बाजत ताल, मृदंग, झांझ, डफ, मंजीरा, सहनाइ।
उड़त गुलाल, कुमकुमा, केसर, रहत सकल ब्रज छाई।।
मनो मेघवा झरि लाई।।
बरसाने की लठमार होली
पूरी दुनिया में जानी जाती है। इसको देखने के लिए विदेशी
भी आते हैं। राम और सीता के होली खेलने का वर्णन
लोकगीतों में मिलता है। रामचंद्र जी अवध में होली खेलते
हैं। किसके हाथ में सोने की पिचकारी है, किसके हाथ में
अबीर है। राम के हाथ में सोने की पिचकारी है तो सीता के
हाथ में अबीर। रामचंद्र जी पिचकारी में रंगीन पानी भरकर
सीता जी को भिगोने में लगे हैं, दोनों एक-दूसरे पर
खुशियाँ लुटा रहे हैं :
होरी खेले रघुबीरा अवध
में होरी।
केकरा हाथ कनक पिचकारी;
केकरा हाथ अबीर।
राम के हाथ कनक पिचकारी;
सीता के हाथ अबीर।
होरी खेले रघुबीरा अवध में होरी।
उत्तर प्रदेश के
पश्चिमी और पूर्वी अंचलों में होली मनाने में अंतर दिखाई
देता है। पूर्वांचल के कई जनपदों में होलिका दहन के
दूसरे दिन रंग खेला जाता है। दोपहर तक कीचड़ और यहाँ तक
कि गंदी नाली के मलबे को भी एक-दूसरे पर फेंकने में
हिचकिचाते नहीं और कोई बुरा भी नहीं मानता है। दोपहर के
बाद एक-दूसरे पर रंगीन पानी फेंका जाता है। सायंकाल गाँव
और शहर के फाग यानी होली गीत (फगुआ) गाने वाले समूह में
ढोल, करताल, मंजीरा बजाते हुए, कबीरा गाते हुए एक-एक
दरवाज़े पर थोड़ी देर बैठकर गाते हैं। स्त्रियाँ भी
सायंकाल घर-घर घूमकर अंगनिया में फगुआ गाकर आनंद लेती
हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दोपहर तक अबीर और रंगीन
पानी से होली खेली जाती है और सायंकाल नए कपड़े पहनकर
लोग एक-दूसरे के यहाँ जाकर या किसी सार्वजनिक स्थान पर
एक-दूसरे से गले मिलते हैं। बड़ा ही हर्षोल्लास का
वातावरण हो जाता है।
किंतु कहीं-कहीं ऐसा भी
सुनने को मिल जाता है कि कुछ लोग पुराने वैर-वैमनस्य को
लिए हुए एक-दूसरे पर रासायनिक पदार्थों से बने हुए रंग,
पेंट, वार्निश या अन्य लेप लगा देते हैं कि आदमी का
चेहरा विकृत हो जाता है, आँखों में बीमारियाँ हो जाती
हैं। कभी-कभी तो शराब के नशे में धुत्त होकर जानलेवा
हमले भी हो जाते हैं और रंग में भंग की कहावत चरितार्थ
हो जाती है। हम सभी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम
ऐसा कुछ न करें कि भारतीय परंपरा में ठहराव आ जाए। रंगों
का यह त्यौहार बदरंग न हो जाए। मस्ती पर बदमस्ती न हावी
हो जाए। शील का यह मिलन अश्लील घात न बन जाए। होली खेलने
का आनंद तभी आएगा जब गुलाल हमारे पूरे वर्ष के मलाल को
मिटा दे। ईर्ष्या-द्वेष से मन इतना खाली हो जाए कि हम कह
सकें :
भरि देहु गगरिया हमारी
अहो बनवारी!
जब तक विकारों से मन को खाली नहीं करेंगे तब तक बनवारी
मन की गगरिया को प्रेम के रंगीन जल से भरेगा नहीं। हम
ललकार भी नहीं पाएँगे :
हो दिसंबर में मुबारक
यह उछलकूद आपको
खून मुझमें भी है
लेकिन मुझको फागुन चाहिए! |