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""बीबी जी, आप आवेंगी कि हम चाय
बना दें!"" किलसिया ने ऊपर की मंज़िल की रसोई से पुकारा।
""नहीं, तू पानी तैयार कर- तीनों सेट मेज़ पर लगा दे, मैं आ
रही हूँ। बाज़ आए तेरी बनाई चाय से। सुबह तीन-तीन बार पानी
डाला तो भी इनकी काली और ज़हर की तरह कड़वी. . .। तुम्हारे हाथ
डिब्बा लग जाए तो पत्ती तीन दिन नहीं चलती। सात रुपए में
डिब्बा आ रहा है। मरी चाय को भी आग लग गई है।"" मालकिन ने
किलसिया को उत्तर दिया। आलस्य अभी टूटा नहीं था। ज़रा और लेट
लेने के लिए बोलती गईं, ""बेटा मंटू, तू ज़रा चली जा ऊपर।
तीनों पॉट बनवा दे। बेटा, ज़रा देखकर पत्ती डालना, मैं अभी आ
रही हूँ।""
""अम्मा जी, ज़रा तुम आ जाओ! हमारी समझ में नहीं आता। बर्तन सब
लगा दिए हैं।"" सत्रह वर्ष की मंटू ने ऊपर से उत्तर दिया।
ठीक ही कह रही है लड़की,
मालकिन ने सोचा। घर मेहमानों से भरा था, जैसे शादी-ब्याह के
समय का जमाव हो। चीफ़ इंजीनियर खोसला साहब के रिटायर होने में
चार महीने ही शेष थे। तीन वर्ष की एक्सटेंशन भी समाप्त हो रही
थी। पिछले वर्ष बड़े लड़के और लड़की के ब्याह कर दिए थे।
रिटायर होकर तो पेंशन पर ही निर्वाह करना था। जो काम अब हज़ार
में हो जाता, रिटायर होने पर उस पर तीन हज़ार लगते। रिटायर
होकर इतनी बड़ी, तेरह कमरे की हवेली भी नहीं रख सकते थे। |