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पहाड़ पर वसंत
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दीपिका ध्यानी घिल्डियाल
हे जी सार्यूं
मा फूलीगे ह्वोलि फ्योंली लयड़ी मैं घौर छोड्यावा
हे जी घर बौण बौड़ीगे ह्वोलु बालो बसंत मैं घौर छोड्यावा
(सुनो प्रिय! खेतों में सरसों और फ्योली खिल गई होगी, गाँव घर
में वसंत लौट आया होगा, मुझे गाँव छोड़ आओ) अब पूरा वसंत इसी
गीत को सुनते हुए बीत जाना है।
वसंत पहाड़ में किसी नई नवेली दुल्हन की तरह चलते हुए उतरता है,
दबे पाँव। माघ के महीने कड़क ठण्ड पड़ती, गाँव के घरों की छतों
से लेकर चीड़, बांज, बुरांश के पेड़ों की टहनियों तक बर्फ से
लकदक रहते। फागुन लगते न लगते ये बर्फ पेड़ों के नीचे मिटटी में
जाकर घुल जाती और फिर उस मिटटी से फूटने लगते नए पौधे, नई घास
जिन्हें हम वनस्पता कहते। पतझड़ में अपनी पत्तियाँ खो चुके
पेड़ों में फिर से कोंपलें फूटने लगती, हवा की बर्फीली चुभन अब
एक नरम फाहे में बदल जाती और हम जान जाते कि मौल्यार यानी वसंत
आने को है।
फिर किसी चमकीली सुबह जब आँख खुलती तो यूँ होता कि आँगन में
लगे आड़ू के पेड़ पर छोटे छोटे गुलाबी फूलों का कब्ज़ा हुआ होता।
मैंने अब तक जितने भी रंग देखे हैं, मुझे आड़ू के फूलों का ये
गुलाबी रंग सबसे ज्यादा प्रिय है। हम ख़ुशी से चिल्लाते बाकी
साथियों को जगाते हुए सारी (पहाड़ के सीढ़ीदार खेत) की तरफ
भागते। इतने रंग कि आँखें चकमक होने लगतीं। खेतों की दीवारों
पर फ्योली की पीली चादर बिछी होतीं, किनारों पर मेलु के पेड़
झक्क सफ़ेद फूलों का भार सँभालने में परेशां नज़र आते और ग्वीराल
के गुलाबी सफ़ेद फूल अपने मीठे स्वाद के साथ ललचा रहे होते। हम
फूल खाते थे? हाँ हम फूल ही नहीं कुछ खट्टी घासें भी खा जाया
करते थे।
पहाड़ पर वसंत जैसे घाव भरने उतरता था। सर्दियों में बच्चों के
गाल फट जाते, औरतों के पैरों की बिवाइयाँ इतनी गहरी हो जाती कि
खून रिसता रहता, वसंत इन बिवाइयों में मरहम बनकर उतरता। बच्चों
के गालों में मलाई मक्खन बनकर समा जाता। यहाँ तक कि पूरे साल
के विरह के घाव भी वसंत ही भरता क्योंकि बैसाख में मेले लगते
और दूर देस कमाने गए गाँव के पुरुष मेलों के लिए जरूर घर आते
सो वसंत उनके आने की खबर लेकर आता था।
चैत्र का महीना जिसे पहाड़ में चैत कहते हैं अपने साथ बहुत सारा
उल्लास लेकर आता। चैत के महीने की संक्रांति को हम फूल
संक्रांति के रूप में मनाते जिसकी तैयारियाँ एक हफ्ते पहले से
शुरू हो जाती थीं। घर के हर बच्चे के पास बाँस की छोटी सी
डलिया होती जिसे मिटटी से अच्छी कपब लीप पोतकर सुखा देते।
संक्रांति की सुबह घर में पुए पकौड़े बन रहे होते और हम नहा
धोकर अपनी अपनी डलिया लेकर खेतों में निकल पड़ते, फूल चुनने।
गाँव के हर घर की देहरी पर फूल डालते, फूलदेई के गीत गाते और
बदले में पकौड़े, टॉफी या कभी कभी पैसे भी पाते थे। उस दिन हर
घर की देहरी फूलों से सजी होती, हम सबके चेहरे भी फूलों जैसे
होते। गाँव के औजी (ढोल बजाने वाले) गाँव के हर घर की देहरी पर
ढोल दमाऊ बजाते और अपनी भेंट पाते। भेंट में कुछ अनाज,
सब्जियाँ, दालें और मसाले होते। हम भी झुण्ड बना उनके पीछे
पीछे चलते। ये हमारे लिए खुद का बनाया त्यौहार होता।
नई ब्याहताएँ सर्दियों में मायके जातीं और मौल्यार में लौट
आती। साथ लाती अरसे और भूड़े पकौड़ों का कलेवा। मायके आई बेटियों
को विदा करने के लिए भी यही सब बनता। गाँव की हवा में गुड़ के
पाग की भीनी सुगंध छाई रहती। धान जिसे हम सट्टी कहते रात भर
पानी में भिगोये जाते, फिर दोपहर बाद गाँव की औरतें दो के जोड़े
में उन्हें ओखली में कूटती। मूसल के गिरने और उठने में एक लय
होती, हम ओखली को घेरे बस उस संगीत को सुना करते, और लार
टपकाते रहते कि कब हमें चिवड़ा मिले। औरतों की आँखें ज्यादातर
नम ही मिलतीं। कभी किसी के आने की ख़ुशी में नम होतीं तो कभी
किसी की विदाई में। हम बच्चे इस सबसे दूर कभी फ्योली तो कभी
सकिना, ग्वीराल के फूल खाते खेत दर खेत डोलते रहते।
चैत के महीने दादियों की सख्त हिदायत कि ये भूतों और परियों का
महीना है, खबरदार जो जंगल जगल डोलते फिरे। बाल खुले रखने की तो
सख्त मनाही थी। कहते थे कि ऐसा करने से परियाँ हर लेंगी। हरना
तो दूर हमें तो कभी किसी परी ने दर्शन तक नहीं दिए। मौल्यार
आती, फिकवाल आते और गाँव भर के बच्चे मारे ख़ुशी के बौरा जाते।
सबसे पहली अनोखी बात होती फिकवालों का पहनावा । सफ़ेद कुरता,
सूती धोती, जवाहर वास्कट और सर पे काली पहाड़ी टोपी। कंधे से
लटकता एक झोला और हाथों में चढ़ाई चढ़ने के लिए डंडा। इस पहनावे
में ये लोग अलग ही नज़र आते। दूसरी बात कि इनकी बोली हमसे काफी
अलग होती। जहाँ हमारे इलाके की गढ़वाली लठमार है, इन लोगों की
गढ़वाली एकदम मीठी, गुड़ जैसी।
फिकवालों के गाँव में आने की खबर भर से हम सब बच्चे उधर भागते
जहाँ वो हर साल ठहरते। उस शाम फिकवाल गाँव भर से अन्न, मसालों
और तेल वगैरह की भिक्षा माँगते, और हम उनके खाना बनाने के लिए
पानी भर लाते। हम उस रात अपने घरों में जल्दी खाना पकाये जाने
की जिद करते क्योँकि खा पी कर हमें फिकवालों के पास जाना होता,
जहाँ कि रिवाज़ के मुताबिक, खा पीकर फिकवाल लोग सारे गाँव के
लोगों को कथा सुनाते।
क्या मज़ेदार
कहानियाँ होती थीं उनकी। राजा, रानी, भूत-प्रेत और जंगली
जानवरों की। क्या मीठी लय होती थी सुनाने वाले की कि जैसे
आँखों के आगे ही सब हो रहा हो। उनकी कथा सुनने को पूरा गाँव
जमा हो जाता। क्या मर्द, क्या औरतें और क्या बच्चे, सब को
कहानी सुनने आना होता था। फिकवाल जब कहानी सुनाना शुरू करते तो
सब एकदम चुप हो जाते। बस बीच बीच में बूढ़े फिकवाल के हुक्के की
गुड़ गुड़ सुनाई देती। औरतें कथा सुनते हुए हुंगरे देती, मतलब
हूँ हूँ करके कथा सुनाने वाले को बताती कि तुम बोलते रहो हम
सुन रहे हैं। कई बार कथा में जब भावुक मोड़ आता तो हमारी
दादियाँ, माताएँ और चाचियाँ साड़ी के पल्लू से आँसूं पोंछती
दिखती। कोई जादू वाली बात होती तो मुँह खोले हैरान होतीं।
कथा पर कथा के दौर चलते। हुक्के और चाय के भी। इस दौरान जब कुछ
देर रुकते तो गाँव भर की औरतें उनसे हाथ देखने की मिन्नत
करतीं। साफ़ मन की इन पहाड़ी औरतों के जीवन में इतनी निश्छलता
होती कि कोई भी बस उनकी आँखों में देखकर उनका भूत और भविष्य
बता देता। फिकवाल भी कुछ लच्छेदार बातों में पिरो कर यही करते
और औरतें उन्हें सिद्ध तक कह देतीं। इसी तरह एक रात में जाने
कितनी कथाएँ सुनकर सब घरों को लौट जाते।
अगली सुबह, नाश्ते के बाद फिकवाल विदा लेते, गांव भर की औरतें
उन्हें फिर आने का न्यौता देतीं, ऐसे भावुक होतीं जैसे कोई
उनके मायके से आया हो और अब जा रहा हो, हम अगली बार फिर मिलने
की आस लिए उन्हें दूर तक ओझल होने तक देखते। वसंत जब चरम पर
होता तो ऐसा लगता जैसे फूलों की एक झीनी चादर ने पूरा गाँव ढक
लिया है। क्यारियों में धनिया, मूली और मटर के पौधे तक छोटे
छोटे सफ़ेद फूलों के गुलदस्ते बने नज़र आते। इस तरह हर घर, खेत,
क्यारी, पेड़, पहाड़ और चेहरे पर वसंत आता, खुलकर खिलता और
खिलखिलाता।
पहाड़ का जीवन बस
ऐसा ही है। हर मौसम को पूरी शिद्दत से महसूस करवाता हुआ। और हम
पहाड़ी? चाहें कहीं चले जाएँ ये शिद्दत हमें कचोटती रहती है।
मैं हर वसंत गमलों में थोड़ी सी मौल्यार बो देती हूँ इस उम्मीद
में कि कुछ मेरा भी मन मौल जाय लेकिन मुट्ठी भर मिटटी में कहाँ
मौल्यार फूटती है। ये तस्वीर कल शाम भाई ने भेजी है, मेरे घर
के आँगन की एक छोटी सी झलक, सबको मौल्यार मुबारक
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