बरसाने' की लठमार होली फाल्गुन
मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। इस दिन नंद गाँव
के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते
हैं और विभिन्न मंदिरों में पूजा अर्चना के पश्चात जम कर बरसती
लाठियों के साए में होली खेली जाती है। इस होली को देखने के
लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग 'बरसाना' आते हैं।
फालैन गाँव में विचित्र दृश्य
देखने में आता है। मथुरा से ५३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित
फालैन की अनूठी होली अपने आप में एक कौतुक है। यह होली फाल्गुन
शुक्ल पूर्णिमा को आयोजित होती है। होली पर इस गाँव का एक पंडा
मात्र एक अंगोछा शरीर पर धारण करके २०-२५ फुट घेरे वाली विशाल
होली की धधकती आग में से निकल कर अथवा उसे फलांग कर दर्शकों
में रोमांच पैदा कर देता है। यह पंडा वर्ष पर्यंत संयमपूर्वक
नियमानुसार पूजा पाठ करता है जिससे वह ऐसी विकराल ज्वालाओं के
मध्य कूदने का साहस कर पाता है। होली में से उसके सकुशल निकलने
के उपलक्ष्य में उसे जन्म एवं विवाह इत्यादि अवसरों पर
सम्मानपूर्वक निमंत्रित किया जाता है। खलिहान का पहला अनाज भी
उसे अर्पित किया जाता है। फालैन गाँव के आस-पास के लोगों का मत
है कि सैंकड़ों वर्षों से प्रह्लाद के आग से सकुशल बच जाने की
घटना को, इस दृश्य के माध्यम से सजीव किया जाता है। इसलिए इस
अवसर पर यहाँ लगने वाले मेले को 'प्रह्लाद मेला' कहा जाता है।
इस गाँव में प्रह्लाद का एक भव्य मंदिर है। एक प्रह्लाद कुंड
भी है।
मालवा में होली के दिन लोग एक
दूसरे पर अंगारे फैंकते हैं। उनका विश्वास है कि इससे होलिका
नामक राक्षसी का अंत हो जाता है।
पंजाब और हरियाणा में होली
पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है। इसीलिए दशम
गुरू गोविंद सिंह जी ने होली के लिए पुल्लिंग शब्द होला महल्ला
का प्रयोग किया। गुरु जी इसके माध्यम से समाज के दुर्बल और
शोषित वर्ग की प्रगति चाहते थे। होला महल्ला का उत्सव आनंदपुर
साहिब में छ: दिन तक चलता है। इस अवसर पर, भांग की तरंग में
मस्त घोड़ों पर सवार निहंग, हाथ में निशान साहब उठाए तलवारों
के करतब दिखा कर साहस, पौरुष और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं।
जुलूस तीन काले बकरों की बलि से प्रारंभ होता है। एक ही झटके
से बकरे की गर्दन धड़ से अलग करके उसके मांस से 'महा प्रसाद'
पका कर वितरित किया जाता है। पंज पियारे जुलूस का नेतृत्व करते
हुए रंगों की बरसात करते हैं और जुलूस में निहंगों के अखाड़े
नंगी तलवारों के करतब दिखते हुए बोले सो निहाल के नारे बुलंद
करते हैं। यह जुलूस हिमाचल प्रदेश की सीमा पर बहती एक छोटी नदी
चरण गंगा के तट पर समाप्त होता है।
राजस्थान में भी होली के
विविध रंग देखने में आते हैं। बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली
जाती है तो अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली कजद जाति के लोग
बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। हाड़ोती क्षेत्र के सांगोद कस्बे
में होली के अवसर पर नए हिजड़ों को हिजड़ों की ज़मात में शामिल
किया जाता है। इस अवसर पर 'बाज़ार का न्हाण' और 'खाड़े का
न्हाण' नामक लोकोत्सवों का आयोजन होता है। खाडे के न्हाण में
जम कर अश्लील भाषा का प्रयोग किया जाता है। राजस्थान के सलंबूर
कस्बे में आदिवासी 'गेर' खेल कर होली मनाते हैं। उदयपुर से ७०
कि. मि. दूर स्थित इस कस्बे के भील और मीणा युवक एक 'गेली' हाथ
में लिए नृत्य करते हैं। गेली अर्थात एक लंबे बाँस पर घुंघरू
और रूमाल का बँधा होना। कुछ युवक पैरों में भी घुंघरू बाँधकर
गेर नृत्य करते हैं। इनके गीतों में काम भावों का खुला
प्रदर्शन और अश्लील शब्दों और गालियों का प्रयोग होता है। जब
युवक गेरनृत्य करते हैं तो युवतियाँ उनके समूह में सम्मिलित
होकर फाग गाती हैं। युवतियाँ पुरुषों से गुड़ के लिए पैसे
माँगती हैं। इस अवसर पर आदिवासी युवक-युवतियाँ अपना जीवन साथी
भी चुनते हैं।
मध्य प्रदेश के भील होली को
भगौरिया कहते हैं। भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका
को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली से पूर्व हाट के
अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक 'मांदल' की थाप पर
सामूहिक नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती
के मुँह पर गुलाल लगाता है और वह भी बदले में गुलाल लगा देती
है तो मान लिया जाता है कि दोनों विवाह सूत्र में बँधने के लिए
सहमत हैं। युवती द्वारा प्रत्युत्तर न देने पर युवक दूसरी
लड़की की तलाश में जुट जाता है। गुजरात के भील इसी प्रकार
'गोलगधेड़ो' नृत्य करते हैं। इसके अंतर्गत किसी बांस अथवा पेड़
पर गुड़ और नारियल बाँध दिया जाता है और उसके चारों ओर
युवतियाँ घेरा बना कर नाचती हैं। युवक इस घेरे को तोड़कर गुड़
नारियल प्राप्त करने का प्रयास करता है जबकि युवतियों द्वारा
उसका ज़बरदस्त विरोध होता है। इस विरोध से वह बुरी तरह से घायल
भी हो जाता है। हर प्रकार की बाधा को पार कर यदि युवक गुड़
नारियल प्राप्त करने में सफल हो जाता है तो वह घेरे में नृत्य
कर रही अपनी प्रेमिका अथवा किसी भी युवती के लिए होली का गुलाल
उड़ाता है। वह युवती उससे विवाह करने को बाध्य होती है। इस
परीक्षा में युवक न केवल बुरी तरह से घायल हो जाता है बल्कि
कभी-कभी कोई व्यक्ति मर भी जाता है।
बस्तर में इस पर्व पर लोग
'कामुनी षेडुम' अर्थात कामदेव का बुत सजाते हैं। उसके साथ एक
कन्या का विवाह किया जाता है। इसके उपरांत कन्या की चूड़ियाँ
तोड़ दी जाती हैं और सिंदूर पोंछ कर विधवा का रूप दिया जाता
है। बाद में एक चिता जला कर उसमें खोपरे भुन कर प्रसाद बाँटा
जाता है। बनारस जैसी प्राचीन सांस्कृति नगरी में होली के अवसर
पर भारी मात्रा में अश्लील पर्चे वितरित किए जाते हैं। शांति
निकेतन में होली अत्यंत सादगी और शालीनतापूर्वक मनाई जाती है।
प्रात: गुरु को प्रणाम करने के पश्चात अबीर गुलाल का उत्सव,
जिसे 'दोलोत्सव' कहा जाता है, मनाते हैं। पानी मिले रंगों का
प्रयोग नहीं होता। सायंकाल यहाँ रवींद्र संगीत की स्वर लहरी
सारे वातावरण को गरिमा प्रदान करती है। भारत के अन्य भागों से
पृथक बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर कृष्ण प्रतिमा का झूला
प्रचलित है। इस दिन श्री कृष्ण की मूर्ति को एक वेदिका पर रख
कर सोलह खंभों से युक्त एक मंडप के नीचे स्नान करवा कर सात बार
झुलाने की परंपरा है।
मणिपुर में होली का पर्व
'याओसांग' के नाम से मनाया जाता है। यहाँ दुलेंडी वाले दिन को
'पिचकारी' कहा जाता है। याओसांग से अभिप्राय उस नन्हीं-सी
झोंपड़ी से है जो पूर्णिमा के अपरा काल में प्रत्येक नगर-ग्राम
में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। इसमें चैतन्य
महाप्रभु की प्रतिमा स्थापित की जाती है और पूजन के बाद इस
झोंपड़ी को होली के अलाव की भाँति जला दिया जाता है। इस
झोंपड़ी में लगने वाली सामग्री ८ से १३ वर्ष तक के बच्चों
द्वारा पास पड़ोस से चुरा कर लाने की परंपरा है। याओसांग की
राख को लोग अपने मस्तक पर लगाते हैं और घर ले जा कर तावीज़
बनवाते हैं। 'पिचकारी' के दिन रंग-गुलाल-अबीर से वातावरण रंगीन
हो उठता है। बच्चे घर-घर जा कर चावल सब्ज़ियाँ इत्यादि एकत्र
करते हैं। इस सामग्री से एक बड़े सामूहिक भोज का आयोजन होता
है।
प्राचीन काल से अविरल होली
मनाने की परंपरा को मुगलों के शासन में भी अवरुद्ध नहीं किया
गया बल्कि कुछ मुगल बादशाहों ने तो धूमधाम से होली मनाने में
अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया। अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर,
शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही
रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में
सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त
टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की
सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में उम्दा ठंडाई,
मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और
मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं।
जहाँगीर के समय में महफ़िल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित
होता था। इस अवसर पर राज्य के साधारण नागरिक बादशाह पर रंग
डालने के अधिकारी होते थे। शाहजहाँ होली को 'ईद गुलाबी' के रूप
में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह ज़फर होली खेलने के बहुत
शौकीन थे और होली को लेकर उनकी सरस काव्य रचनाएँ आज तक सराही
जाती हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े
यमुना नदी के किनारे और जहाँ आरा के बाग में होली के मेले भरते
थे।
भारत ही नहीं विश्व के अन्य
अनेक देशों में भी होली अथवा होली से मिलते-जुलते त्योहार
मनाने की परंपराएँ हैं। हमारे पड़ोसी देश नेपाल, पाकिस्तान,
बंगलादेश, श्री लंका और मरिशस में भारतीय परंपरा के अनुरूप ही
होली मनाई जाती है। फ्रांस में यह पर्व १९ मार्च को डिबोडिबी
के नाम से मनाया जाता है। वहाँ यह पर्व पिछले वर्ष की विदाई और
नए साल के स्वागत में मनाया जाता है। मिस्र में १३ अप्रैल की
रात्रि को जंगल में आग जला कर यह पर्व मनाया जाता है। आग में
लोग अपने पूर्वजों के पुराने कपड़े भी जलाते हैं। अधजले
अंगारों को भी एक दूसरे पर फैंकने के कारण यह अंगारों की होली
होती है। लोगों का मत है कि इस प्रकार अंगारे फैंकने से
राक्षसी का नाश हो जाएगा और वे अधिक खुशहाल हो जाएँगे। तेरह
अप्रैल को ही थाईलैंड में भी नव वर्ष 'सौंगक्रान' प्रारंभ होता
है इसमें वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर
आशीर्वाद लिया जाता है। लाओस में यह पर्व नववर्ष की खुशी के
रूप में मनाया जाता है। लोग एक दूसरे पर पानी डालते हैं।
म्यांमर में इसे जल पर्व के नाम से जाना जाता है।
जर्मनी में ईस्टर के दिन घास
का पुतला बनाकर जलाया जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग डालते हैं।
हंगरी का ईस्टर होली के अनुरूप ही है। अफ्रीका में 'ओमेना
वोंगा' मनाया जाता है। इस अन्यायी राजा को लोगों ने ज़िंदा जला
डाला था। अब उसका पुतला जलाकर नाच गाने से अपनी प्रसन्नता
व्यक्त करते हैं। अफ्रीका के कुछ देशों में सोलह मार्च को
सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है। लोगों का विश्वास है कि
सूर्य को रंग-बिरंगे रंग दिखाने से उसकी सतरंगी किरणों की आयु
बढ़ती है। पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और
गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से निर्मित होने के कारण काफ़ी
सुगंधित होता है। लोग परस्पर गले मिलते हैं।
अमरीका में 'मेडफो' नामक पर्व
मनाने के लिए लोग नदी के किनारे एकत्र होते हैं और गोबर तथा
कीचड़ से बने गोलों से एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। ३१
अक्तूबर को अमरीका में सूर्य पूजा की जाती है। इसे होबो कहते
हैं। इसे होली की तरह मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग फूहड
वेशभूषा धारण करते हैं।
चेक और स्लोवाक क्षेत्र में
बोलिया कोनेन्से त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे पर
पानी एवं इत्र डालते हैं। हालैंड का कार्निवल होली सी मस्ती का
पर्व है। बेल्जियम की होली भारत सरीखी होती है और लोग इसे
मूर्ख दिवस के रूप में मनाते हैं। यहाँ पुराने जूतों की होली
जलाई जाती है। इटली में रेडिका त्योहार फरवरी के महीने में एक
सप्ताह तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर
चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके
आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं। रोम में
इसे सेंटरनेविया कहते हैं तो यूनान में मेपोल। ग्रीस का लव ऐपल
होली भी प्रसिद्ध है। स्पेन में भी लाखों टन टमाटर एक दूसरे को
मार कर होली खेली जाती है।
जापान में १६ अगस्त रात्रि को
टेमोंजी ओकुरिबी नामक पर्व पर कई स्थानों पर तेज़ आग जला कर यह
त्योहार मनाया जाता है। चीन में होली की शैली का त्योहार
च्वेजे कहलाता है। यह पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से
खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज धज कर परस्पर गले मिलते
हैं। साईबेरिया में घास फूस और लकड़ी से होलिका दहन जैसी
परिपाटी देखने में आती है। नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का
पवित्र दिन होली की तरह से मनाया जाता है। शाम को किसी पहाड़ी
पर होलिका दहन की भाँति लकड़ी जलाई जाती है और लोग आग के चारों
ओर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं। इंग्लैंड में मार्च के अंतिम
दिनों में लोग अपने मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट करते हैं
ताकि उनके जीवन में रंगों की बहार आए।
इस प्रकार होली विश्व के
कोने-कोने में उत्साहपूर्वक मनाई जाती है। भारत में यह पर्व
अपने धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक पक्षों के कारण
हमारे संपूर्ण जीवन में रच बस गया है। यह पर्व स्नेह और प्रेम
से प्राणी मात्र को उल्लसित करता है। इस पर्व पर रंग की तरंग
में छाने वाली मस्ती जब तक मर्यादित रहती है तब तक आनंद से
वातावरण को सराबोर कर देती है। सीमाएँ तोड़ने की भी सीमा होती
है और उसी सीमा में बँधे मर्यादित उन्माद का ही नाम है होली।
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