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              1माधव और माधवनर्मदा प्रसाद उपाध्याय
 
 
              फागुन-चैत के नाम मधु-माधव भी 
                      हैं। फागुन मधु है, मधु की मिठास है, मधु की मदिरता है और 
                      चैत माधव है, माधव की राधा के लिए उत्कंठा भी है। 
                      अनुज ने घर में मंदिर बनाया 
                      है। उसमें केवल कृष्ण विराजे हैं। उसका आग्रह था कि युगल छवि 
                      प्रतिष्ठित होनी चाहिए। अभी तो जो कुछ सहना पड़ता है, अकेले 
                      कृष्ण को ही सहन करना होता है, सँभार की अधिकता असंतुलन का 
                      कारण बनती है। उन्हें चाहिए रासेश्वरी का साहचर्य, जिसके 
                      बिना वे अपूर्ण हैं। इसलिए जयपुर के मित्र से आग्रह किया कि 
                      एक सुंदर प्रतिमा राधिका जी की भेजो, लेकिन ऐसी भेजना जो यह 
                      आभास करा दे कि वे कृष्ण की परम आह्लादिनी शक्ति हैं। 
                           
                            देखना कि संगमरमर में 
                            तेजोमय लावण्य अपनी पूरी दीप्ति के साथ खिलकर उभर आए, 
                            देखना कि रास में शामिल होकर कृष्ण की परमप्रिया होने 
                            का गर्वमय उल्लास उनके चेहरे पर छलके और देखना कि 
                            उनमें राधिका का नारीत्व हो न हो, उनमें कृष्ण की 
                            भावित उपस्थिति भी हो- ऐसी उपस्थिति जिसके कारण राधा 
                            अपनी पहचान कृष्णमय होकर ही देखना चाहती हैं।                            मुझे पूरा विश्वास हे कि मेरे मित्र ने संगमरमर 
                            को तराशनेवाले शिल्पी को यही कहा होगा। मूर्ति का 
                            पार्सल लेकर मेरे सहकर्मी आज ही लौटे। पार्सल में क्या 
                            है, यह न तो मेरे जयपुर के मित्र ने देखा, न मेरे 
                            सहकर्मी ने- और आज जब पार्सल खोला तो देखा, उसमें 
                            मनोहारी प्रतिमा झाँक रही है। अद्भुत लावण्य और तेज 
                            छलक आया है चेहरे पर, पूरी देह दमक रही है। मेरे सामने 
                            मुरलीधर कृष्ण की मुसकराती प्रतिमा है। मैं हतप्रभ हो 
                            गया हूँ, फिर सँभल जाता हूँ। मुझे लगता है, तराशनेवाले 
                            शिल्पी ने बनाई तो राधा ही होगी, लेकिन उन्हें उसी तरह 
                            बनाया होगा जैसी मेरी भावना थी तो गढ़ा गए कृष्ण। राधा 
                            और माधव के साथ यही है। बनाओ राधा को तो कृष्ण बन जाते 
                            हैं और कृष्ण को गढ़ने लगो तो तराश ली जाती हैं राधा। 
                            बारहवीं सदी के महाकवि 
                            जयदेव ने राधा-माधव की प्रेमलीला को केंद्र में रखते 
                            हुए, एक सुंदर काव्य रचा- 'गीतगोविंद'। इस ग्रंथ की 
                            जाने कितनी व्याख्याएँ हुईं। हाल ही में एक मौलिक 
                            व्याख्या की प्रख्यात संस्कृति मर्मज्ञ आचार्य 
                            विद्यानिवास मिश्र ने 'राधा-माधव रंग रंगी' शीर्षक से। 
                            जब इस कृष्ण के मनोरम शिल्प को निहारा तो मुझे पंडित 
                            जी की व्याख्या याद आ गईं। उन्होंने इस ग्रंथ के पहले 
                            श्लोक, जिसे 'मंगल श्लोक' 
                            कहा जाता है, मैं यह विशेषता पाई कि पूरा काव्य वसंत 
                            से भरपूर है। 'गीतगोविंद' का रास वसंत में होनेवाला 
                            वासंती रास है, लेकिन इनका मंगल श्लोक वर्षा का है। इस 
                            काव्य की आखिरी अष्टपदी की बड़ी विलक्षण व्याख्या 
                            उन्होंने की है, जिसमें यह भेद खुलता है कि कैसे राधा 
                            और कृष्ण एक हैं और क्यों इस काव्य का मंगल वर्षा में 
                            होता है और वसंत में पूर्णता पाता है? इस अंतिम 
                            अष्टपदी में राधा कृष्ण से पूर्व मिलन के बाद कहती हैं 
                            कि मुझे फिर से सजा दो तो उनका पूरा आग्रह इस बात पर 
                            है कि अब द्वैतभाव मत रहने दो। मैं अब उस स्वरूप में 
                            लौटना नहीं चाहती जो मिलन के पूर्व का था। यही राधा के 
                            प्यार की चरम परिणति है कि वह जब तक नहीं मिलतीं तब तक 
                            श्रीकृष्ण को आमने-सामने निरंतर ध्यान में पाती रहती 
                            हैं वह दो रहती हैं और पा लेने के बाद उनका राधापन 
                            एकदम विगलित हो जाता है। फिर वह श्रीकृष्ण के हाथों से 
                            श्रीकृष्ण की ही एक आकृति के रूप में पुनर्निर्मित हो 
                            जाती हैं। राधा यही होना चाहती थीं। वसंत पावस बनने के 
                            लिए ही उत्तपित होता है, निपतित होता है, कंटकित होता 
                            है, पुष्पित होता है, पल्लवित होता है। 'गीतगोविंद' 
                            वर्षा की स्मृति में मंगल से प्रारंभ होता है, इसलिए 
                            कि पूरे काल की वासंती रसवृष्ठि का संकल्प बन जाए। राधा रसवृष्टि का 
                            संकल्प हैं। मेरे सामने जो स्वरूप रखा है कृष्ण का, 
                            उनमें मुझे यही संकल्प झाँकता दिखाई दे रहा है। यह 
                            मनोहारी स्वरूप वसंत पंचमी को घर आया है। उज्जयिनी में 
                            वासंती शोभा अब नहीं दिखाई देती। रही होगी कालिदास के 
                            समय में सच्ची वासंती शोभा, बसती रही होगी उनके समय 
                            में अवंतिका में वसंत की आत्मा- तभी तो वाग्देवी ने 
                            उन्हें वरदान दे दिया और वे कालिदास से कवि कुलगुरु हो 
                            गए। आज भी उनकी आराध्या गढ़कालिका यहाँ विराजी हैं, 
                            जिनके संबंध में किंवदंती है कि कालिदास ने अपनी 
                            जिंह्वा का रक्त उन्हें समर्पित किया था। वसंत आगमन की 
                            प्रतीक वसंत पंचमी माँ शारदा की आराधना का दिन है। इस 
                            दिन सरस्वती की पूजा के लिए कोई अलग से जतन नहीं करने 
                            होते, वसंत में फूले आम के बौरों की पीली सुषमा उनके 
                            मस्तक का अभिषेक कर देती है और पलाश के रक्ताभ पुष्प 
                            उनके पाँव पखार देते हैं। वसंत की केसरिया शोभा ही 
                            शारदा का परिधान है, यही वसन है वासकसज्जा बनी राधा का 
                            और यही है पीतांबर पुरुषोत्तम का। इसलिए अभिन्न हैं 
                            वसंत और बनमाली। बसंत कुबेर है 
                            स्मृतियों का। सुधियों का अंतहीन सिलसिला, अटूट क्रम 
                            वसंत के साथ जुड़ा है। इन यादों के बीच सबसे सबल 
                            स्मृति है निराला की। वसंत पंचमी को जनमे निराला का 
                            जीवन भले पतझर का पर्याय रहा, लेकिन उनका मन सदैव 
                            शारदा और वसंत में ही डूबा रहा-देखा शारदा नील वसंत।
 वीणापाणि, वेणु गोपाल 
                            और वसंत- ये तीनों ही हमारी जातीय संरचना के अभिन्न 
                            अंग हैं। तीन इसलिए की चौथी जो राधा है, वह तो 
                            श्रीकृष्ण में ही समाई हैं। इन तीनों को हमने कहीं जड़ 
                            रूप में प्रतिष्टित कर भुला दिया। सरस्वती देवी बनकर 
                            पूजी जाने लगीं, कृष्ण ईश्वर बन गए, राधा कृष्ण की 
                            प्रेयसी बनी रहीं और वसंत सिर्फ़ ऋतु बनकर रह गया। 
                            जबकि वास्तविकता तो यह है कि इनकी व्यंजना में, इनमें 
                            समाए अर्थ की ज़मीन पर हमें अपने पाँव आगे बढ़ाने थे। ये जड़ प्रतीक नहीं 
                            हैं। निराला जब शारदा की वंदना करते हैं तो वे इस देश 
                            की समष्टि को सँवारने के लिए गति का, लय का, ताल का और 
                            छंद का आह्वान करते हैं। गति का वेग कहीं मनोरम 
                            निर्मित को भंग न कर दे,  इसलिए वे छंद के साँचे का भी 
                            आह्वान करते हैं। वे कंठों की, नभ की, उसके निस्सीम 
                            आँचल में विचरते विहंगों की स्मृति संजोते हैं और 
                            प्रार्थना करते हैं शारदा से कि इनको सदैव नए स्वर 
                            देते रहना। स्वर पुराने हो जाएँ तो मंद हो जाते हैं। 
                            निराला की प्रार्थना हरेक के लिए नए की है। उनकी 
                            आराधना नए निर्माण की आराधना है, भग्न स्मारकों की 
                            स्तुति नहीं है। नया, सबकुछ नया, सबके लिए नया, वसंत 
                            में शारदा सृष्टि भी नई रचे और स्वर भी। वे शारदा से 
                            सभी के लिए नए स्वरों का वर माँगते हैं- वर दे, वीणावादिनी वर 
                            दे,नवगति, नवलय, ताल छंद नव,
 नवल कंठ नव, जलध मंद रव
 नव नभ के नव विहग वृंद को
 नव पर नव स्वर दे,
 वीणावादिनी वर दे।
 शारदा की इस व्यंजना 
                            में यदि जाते तो नए गढ़ने का संकल्प पुराना नहीं होता। 
                            सरस्वती हरेक के द्वारा नया रचने का प्रतिनिधि 
                            प्रतिमान है। और वसंत! उसे तो 
                            पहचानना तक छोड़ दिया। अखबारों में कभी-कभार कोई आलेख 
                            पढ़ने को मिल जाए, कहीं कोई काव्य-गोष्ठी आयोजित हो 
                            जाए, कभी कोई बुजुर्ग पद्माकर के वासंती छंद सुना दे 
                            तो यह एक आकस्मिकता की तरह होता है। वसंत के अर्थ 
                            हमारा देश पलाश के वनों, उनमें गुम होते नव परिणीत 
                            आदिवासी युगलों, आम के बौरों और कोयल की कूक से गूँजते 
                            उस वातावरण से लेता आया है, जिसने इस देश को अपनी वह 
                            सांस्कृतिक पहचान दी जिस पहचान के बूते पर भारतीय 
                            अस्मिता विश्व फलक पर अपने निराले सौंदर्य के साथ सबसे 
                            अलग और भव्य दिखाई देती है। हमारा समूचा दर्शन और 
                            कला-बोध वसंत के उपादानों में अपने उत्स को छुपाए हैं। 
                            भारतीय मनीषा ने इसी ऋतु में जनमनेवाली सुषमा में अपने 
                            आधार तत्वों की खोज की है। इसी वसंत ने दैन्य को 
                            खदेड़ा है और प्रकृति के माध्यम से यह संदेश दिया है 
                            कि यदि अपने मन में उर्वर हो लेने का संकल्प हो तो 
                            सूखी और काली धरती हरी चूनर भी ओढ़ सकती है, झुकी 
                            शाखों और कुम्हलाए आम के पीले पत्तों के जीवन में भी 
                            वह दिन आ सकता है, जब वह बौरों से लदे मुकुटों को कारण 
                            करे। और वह हर सुबह जो सन्नाटे में ऊबते हुए उगती है, 
                            वह शीतल वासंती बयार, कोयल के स्वरों की कूक और भौरों 
                            के गुंजार के बीच अपनी गरिमामय लालिमा के साथ उगकर इस 
                            सृष्टि को यह अभय संदेश दे सकती है कि निसर्ग पर भरोसा 
                            रखना, तपन स्थायी नहीं होती और सूरज का शौर्य भी 
                            वासंती जीवट से पराजित हो सकता है। अंत में फिर कृष्ण! 
                            वे जड़ ईश्वर हैं ही नहीं। वे तो अपनी परम आह्लादिनी 
                            शक्ति राधा से संचालित होनेवाले ऐसे वासंती प्रतिमान 
                            हैं, जो नित्य हैं, सदैव नूतन हैं, परिभाषित नहीं 
                            होते, क्यों कि स्वयं परिभाषा हैं, अजीवित नहीं हैं, 
                            जीवंत हैं, अंत नहीं, आरंभ हैं, गोल घूमनेवाले 
                            परिक्रमावासी नहीं, पराक्रमी यात्री हैं, जो एक गंतव्य 
                            तक पहुँचकर सबको पहुँच जाने की ऊर्जा देते हैं। 
                            प्राप्त न हो सकने की विवशता को पाले, अपनी दूरियों के 
                            आवरण ओढ़े जड़ आराध्य नहीं बल्कि नित्य हो सकनेवाली 
                            ऐसी आराधना हैं, जिसके करने पर उस शक्ति को पाया जा 
                            सकता है जो उनकी स्वयं की परम आह्लादिनी शक्ति हैं। कृष्ण नित्य प्रेरित 
                            करते हैं अभिन्न बनने के लिए। भिन्नता उन्हें नहीं 
                            भाती। युगल छवियाँ प्रतिष्ठित कर लेते हैं राधा और 
                            माधव की, किंतु एक ही छवि होतो उसमें दोनों विराजे 
                            हैं। मैं वसंत की ढलान की 
                            वेला में घर में आए माधव को निहार रहा हूँ। नहीं, ये 
                            माधव नहीं हैं, ये तो श्रीराधा हैं- वही जिनके गढ़ने 
                            के लिए मैंने अपने मित्र को कुछ हिदायतें दी थीं। 
                            १७ 
                            मार्च २००८1 |