क्यों
लगाते हैं गुलाल, होली में
पवन चंदन की इतिहास कथा
बहुत पुरानी कहानी
है, असुर राज हिरण्यकश्यप की बहन होलिका और पडोसी
राज्य के राजकुमार इलोजी एक दूसरे को दिलोजान से चाहते
थे। इलोजी के रूप-रंग के सामने देवता भी शर्माते थे।
सुंदर, स्वस्थ, सर्वगुण संपन्न साक्षात कामदेव का
प्रतिरूप थे वे। इधर होलिका भी अत्यंत सुंदर रूपवती
युवती थी। लोग इनकी जोडी की बलाएँ लिया करते थे। । उभय
पक्ष की सहमति से दोनों का विवाह होना भी तय हो चुका
था।
इलोजी भी होलिका रूप और गुण से बेहद प्रभावित थे।
होलिका तपस्विनी भी थी। उसने तपस्या द्वारा अपना
प्रभाव इतना बढ़ा लिया था कि उसका भाई हिरण्यकशिपु भी
उसका बहुत सम्मान करता था और बड़ी-बड़ी राजनैतिक
उलझनों में उससे सलाह लिया करता था। उसने अग्नि की उपासना
कर के
अग्नि देवता से अग्नि जैसा दहकता और दमकता हुआ रूप
माँग लिया था। अग्नि देवता ने प्रसन्न होकर होलिका को वरदान
देते हुए कहा था- ‘ तुम जब चाहोगी, अग्नि-स्नान कर सकोगी
और अग्नि-स्नान के बाद एक दिन और एक रात के लिए
तुम्हारा रूप अग्नि के समान जगमगाता रहेगा’। अब तो
होलिका की मौज आ गयी थी। वह नगर के चौक पर चंदन की
चिता में बैठकर रोज अग्नि-स्नान करने लगी। इससे होलिका
का रूप चलती-फिरती बिजली सा चमकने लगा था। इलोजी अपनी
भावी दुल्हन की तपस्या और रंग-रूप से बेहद प्रभावित हो
चुके थे। वसंत ऋतु में होलिका और इलोजी के विवाह का
दिन निश्चित हो गया था। इलोजी दूल्हा बनकर बारात लेकर
होलिका से विवाह के लिए चल दिये। बारात आनन्द-उत्सव
मनाती, नाचती-गाती दुल्हन के घर पहुँचने वाली थी।
इधर ये बारात आने वाली थी,
उधर राजा हिरण्यकशिपु एक झंझट में फँस गया। उसका अपना बेटा
राजकुमार प्रह्लाद विद्रोही को गया और उसके महान शत्रु विष्णु
का भक्त बन बैठा। एक ओर उसकी दुलारी बहन का विवाह और दूसरी ओर
उसके अपने बेटे का विद्रोह तथा विष्णु के छल-बल से परेशानी का
डर। हिरण्यरकशिपु ने अपनी बहन से सलाह ली। होलिका.... मैं
प्रह्लाद को मारने के कई प्रयास कर चुका, लेकिन वह हर बार बच
जाता है। इधर तुम्हारे विवाह में दो दिन शेष बचे है और बारात
भी आने ही वाली है... मैं सोचता हूं, इस मंगल कार्य में
प्रह्लाद के कारण कोई विघ्न न उत्पन्न हो जाए। भाई की परेशानी
भाँप कर होलिका बोली भइया... अब आपको परेशान होने की जरूरत
नहीं पड़ेगी। मैं आज शाम को जब अग्नि-स्नान करूँगी तो प्रह्लाद
को भी गोद में लेकर बैठ जाऊँगी। साँप भी मर जायेगा और लाठी भी
नहीं टूटेगी। होलिका भाई की परेशानी को खत्म करने के चक्कर में
यह भी भूल गयी कि अग्नि में प्रवेश से न जलने और सुरक्षित
निकलने का वरदान सिर्फ अकेली के लिए था। किसी को साथ लेकर
अग्नि-स्नान से क्या हो सकता है, इसके बारे में सोच ही नहीं
रही थी। बस यही भूल उसकी मौत का कारण बन गयी। प्रह्लाद तो
सुरक्षित बच गया पर होलिका जलकर राख हो गयी। होलिका दहन के
अगले ही दिन बारात दरवाजे पर आ पहुँची।
इलोजी ने जब सुना कि होलिका अग्नि-स्नान करते समय जल मरी है,
तो उन्हें बड़ा दुख हुआ। वे पागल से होकर होलिका की ठंडी चिता
के पास जा पहुँचे और अपने दूल्हा वेश पर ही होलिका की राख हो
मलने लगे और मिट्टी में लोट-पोट होने लगे। इलोजी का सारा शरीर,
मुँह और कपड़े राख में सन चुके थे। बारातियों ने उस पर पानी
डालकर उसे धोने का प्रयास किया लेकिन इलोजी नहीं माने और
राख-मिट्टी में लोट-पोट होते रहे। इलोजी का इसी पागलपन को लोग
होली के दिन साकार करते हैं।
इलोजी ने अपनी प्रेमिका
होलिका की याद में अत्यंत दुखी होकर आजीवन कुँआरे रहने की कसम ले
ली। तभी से इलोजी फागुन के देवता कहलाने लगे। र्इलोजी के विवाह
और होलिका दहन की याद में आज भी लोग होलिका दहन करते हैं। अगले
दिन इलोजी के साथ होने वाले हँसी मजाक को भी दोहराया जाता है।
हाँ इतना जरूर है कि राख के स्थान पर गुलाल का प्रयोग होने लगा
है और पानी के स्थान पर रंग प्रयोग किया जाने लगा है।
राजस्थान में तो कई शहरों, गाँव और कस्बों में आम चौराहों पर
इलोजी की प्रतिमाएँ भी बैठाई जाती हैं और उन्हें दूल्हे की तरह
सजा-सँवारकर रंग-गुलाल से पोतने की प्रथा है। इलोजी
हँसी-मजाज के प्रतीक बन गये हैं। राजस्थान में इनके नाम पर
इलोजी मार्किट, इलोजी सर्किल, इलोजी मार्ग और इलोजी चौक से
स्थानों का नामकरण कर उनको सम्मान दिया जाता है। इलोजी के ही
रूप में राजस्थानी रसिये दूल्हे के वेश में सजकर रंग-गुलाल से
सने घोड़ी या गधे पर बैठकर धुलैंहडी के दिन गली चौराहों पर
घूमते रहते हैं।
१४
मार्च
२०११ |