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जब भी गाँव
जाता हूँ, मन में अपने बचपन के सहपाठियों और मित्रों से मिलने
की एक अजीब बेचैनी भरी होती है। इस जीवन-यात्रा में कुछ तो
नवयौवन के पड़ाव पर ही अभावों से टूटकर गिर पड़े, जैसे आँधी
में टिकोरे। कुछ बाद में टूटे। कुछ बीमारी या अस्वस्थता की
लपेट में आ गए। यानी एक-एक कर न जाने कितने चले गए और कितनों
से तो (जो दूसरे गाँवों के थे) युगों से भेंट ही नहीं हुई। पता
नहीं, कौन क्या कर रहा है, जीवित भी है कि नहीं। गाँव के भी
कई सहपाठियों से जमाने से भेंट नहीं हुई क्योंकि वे नौकरी के
सिलसिले में बाहर रहते हैं। जब मैं गाँव पहुँचता हूँ तो वे
नहीं होते, वे पहुँचते हैं तो मैं नहीं होता। यही स्थिति मेरे
बचपन के बहुत जीवंत दोस्त जोगीराय की थी। वे रेलवे में काम
करते थे और अपने ढँग से गाँव आते-जाते रहे होंगे। मैं जब भी
गाँव पहुँचता (और कितना कम
पहुँचता हूँ) उनके बारे में
पूछता - 'आए हैं क्या?' उत्तर 'नहीं' में मिलता।
संयोग से इस बार होली के आसपास घर पहुँचा। इस बार पूछा तो
ज्ञात हुआ कि वह तो अब नौकरी से रिटायर होकर गाँव में ही रहते
हैं। मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मेरे मन में स्कूल के दिन
खेलने लगे। हां, खेलना कहना ही अधिक संगत होगा क्योंकि
जोगीराय के साहचर्य में समय खेलता हुआ ही अनुभव होता था।
'चाचाजी, जोगीराय को बुला लाऊँ?' |