11
रंग गई
पग-पग धन्य धरा
ऋषभ देव शर्मा1
वसंत बर्फ के
पिघलने, गलने और अँखुओं के फूटने की ऋतु है। ऋतु नहीं, ऋतुराज।
वसंत कामदेव का मित्र है। कामदेव ही तो सृजन को संभव बनाने
वाला देवता है। अशरीरी होकर वह प्रकृति के कण-कण में व्यापता
है। वसंत उसे सरस अभिव्यक्ति प्रदान करता है। सरसता अगर कहीं
किसी ठूँठ में भी दबी-छिपी हो, वसंत उसमें इतनी ऊर्जा भर देता
है कि वह हरीतिमा बनकर फूट पड़ती है। वसंत उत्सव है संपूर्ण प्रकृति की
प्राणवंत ऊर्जा के विस्फोट का। प्रतीक है सृजनात्मक
शक्ति के उदग्र महास्फोट का। इसीलिए वसंत पंचमी सृजन
की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा का दिन है।
हिंदी जाति के लिए
वसंत पंचमी का और भी अधिक महत्व है। सरस्वती के समर्थ
पुत्र महाकवि 'निराला' का जन्मदिन भी हम वसंत पंचमी को
ही मनाते हैं। गंगा प्रसाद पांडेय ने 'निराला' को
महाप्राण कहा है। उनमें अनादि और अनंत सृजनात्मक शक्ति
मानो अपनी परिपूर्णता में प्रकट हुई थी। यह निराला की
महाप्राणता ही है कि उन्होंने अपने नाम को ही
नहीं,जन्मतिथि और जन्मवर्ष तक को संशोधित कर दिया।
अपनी बेटी की मृत्यु पर लिखी कविता 'सरोज स्मृति' में
एक स्थान पर उन्होंने भाग्य के लेख को बदलने की अपनी
ज़िद्द का उल्लेख किया है। सचमुच उन्होंने ऐसा कर
दिखाया। यह महाकवि की महाप्राणता नहीं तो और क्या है?
महाप्राण निराला का
जन्म यों तो माघ शुक्ल एकादशी, संवत १९५५ तदनुसार
इक्कीस फरवरी १८९९ ई. को हुआ था, लेकिन उन्होंने अपने
निश्चय द्वारा वसंत पंचमी को अपना जन्म दिन घोषित
किया। हुआ यों कि गंगा पुस्तकमाला के प्रकाशक दुलारे
लाल भार्गव ने सन १९३० ई. में वसंत पंचमी के दिन गंगा
पुस्तकमाला का महोत्सव और अपना जन्मदिन मनाया। इस अवसर
पर निराला ने उनका परिचय देते हुए निबंध पढ़ा।
डॉ.रामविलास शर्मा बताते हैं कि "उन्होंने देखा कि
दुलारेलाल भार्गव वसंत पंचमी को अपना जन्मदिवस मनाते
हैं। उन्होंने निश्चय किया कि वह भी वसंत पंचमी को ही
पैदा हुए थे। वसंत पंचमी सरस्वती पूजा का दिन, निराला
सरस्वती के वरद पुत्र, वसंत पंचमी को न पैदा होते तो
कब पैदा होते? नामकरण संस्कार से लेकर जन्मदिवस तक
निराला ने अपना जन्मपत्र नए सिरे से लिख डाला।"
निराला की आराध्य
देवी है सरस्वती और प्रिय ऋतु है वसंत। वसंत को प्रेम
करने का अर्थ है सौंदर्य को प्रेम करना। सरस्वती की
आराधना का अर्थ है रस की आराधना। निराला की कविता इसी
सौंदर्यानुभूति और रस की आराधना की कविता है। सृष्टि
के कण-कण में छिपी आग वसंत में रंग-बिरंगे फूलों के
रूप में चटख-चटख कर खिल उठती है। कान्यकुब्ज कॉलिज,
लखनऊ के छात्रों ने एक बार उन्हें दोने में बेले की
कलियाँ भेंट दी थीं, निराला ने अपनी कविता 'वनवेला'
उन्हें भेंट कर दी। उन्हें सुगंधित पुष्प बहुत प्रिय
थे। रंग और गंध की उनकी चेतना उन्हें अग्नि तत्व और
पृथ्वी तत्व का कवि बनाती है। वे पृथ्वी की आग के कवि
हैं तथा वसंत पंचमी पृथ्वी की इस आग के सरस्वती के
माध्यम से आवाहन का त्योहार। वसंत अपने पूरे रंग वैभव
के साथ उनके गीतों में उतरता है-प्रिय पत्नी मनोहरा की
स्मृति भी जगमग करती जाग उठती है। रंग और गंध की
मादकता तरु के उर को चीरकर कलियों की तरुणाई के रूप
में दिग्-दिगंत में व्यापने लगती है -
"रंग गई पग-पग धन्य
धरा - हुई जग जगमग मनोहरा।
वर्ण गंध धर, मधु-मकरंद भर तरु उर की अरुणिमा तरुणतर
खुली रूप कलियों में पर भर स्तर-स्तर सुपरिसरा।"
कवि को लगता है कि
कला की देवी ने कानन भर में अपनी कूची इस तरह फूलों के
चेहरों पर फिरा दी है कि सब ओर रंग फूटे पड़ रहे हैं-
"फूटे रंग वासंती,
गुलाबी,
लाल पलास, लिए सुख, स्वाबी,
नील, श्वेत शतदल सर के जल,
चमके हैं केशर पंचानन में।"
रंगों की बरात लिए
वसंत आता है तो आनंद से सारा परिवेश सराबोर हो उठता
है। वसंत और कामदेव का संबंध शिव के साथ भी है। शिव
काम को भस्म भी करते हैं और पुनर्जीवन भी देते हैं।
शिव पुरुष भी हैं और स्त्री भी। निराला भी
अर्धनारीश्वर हैं। उनमें एक ओर पुरुषत्व के अनुरूप
रूपासक्ति और आक्रामकता थी तो दूसरी ओर नारीत्व के
अनुरूप आत्मरति तथा समर्पण की प्रबल भावना भी थी। वे
सड़क पर कुर्ता उतारकर अपना बलिष्ठ शरीर प्रदर्शित
करते हुए चल सकते थे तो सुंदर बड़ी-बड़ी आँखों और
लहरियादार बालों से उभरती अपनी 'फेमिनिन ग्रेसेज' पर
खुद ही मुग्ध भी हो सकते थे। यही कारण है कि वसंत की
कुछ कविताओं में वे स्त्रीरूप में भी सामने आते हैं -
"सखि, वसंत आया।
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु पतिका
मधुप-वृंद बंदी
पिक-स्वर नभ सरसाया।"
वसंत का यह
हर्षोल्लास संक्रामक है। प्रकृति से प्राणों तक
तनिक-सा छू ले, तो फैलता जाता है। कुंज-कुंज कोयल की
कूक से पगला जाता है। सघन हरियाली काँप-काँप जाती है।
प्राणों की गुफा में अनहद नाद बज उठता है। रक्त संचार
में रसानुभूति का आवेग समा जाता है। यह सब घटित होता
है केवल स्वर की मादकता के प्रताप से -
"कुंज-कुंज कोयल बोली
है,
स्वर की मादकता घोली है।"
यही मादकता तो 'जुही
की कली' की गहरी नींद का सबब है। वासंती निशा में यौवन
की मदिरा पीकर सोती मतवाली प्रिया को मलयानिल रूपी
निर्दय नायक निपट निठुराई करके आखिर जगा ही लेता है-
"सुंदर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिए गोरे कपोल गोल,
चौंक पड़ी युवती
चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
हेर प्यारे को सेज-पास,
नम्रमुख हँसी-खिली
खेल रंग प्यारे-संग।"
कबीर हों या नानक,
सूर हों या मीरा - सबने किसी न किसी रूप में जुही की
कली और मलयानिल की इस प्रेम-क्रीड़ा को अपने मन की
आँखों से देखा है। भक्ति और अध्यात्म का मार्ग भी तो
इसी प्रकृति पर्व से होकर जाता है। तब प्रियतम और
वसंत-बहार में अद्वैत घटित होता है -
"आए पलक पर प्राण कि
वंदनवार बने तुम।
उमड़े हो कंठ के गान गले के हार बने तुम।
देह की माया की जोती, जीभ की सीपी की मोती,
छन-छन और उदोत, वसंत-बहार बने तुम।"
यह वसंत-बहार हँसने,
मिलने, मुग्ध होने, सुध-बुध खोने, सिंगार करने,
सजने-सँवरने, रीझने-रिझाने और प्यार करने के लिए ही तो
आती है। निराला इस ऋतु में नवीनता से आँखें लडाते हैं
-
"हँसी के तार के होते हैं ये बहार के दिन।
हृदय के हार के होते हैं ये बहार के दिन।
निगह रुकी कि केशरों
की वेशिनी ने कहा,
सुगंध-भार के होते हैं ये बहार के दिन।
कहीं की बैठी हुई
तितली पर जो आँख गई,
कहा, सिंगार के होते हैं ये बहार के दिन।
हवा चली, गले खुशबू
लगी कि वे बोले,
समीर-सार के होते हैं ये बहार के दिन।
नवीनता की आँखें चार
जो हुईं उनसे,
कहा कि प्यार के होते हैं ये बहार के दिन।"
इस वसंत-बहार का ही
यह असर है कि कवि को बाहर कर दिए जाने का तनिक मलाल
नहीं। कोई सोचे तो सोचा करे कि कवि को देस-बदर कर दिया
या साहित्य से ही बेदखल कर दिया। पर उसे यह कहाँ मालूम
कि भीतर जो वसंत की आग भरी है, वह तो कहीं भी
रंग-बिरंगे फूल खिलाएगी ही। इस आग से वेदना की बर्फ जब
पिघलती है तो संवेदना की नदी बन जाती है। चमत्कार तो
इस आग का यह है कि सख्त तने के ऊपर नर्म कली
प्रस्फुटित हो उठती है। कठोरता पर कोमलता की विजय; या
कहें हृदयहीनता पर सहृदयता की विजय -
"बाहर मैं कर दिया
गया हूँ। भीतर, पर भर दिया गया हूँ।
ऊपर वह बर्फ गली है, नीचे यह नदी चली है,
सख्त तने के ऊपर नर्म कली है;
इसी तरह हर दिया गया हूँ।
बाहर मैं कर दिया गया हूँ।"
जब सख्त तने पर नर्म
कली खिलती है तो उसकी गंध देश-काल के पार जाती है -
"टूटें सकल बंध
कलि के, दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गंध।"
और तब किसी नर्गिस को
खुद को बेनूर मानकर रोना नहीं पड़ता। वसंत की हवा बहती
है तो नर्गिस की मंद सुगंध पृथ्वी भर पर छा जाती है।
ऐसे में कवि को पृथ्वी पर स्वर्गिक अनुभूति होती है,
क्योंकि -
"युवती धरा का यह था भरा वसंतकाल,
हरे-भरे स्तनों पर खड़ी कलियों की माल।
सौरभ से दिक्कुमारियों का तन सींच कर,
बहता है पवन प्रसन्न तन खींच कर।"
वसंत अकुंठ भाव से
तन-मन को प्यार से खींचने और सींचने की ऋतु है न!
रस-सिंचन का प्रभाव यह है कि -
"फिर बेले में कलियाँ आईं।
डालों की अलियाँ मुस्काईं।
सींचे बिना रहे जो जीते, स्फीत हुए सहसा रस पीते
नस-नस दौड़ गई हैं खुशियाँ नैहर की कलियाँ लहराई।"
इसीलिए कवि वसंत की
परी का आवाहन करता है -
"आओ; आओ फिर, मेरे वसंत की परी छवि - विभावरी,
सिहरो, स्वर से भर-भर अंबर की सुंदरी छवि-विभावरी!"
वसंत की यह परी पहले
तो मनोहरा देवी के रूप में निराला के जीवन में आई थी
और फिर सरोज के रूप में आई। सौंदर्य का उदात्ततम
स्वरूप 'सरोज-स्मृति' में वसंत के ही माध्यम से साकार
हुआ है -
"देखा मैंने, वह मूर्ति धीति,
मेरे वसंत की प्रथम गीति-
शृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित धार
गाया स्वर्गीय प्रिया-संग- भरता प्राणों में राग-रंग,
रति रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदलकर बना मही।"
इतना ही नहीं, राम और
सीता का प्रथम मिलन भी इसी ऋतु में संभव हुआ -
"काँपते हुए किसलय, झरते पराग-समुदाय,
गाते खग-नव जीवन परिचय, तरु मलयवलय।"
वसंत का यह औदात्य
निराला की कविता 'तुलसीदास' में रत्नावली को शारदा
(सरस्वती) बना देता है। निराला वसंत के अग्रदूत महाकवि
हैं। वसंत की देवी सरस्वती का स्तवन उनकी कविता में
बार-बार किया गया है। वे सरस्वती और मधुऋतु को सदा एक
साथ देखते हैं।
"अनगिनत आ गए शरण में जन, जननि,
सुरभि-सुमनावली खुली, मधुऋतु अवनि।"
निराला अपनी प्रसिद्ध
'वंदना' में वीणावादिनी देवी सरस्वती से भारत में
स्वतंत्रता का संस्कार माँगते हैं। वे मनुष्य ही नहीं,
कविता की भी मुक्ति चाहने वाले रचनाकार हैं। यह मुक्ति
नवता के उन्मेष से जुड़ी है। वसंत और सरस्वती दोनों ही
नवनवोन्मेष के प्रतीक हैं -
"नव गति, नव लय, ताल छंद नव,
नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को, नव पर नव स्वर दे!"
सरस्वती को निराला
भारत की अधिष्ठात्री देवी मानते हैं। वे मातृभूमि और
मातृभाषा को सरस्वती के माध्यम से प्रणाम करते हैं -
"जननि, जनक-जननि जननि, जन्मभूमि - भाषे।
जागो, नव अंबर-भर ज्योतिस्तर-वासे!"
यह देवी
'ज्योतिस्तरणा' है जिसके चरणों में रहकर कवि ने
अंतर्ज्ञान प्राप्त किया है और यही देवी भारतमाता है
जिसके चरण-युगल को गर्जितोर्मि सागर जल धोता है -
"भारति, जय, विजय करे। कनक-शस्य-कमलधरे।"
कनक-शस्य-कमल को धारण
करने वाली यह देवी शारदा जब वर प्रदान करती है तो वसंत
की माला धारण करती है -
"वरद हुई शारदा जी हमारी
पहनी वसंत की माला सँवारी।"
वसंत की माला पहनने
वाली यही देवी नर को नरक त्रास से मुक्ति प्रदान करने
में समर्थ है। सरस्वती धरा पर वसंत का संचार कर दे तो
'जर्जर मानवमन, को स्वर्गिक आनंद मिल जाए। बस, चितवन
में चारु-चयन लाने भर की देर है-
"माँ, अपने आलोक निखारो,
नर को नरक त्रास से वारो।
पल्लव में रस, सुरभि सुमन में,
फल में दल, कलरव उपवन में,
लाओ चारु-चयन चितवन में स्वर्ग धरा के कर तुम धारो।"
जब धरती को सरस्वती
की चारु-चयन-चितवन मिलती है तो पार्थिवता में
अपार्थिवता का अवतार होता है-
"अमरण भर वरण-गान
वन-वन उपवन-उपवन जागी छवि खुले प्राण।"
वसंत ने जो अमर संगीत
सारी सृष्टि में भर दिया है, उसके माध्यम से साकार
होने वाली कला और सौंदर्य की देवी ने कवि के प्राणों
को इस प्रकार बंधनमुक्त कर दिया है कि उसमें
महाप्राणता जाग उठी है। निराला की महाप्राणता का स्रोत
वसंत की अनंतता के प्रति उनके परम-विश्वास में ही
निहित है -
"अभी न होगा मेरा अंत अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत - अभी न होगा मेरा अंत।"
१५
फरवरी २०१० |