| 
                        
                          |  | रंग 
                            बोलते हैं-जयप्रकाश मानस
 |  
                          | सर्वत्र व्याप्त शून्यता से 
                      सिरजनहार अकुला उठे। अकुलाहट कौतूहल में तब्दील हो गई। 
                      कल्पना ने पहली बार अंगड़ाई ली। आड़ी-तिरछी रेखाएँ उभर आईं। 
                      आकृति का अवतरण हुआ। रूप था पर श्रीहीन। उत्कंठा कुलबुलाने 
                      लगी -ऐसा कैसे चलेगा? आसपास माटी के अलावा कुछ भी न था, सो 
                      वे उसे ही चुटकी में लेकर भरने लगे।  |  रूप-रंग का साथ पाकर विहंस 
                      उठा और सिरजनहार उमंग से। रंग एवं उमंग के योग से पथिक, 
                      पर्वत, पादप, पशु-पक्षी और अनगिनत कृतियों का संयोग हुआ। 
                      प्रसन्न रंगों से जीवन का राग उमगने लगा। रंग सृष्टि से 
                      बतियाने लगे। सृष्टि रंगों में गुनगुना उठी। एकरसता के 
                      घटाटोप से संसार विमुक्त हो उठा। स्रष्टा के रंग-संधान पर 
                      कविता भौंचक्की रह गई -केशव कहि न जाय का कहिये
 देखत तव रचना विचित्र अति समुझि मनहि मन रहिये
 शून्य भित्ति पर चित्र रंग नहीं केहि विधि लिखा चितेरे (विनयपत्रिका)
 रंग सत्य है। रंग आनंद है। 
                      रंग ही सौंदर्य है। रंग-विमुखता अंधकार है, सो आदिदेव भोले 
                      शंकर ने अपनी देह को श्मशान-धूलि से रंग लिया। परित्यक्त रंग 
                      त्रिपुंड बन गया। विष्णु को प्रजा की अनंत कामनाओं के 
                      संरक्षण का भावबोध था। ऐसे में उन्हें अनंत का नीला रंग ही 
                      रूपानुकूल लगा। नील सरोरूह नील मनि नील नीरधर स्याम। ब्रह्मा 
                      सबसे सयाने थे। सयानों को सयाना रूप-रंग ही शोभा देता है। 
                      जीव-अजीव, जितने रूप उतने रंग। सबका अपना-अपना रूप, 
                      अपना-अपना रंग। रंग नाम बन गया। रंग पहचान बन गया। हरे रंग 
                      से आच्छादित पृथ्वी को 'हरि' कहा गया। हरिताभ के कारण दूर्वा 
                      के लिए 'हरिद्रा' नाम स्वीकृत हुआ। नीलता से नीम का पौधा 'नीलिका', 
                      पीतता से सोनजूही 'पीतिका' हो गई। कपोत, सारस, चकोर जैसे 
                      पक्षियों को रक्तिमवर्णी आँखों के लिए रक्ताक्ष की संज्ञा 
                      मिली। संसार की अनेक भाषाओं में ऐसे बहुत सारे शब्द हैं, 
                      जिनका नामकरण संस्कार उनकी रंगत के आधार पर हुआ है। दरअसल रंग ही पदार्थ की 
                      अस्मिता है। रंगहीन स्वरूप की कैसी प्रतिष्ठा, उसकी कल्पना 
                      भी कैसे की जा सकती है, यानी काल्पनिक उपस्थिति! यही निराकार 
                      निर्गुण का चरित्र है। यह निर्गुण हमारे निकट ही अदृश्य में 
                      कहीं हो सकता है, पर हम उसके निकट स्वयं को नहीं देख पाते। 
                      अदृश्य की निकटता में मन रमे तो कैसे रमे? मन तो रंग-रूप 
                      वाले राम में रम सकता है, कन्हाई के रंग में सराबोर हो सकता 
                      है। यह निर्गुण राम या कृष्ण की शाश्वतिक स्थापना का 
                      प्रतिकार नहीं। यह तो उस सगुण राम या कृष्ण का स्वीकार है जो 
                      अपनी मौलिक अनुपस्थिति के बावजूद आज भी मन में बसे हुए हैं। 
                      लोकमन है कि उनसे विलग होना ही नहीं चाहता। वह विलग हो भी 
                      कैसे सकता है? राम का रंग-रूप उसे अपनी ओर बांधे रखता है। 
                      कृष्ण का रंग-रूप उसे अपनी ओर जोड़े रखता है। अजीब है उनके 
                      रंग-रूप का सम्मोहन, नाम धरते ही मन अयोध्या हो जाता है, तन 
                      गोकुल-वृदांवन हो जाता है। रंग-रूप के बगैर कैसी अनुरक्ति, 
                      कैसी भक्ति? बगैर रंग-रूप कैसी अभिव्यक्ति? रंग और रूप एक दूसरे के 
                      पड़ोसी हैं। रंग-रूप का शृंगार है और रूप रंग का आधार। रंग 
                      ही रूप की अन्विति है। रंग का अर्थ 'प्रभाव' भी है। चित्त के 
                      आकर्षण, विकर्षण और तटस्थ वृत्ति का निमित्त रूप लावण्य है 
                      और रूप-लावण्य में रंग की भागीदारी सर्वोपरि है। स्वप्नों 
                      में रंग ही उन्मीलित होते हैं। ये रंग हमें दूसरे लोकों के 
                      संसार से घुमा लाते हैं। ये रंग भविष्य का दूत बनकर हमें 
                      इशारा करते हैं - हम स्वयं अपने प्रयत्नों से जीवन का लक्ष्य 
                      प्राप्त करें। उत्कर्ष के संघर्ष में जीवन को गतिमान बनाएँ। 
                      रंग जीवन है! जीवन में राग है - रंजयति इति राग:। रंगानुभूति 
                      की यात्रा रसानुभूति तक पहुँचाती है। दृश्य भी श्रव्य के चरम 
                      तक ले पहुँचाता है। अपने मौलिक भाव में राग दृश्य है रंग है। 
                      संगीतशास्त्र में पारंगत विद्वानों ने कहा है - रागों में 
                      रंग की उपस्थिति है। राग बेला के अनुशासन में बाँधे गए हैं। 
                      हर बेला दृश्यों, रंगों से ही संलक्ष्य होता है। अब यह अलग 
                      बात है कि भाषा में रंग चित्रात्मक विधा और राग संगीतात्मक 
                      विधा के लिए रूढ़-प्रयुक्ति हो गई। रंगों के बिना किसी का कारज 
                      नहीं बनता। हर प्रसंग की परिणति मन के लिए उच्चाटन सिद्ध 
                      होती है। गोपियाँ व्याकुल होकर गोकुल के रंगनाथ कन्हाई को 
                      ढूँढती फिरती हैं। तर्कवादी उद्धव के ज्ञान से भी समाधान 
                      नहीं मिलता। रंग जीवन का स्वभाव जो है। संभाव जो है। बगैर 
                      रंग के कोई रह कहाँ सकता है, जैसे वह प्राण हो (हाँ! रंग 
                      प्राण ही हैं, खैर इसकी चर्चा हम आगे करेंगे) आकाश जाने कब 
                      से अपनी रिक्तता की क्षतिपूर्ति सुबह-शाम सुनहले रंग से करता 
                      आ रहा है। शाम ढलते ही रंग-बिरंगे सितारे लाइट शो से उसका 
                      मनोरंजन करने चले आते हैं। गगनबिहारी बहुरंगी मेघ कलाबाज़ी 
                      दिखाकर धरतीपुत्रों को कभी चौकाते हैं, कभी हँसाते हैं। रंग 
                      भोर होते ही चहचहा उठते हैं। उड़द-मूँग आँगन में सुखाने 
                      फैलाया नहीं कि कुछ रंग फिर चले आते हैं और अपने हिस्से का 
                      दाना रंगीन चोंच में दबाकर फुर्र से उड़ जाते हैं। 
                      पीले-परिपक्व धान खेत की तीर्थयात्रा से कुँआर-कार्तिक में 
                      जब घर लौटते हैं, तो गाँव गमगमा उठता है। माँएँ अक्षत, 
                      हल्दी, कूंकुम, चंदन से तुलसी की आराधना करती हैं। रंगोली से 
                      आँगन खिलखिला उठता है। पूतों के मस्तक पर सिंदूरी रंग तिलक 
                      बन जाता है। बूढ़ी दादी शिशु की ठुड्डी पर नज़र न लगने वाला 
                      रंग लेप देती है। लोक का चितेरा भी कहाँ चुकता है? भित्तियों 
                      पर सुआ, पेड, नंदिया बइला, चटक रंगों में जीवंत हो उठते हैं। 
                      नाच-नाचा की ख़बर पाते ही गाँव के गाँव उमड़ पड़ते हैं। बड़े 
                      झुलझुले लौटते वक्त उन्हें देखें तो भोर के सूरज का रंग और 
                      उनके भीतर पहुँच रहे हरिश्चंद्र, वीर अभिमन्यु तारा, विदुर 
                      आदि का रंग एक-सा प्रतीत होता है। हमारे कवियों की मान्यता है 
                      - फूल नहीं रंग बोलते हैं। बगिए से जो हो आए हैं, वे बखूबी 
                      जानते हैं कि फूलों की बहुरंगी बोली में कितनी सरसता है, 
                      कितनी लचक है! चंपा-चमेली से भौंरों की चुगली कर रही है। 
                      गेंदे और सूरजमुखी में गलबांही हो रही है। मधुमालती दूर्वा 
                      की पीठ थपथपा रही है। शायद इसलिए कि वह रोज़-रोज़ पाँवों से 
                      कुचले जाने पर भी उगना नहीं छोड़ती। वह है कि बार-बार नई 
                      होकर चली आती है। दूर्वा अदम्य जिजीविषा का प्रतीक है। पराजय 
                      स्वीकारती ही नहीं। उसमें व्याप्त हरीतिमा उसे सर्वदा जीवन 
                      रस देती है कि लघुता में भी हरे-भरे रहो, आघातों को सह लो, 
                      किंतु टूटो नहीं, पुन:-पुन: उठो, और ऊपर उठो। बगिया 
                      प्रकारांतर से रंगों की बस्ती है, जहाँ हर रंग अपनी धुन में 
                      मगन हैं। किसी का किसी से कोई बैर नहीं। जहाँ सब कुछ संयोजित 
                      है। कदाचित इसी रंग संयोजना से मौमाखियाँ अंत:प्रेरित होकर 
                      खिंची चली आती है। संयोजन के समर्थक अतिथियों को ये फूल 
                      क्यों कर मकरंद की सौग़ात देना भूल जाएँ। वही सौग़ात छत्तों 
                      में शहद बन जाती है। रंग कहाँ नहीं है? सारा 
                      संसार रंगमय है। रंग रसोईघर के मसालों में भरे हैं। फलों और 
                      साग-भाजियों में उनकी गहरी पैठ है। परिधानों से तो जैसे वे 
                      लिपट ही गए हैं। रंग बहन-बेटियों के शुभ प्रतीक हैं- वे 
                      पावों में महावर, हाथों में मेहंदी, होठों पर लाली, माथे में 
                      बिंदिया, आँखों में काजल बनकर जब तक साथ देते रहेंगे, कौन 
                      उनकी मुस्कान को बदरंग कर सकता है? प्रकृति में महावर की 
                      विजय-यात्रा पर महाप्राण निराला बेला में लिखते हैं-जावक जय सुमनों परछाई।
 पुलक पलाश डाल कलिआई।
 सोने-चाँदी के रंगों के 
                      लालच में ऐसे महनीय रंगों का विध्वंस कर देने की चेष्टा 
                      प्राकृतिक अराजकता है। इन भिखारियों के घर सुनहरे रंगों वाली 
                      पेटियाँ ज़रूर पहुँच सकती हैं, पर हाथ लगेगा मात्र एकरसता का 
                      रंग-नीरस, ऊबाऊ और आत्महीन। रंगमुक्त केवल दो चीज़ें हैं 
                      -हवा और पानी। इनका रंग बदलना विपदा का संकेत है। कदाचित 
                      प्रकृति ने इन्हें मानव-जीवन की सरलता के लिए रंग-मोह से 
                      विलग रखा है। अब पारंपरिक रंगों की जगह रासायनिक रंग ले लें, 
                      तो इसमें भला प्रकृति का क्या दोष? आज का मानव गिरगिट बन 
                      चुका है। वह पंचतंत्र के उस शृगाल-सा बन चुका है, जो यह भूल 
                      गया था कि ओढ़ा हुआ रंग स्थायी नहीं होता। जिसे कलियुग कहा 
                      जा रहा है, यह दरअसल काला युग है, काले रंग से ग्रस्त। काले 
                      रंग के इंद्रजाल में हर कोई उलझा-उलझा नज़र आता है। तन काला 
                      हो जाए तो उसे धोया जा सकता है। संकट तो यहाँ कालेमन का है 
                      और मन की कालिमा की ओर नज़रअंदाज़ करना महासंकट। जब धवल रंग 
                      सहित सारे रंगों की पुकार या प्रकार को ही काला रंग लीलता 
                      चला जा रहा है, तब इस काले युग से निजात पाने का पथ कैसे 
                      ढूँढ़ा जाय, यह आज की सबसे बड़ी चिंता है। कैसा है रंग का चरित्र? 
                      रंगों का जन्म आँखों में होता है। यह दृष्टि और द्युति का 
                      खेल है। द्युति की अनुपस्थिति में रंग-सिद्धि नहीं होती। 
                      दृष्टि-दोष से रंग बेमतलब हो जाता है। प्रकाशन ही रंग का 
                      प्रमाण है। सूर्योपनिषद में कहा गया है- सूर्य ही हमारे 
                      चक्षु हैं। सूर्य चक्षु के अधिष्ठातृ देवता हैं। सूर्य विश्व 
                      के समस्त रूपों का केंद्र है। रंग और आकृतियाँ सूर्य से 
                      उत्पन्न और प्रकाशित होती हैं। एक सूर्य ही है, जो समस्त 
                      विश्व का प्राण रूप है। इसके समान अन्य कोई भी जीवनी-शक्ति 
                      नहीं है-विश्वरूपं हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम्।
 सहस्त्र रश्मि: शतधार वत्तमान: प्रजानामुदयत्येष सूर्य:। (प्रश्नोपनिषद 
                      प्रथम प्रश्न ८)
 चक्षु भी सूर्य की उदारता 
                      से रूप की प्रकाशक ज्योति है। इसलिए ज्योति की उपासना में 
                      चक्षु और सूर्य को 'स्व:' स्वरूप समझना चाहिए। स्व: यानी 
                      परमेश्वर के विराट स्वरूप का प्रदर्शन करने वाली सत्ता। 
                      तैत्तरीयोपनिषद के पंचम अनुवाक में वर्णित है -सुवेरित्यसौ 
                      लोक: अर्थात स्व: ही स्वर्ग लोक है। सूर्य-प्रकाश जहाँ-जहाँ 
                      फैलता है, वहाँ-वहाँ नयी स्फूर्ति, नई चेतना का भाव जागता है 
                      (यत्सर्वं प्रकाशयति तेन सर्वान् रश्मिषु संनिधत्ते) उत्थापन 
                      प्राण का प्रमुख गुण है। इसलिए सूर्य ही प्राण है। प्राण के 
                      पाँच रूपों की बात ग्रंथों में मानी जाती है- आदि प्राण, 
                      अपान, समान, व्यान और उदान। अमृतनादोपनिषद का अभिमत है कि 
                      आदि प्राण हृदय में, अपान गुदा में, समान नाभि तथा उदान कंठ 
                      में केंद्रित होता है। इन सभी प्राणों के रंगों के विषय में 
                      चर्चा की गई है- आदिप्राण लाल रंग की मणि सदृश, अपान 
                      बीरबहूटी कीट के सदृश लाल, समान गोदूध के सदृश उज्ज्वल, उदान 
                      धूसर तथा व्यान अग्निशिखा के सदृश प्रकाशमय। उपनिषदों के 
                      मतव्यों का निष्कर्ष यही है कि रंग हमारे प्राण हैं। प्राणों 
                      में रंग हैं। सूर्योपासना में प्राणों की अभ्यर्थना 
                      अंतर्भुक्त है। क्यों कि प्राण ही सत असत एवं उससे भी श्रेष्ठ 
                      अमृतमय परमात्मा है। यही संकेत पाकर सारे देवगण भी अंतत: 
                      प्राण देवता की शरण में चले आते हैं।प्राणे स्येदं वशे सर्वं त्रिदेव यत्प्रतिष्ठितम्।
 मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्च प्रज्ञां च विधेहि न इति। (प्रश्नोपनिषद्, 
                      द्वितीय प्रश्न, १३)
 ओल्ड टेस्टामेंट में लाल, 
                      नीले, बैंगनी और सफ़ेद रंगों को क्रमश: अग्नि, वायु, जल और 
                      पृथ्वी तथा इन सब रंगों के समूह को ईश्वर का प्रतीक निरूपित 
                      किया गया है। रंगों की शुद्धता में भावों की सूचना मिलती है। 
                      प्रत्येक रंग का एक विशिष्ट भाव होता है, जो मानसिक भावनाओं 
                      के उद्वेलन का कारण भी है। पीला अनुराग, उत्तेजना, काम, 
                      क्रोध, संकट का रंग है। नीले रंग से धैर्य, असीम विस्तार एवं 
                      प्रशांति का बोध होता है। काले रंग को अंधकार, निद्रा, 
                      अज्ञान, विरोध, भय का प्रेरक माना गया है। हरा रंग प्रकृति 
                      एवं हरियाली का प्रतीक है। बैंगनी शान, महत्ता, सत्यान्वेष, 
                      उच्चतम मर्यादा को दृढ़ बनाता है। नारंगी रंग पीले और लाल 
                      रंग का योग है। फलत: यह दोनों रंगों के गुणों का भी योग है। 
                      सफ़ेद रंग एकता, सत्यता, शुद्धता एवं उज्ज्वलता का रंग है। 
                      गुलाबी रंग कोमलता और सुंदरता का इशारा करता है। रंगों का मिलन रंगोत्सव बन 
                      जाता है। चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने हर कोई रंगों से भींज 
                      उठता है। चेहरे ऐसे रंगारंग हो जाते हैं कि वय, वर्ग, वर्ण, 
                      जाति, संप्रदाय और धर्म की सारी पहचान गुम हो जाती है। विषाद 
                      जल कर भस्मीभूत हो जाता है। वाद और विवाद को बिसार कर संवाद 
                      प्रेम का बसंत रचता है। ऐसे बसंत में सिर्फ़ एक ही रंग दिखाई 
                      देता है और वह है -हास-उल्लास का रंग, अर्पण-तर्पण का रंग। 
                      मन की ग्रंथियाँ ढीली पड़ जाती हैं। बुद्धि की कलाबाजियाँ 
                      पीली पड़ जाती हैं। ऐसे में लोक आराध्य भी कैसे तटस्थ रह 
                      सकते हैं? वे तो भारतीय मन में रंगनाथ बनकर स्थायी भाव से 
                      गहरे धँसे हुए हैं। रंग खेलने से भला उन्हें कौन रोक सकता 
                      है।होरी खेलन गए गिरधारी
 होरी खेलन गए बनवारी
 काकर हाथ माँ रंग कटोरा
 काकर हाथ माँ पिचकारी
 राधा के हाथ माँ रंग कटोरा
 कान्हा के हाथ माँ पिचकारी
 होरी खेलन गए गिरधारी
 बिहारी ने ऐसे रंगनाथ के 
                      रंग-वैभव पर एक दोहा लिखा है -मेरी भवबाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
 जा तन की झांई परति, श्याम हरित द्युति होय।
 राधा और श्याम के देह रंगों 
                      के संयोग से एक 'तीसरा रंग' बन जाता है। जहाँ राधा श्याम बन 
                      जाती हैं और श्याम राधा। यह तीसरा रंग प्रगाढ़ता का रंग है। 
                      प्रगाढ़ता का रंग तब तक नहीं बनता, जब तक राधा और श्याम 
                      अपने-अपने रंगों से मुक्त नहीं हो जाते। यही राधा-श्याम का 
                      रंग-दर्शन है। यही भारतीय अध्यात्म का रंग है। सच्चे भारतीय 
                      का मन इसी रंग की दीवानगी में मीरा की तरह व्याकुल रहता है। 
                      इस रंग से बेख़बर लोगों को सचेत करने कबीर का तंबूरा भी गूँज 
                      उठता है -मन न रंगाये जोगी। रंगाये जोगी कपड़ा।
 रंग को भौतिकी या रसायन की 
                      विषयवस्तु मानकर उससे उदासीनता बरतना कला से विमुखता भी है। 
                      कविता या चित्र भी आखिर क्या हैं, रंगों के प्रभाव से 
                      उत्प्रेरित शाब्दिक या भावात्मक रेखांकन के अलावा। 
                      काव्य-कर्म या रंग-कर्म संवेदनामूलक धर्म है जिसका असली 
                      सूत्रधार संवेदना ही है। रंग कवियों का अहसास है -रंग जब आस पास होते हैं।
 रूह तक कैनवास होते है। (सूर्यभानु गुप्त)
 जीवंत कविता की पहली शर्त 
                      रंग एवं ध्वनि की मूर्तता है। केशव ने पंक्तियाँ उठाई थीं- 
                      भूषण बिन न बिराजई, कविता, वनिता, भित्त। यह भूषण या रंग 
                      कविता की देह के लिए तो अनिवार्य है ही, आत्मा के लिए भी। 
                      अपने समय के महान कवि -''नाटककार गेटे ने रंग के प्रति 
                      कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए फारेनबेनलेहर में लिखा है -'कवि 
                      के रूप में मैंने जो रचनाएँ की हैं, उन पर मुझे कुछ भी गर्व 
                      नहीं है। मेरे ही ज़माने में मुझसे कहीं बेहतर कवि हुए हैं, 
                      वे अतीत में भी हुए थे और भविष्य में भी होंगे, परंतु अपने 
                      समय में केवल मैं ही ऐसा व्यक्ति हूँ जो रंग-विज्ञान जैसी 
                      कठिन विधा के बारे में तथ्यों का जानकार हूँ। इसके लिए मुझे 
                      बहुत गर्व है।'' आदरणीय गेटे जी! आपकी उद्घोषणा कितनी सच है? 
                      हमें नहीं पता लेकिन हम यह बरोबर जानते हैं कि हमारे भरत 
                      रंगशास्त्र के आदिज्ञाता हैं। हम संसार की प्रथम रंगशाला के 
                      रचयिता हैं। सीताबेंगरा, रानी गुंफा, 
                      कोणार्क के सूर्य-मंदिर, सोमनाथ के मंदिर में हमने सबसे पहले 
                      रंग कर्म किए हैं। हमने राम के लिए भी रंगमंच की रचना की थी 
                      -'रंगभूमि आए दोउ भाई' (तुलसी)। कृष्ण ने कंस को उसकी ही 
                      रंगशाला में मल्लयुध्द में धूल चाटने को विवश कर दिया था। हम 
                      पे वल प्रेक्षक नहीं, हम निष्णात रंगकर्मी भी हैं। हम 
                      रंगभेदी नहीं, रंगप्रेमी हैं। ज्योतिषी जन्मकुंडली में 
                      आकाश मंडल का एक खाका खींचता है। किसी घर में बैठा ग्रह नियत 
                      समय पर रंगहीन हो जाता है। आदमी के चेहरे का रंग भी उसी के 
                      साथ फीका पड़ने लगता है। फलित ज्योतिषशास्त्र समाधान खोजता 
                      है -ग्रह के ही रंग की वस्तुओं का सेवन, धारण एवं दान। 
                      विज्ञान खिल्ली उड़ाता है। इससे क्या? वह हर बार समाधान भी 
                      तो नहीं जुटा पाता। ग्रहों के रंगों की बात ही विज्ञान भूल 
                      जाए, तो यह उसकी न्यूनता है। ग्रहों द्वारा उत्सर्जित किरणों 
                      को रत्नों से आमंत्रित करने में कौन-सा अंधविश्वास है? रत्न 
                      नहीं, बल्कि उसके रंग ही आदमी के मूड, स्वभाव और व्यवहार को 
                      संयमित करते हैं। रंग हमारे लिए सुखद कामना करते हैं। यदि 
                      ऐसा न होता तो २३ अरब प्रकाश वर्षों की यात्रा के बाद भी हरा 
                      रंग अपने मूल स्वरूप में उद्घाटित न होता। वे प्रकृति की ओर 
                      से सभी जीवों की खुशहाली और जीवन की समृद्धि की कामना ही 
                      अभिव्यक्त करते हैं। बलिहारी हो रंगों की। १ मार्च 
                      २००६ 
      
      
                     |