अब तो उन्हें वसंत के
आगमन का नहीं, बल्कि 'वेलेंटाइन डे' का इंतज़ार रहता
है। उन्हें तो पता ही नहीं चलता कि वसंत कब आया और कब
गया। उनके लिए तो वसंत आज भी खोया हुआ है।
कहाँ खो गया है वसंत?
क्या सचमुच खो गया है, तो हम क्यों उसके खोने पर आँसू
बहा रहे हैं, क्या उसे ढूँढ़ने नहीं जा सकते। क्या पता
हमें वह मिल ही जाए? न भी मिले, तो क्या, कुछ देर तक
प्रकृति के साथ रह लेंगे, उसे भी निहार लेंगे, अब वक्त
ही कहाँ मिलता है, प्रकृति के संग रहने का। तो चलते
हैं, वसंत को तलाशने। सबसे पहले तो यह जान लें कि हमें
किसकी तलाश है? 'मोस्ट वांटेड' चेहरे भी आजकल अच्छे से
याद रखने पड़ते हैं। तो फिर यह तो हमारा प्यारा वसंत
है, जो इसके पहले हर साल हमारे शहर ही नहीं, हमारे देश
में आता था। इस बार समझ नहीं आता कि अभी तक क्यों नहीं
आया, ये वसंत।
आपने कभी देखा है
हमारे वसंत को? आपको भी याद नहीं। अब कैसे करें उसकी
पहचान। कोई बताए भला, कैसा होता है, यह वसंत? क्या
मिट्टी की गाड़ी की नायिका वसंतसेना की तरह प्राचीन
नायिका है, या आज की विपाशा बासु या मल्लिका शेरावत की
तरह है। कोई बता दे भला। चलो उस बुजुर्ग से पूछते हैं,
शायद वे बता पाएँ। अरे... यह तो कहते हैं कि मेरे जीवन
का वसंत तो तब ही चला गया, जब उसे उसके बेटों ने धक्के
देकर घर से निकाल दिया। ये क्या बताएँगे, इनके जीवन का
वसंत तो चला गया। चलो उस वसंत भाई से पूछते हैं, आखिर
कुछ सोच-समझकर ही रखा होगा माता-पिता ने उनका नाम। लो
ये भी गए काम से, ये तो घड़ीसाज वसंत भाई निकले, जो
कहते हैं कि जब से इलेक्ट्रॉनिक घड़ियाँ बाज़ार में आई
हैं, इनका तो वसंत ही चला गया। अब क्या करें। चलो इस
वसंत विहार सोसायटी में चलते हैं, यहाँ तो मिलना ही
चाहिए हमारे वसंत को। कंकरीट के इस जंगल के कोलाहल में
बदबूदार गटर, धुआँ-धूल और कचरों का ढेर है, यहाँ कहाँ
मिलेगा हमारा वसंत। यहाँ तो केवल शोर है, बस शोर। भागो
यहाँ से... ये आ रहीं हैं वसंती। ये ज़रूर बताएँगी
वसंत के बारे में। लो इनकी भी शिकायत है कि जब से
लोगों के घरों में कपड़े धोने की मशीन और वैक्यूम
क्लीनर आ गया है, हमारा तो वसंत चला ही गया।
अब कहाँ मिलेगा हमें
हमारा वसंत? चलो हिंदी के प्राध्यापक डॉ. प्रेम
त्रिपाठी से पूछते हैं, वे तो उसका हुलिया बता ही
देंगे। लो ये तो शुरू हो गए, वह भ्रमर का गुंजन, वह
कोयल की कूक, वह शरीर की सुडौलता, वह कमर का कसाव, वह
विरही प्रियतम और उन्माद में डूबी प्रेयसी, वह घटादार
वृक्ष और महकते फूलों के गुच्छे, वह बहते झरने और गीत
गाती लहरें, वह छलकते रंग और आनंद का मौसम, बस मन मयूर
हो उठता है और मैं झूमने लगता हूँ।
हो गई ना दुविधा।
इन्होंने तो हमारे वसंत का ऐसा वर्णन किया कि हम यह
निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि वसंत को किस रूप में
देखें? सब गड्ड-मड्ड कर दिया त्रिपाठी सर ने। चलो
अंग्रेज़ी साहित्य के लेक्चरर यजदानी सर से पूछते हैं,
शायद उनका वसंत हमारे वसंत से मेल खाता हो? अरे ये सर
तो उसे 'स्प्रिंग सीजन' बता रहे हैं। कहाँ मिलेगा यह 'स्प्रिंग
सीजन'? थक गए, थोड़ी चाय पी लें, तब आगे बढ़ें। अरे इस
होटल के 'मीनू' में किसी 'स्प्रिंग रोल्स' का ज़िक्र
है, शायद उसी में हमें दिख जाए वसंत। गए काम से! ये तो
नूडल्स हैं। क्या इसे ही कहते हैं वसंत?
अब तो हार गए, इस
वसंत महाशय को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते। न जाने कहाँ, किस रूप
में होगा ये वसंत। हम तो नई पीढ़ी के हैं, हमें तो
मालूम ही नहीं है, कैसा होता है यह वसंत। वसंत को
पद्माकर ने देखा है और केशवदास ने भी। कैसे दिख गया
इन्हें बगरो वसंत? कहाँ देख लिया इन्होंने इस वसंत
महाशय को? अब नहीं रहा जाता हमसे, हम तो थक गए। ये तो
नहीं मिले, अलबत्ता पाँव की जकड़न ज़रूर वसंत की
परिभाषा बता देगी। अचानक भीतर से आवाज़ आई, लगा कहीं
दूर से कोई कह रहा है।।
कौन कहता है कि वसंत
खो गया है, मेरे साथ आओ, तुम्हें तरह-तरह के वसंत से
परिचय कराता हूँ। ये देखो कॉलेज कैम्पस। यहाँ जुगनुओं
की तरह यौवन का मेला लगा है। मैं पूछता हूँ क्या ये
सभी प्रकृति के पुष्प नहीं हैं? इन्हें भी वसंत के
मस्त झोंकों ने अभी-अभी आकर छुआ है। यौवन वसंत। इसकी
छुअनमात्र से इनके चेहरे पर निखार आ गया है। देख रहे
हो इनकी अदाएँ, ये शोखी, ये चंचलता? वसंत केवल पहाडों,
झरनों और बागों में ही आता है, ऐसा किसने कहा? कभी भरी
दोपहरी में किसी फिल्म का शो ख़त्म होने पर सिनेमाघर
के आसपास का नज़ारा देखा है? वहाँ तो वसंत होता ही है,
स्नेक्स खाते हुए, भुट्टे खाते हुए, चाट खाते हुए,
पेस्ट्री खाते हुए। मालूम है नहीं भाया वसंत का यह रूप
आपको। तो चलो, स्कूल की छुट्टी होने वाली है, वहाँ
दिखाता हूँ आपको वसंत, देखोगे तो दंग रह जाओगे, वसंत
का यह रूप देखकर। वो देखो... छुट्टी की घंटी बजी और
टूट पड़ा सब्र का बाँध। कैसा भागा आ रहा हैं ये मासूम
और अल्हड़ बचपन। पीठ पर बस्ता लिए ये बच्चे जब सड़क पर
चलते हैं, तब पूरी की पूरी सड़क एक बगीचा नज़र आती है
और हर बच्चा एक फूल। क्या इन फूलों पर नहीं दिखता आपको
वसंत?
कभी किसी ग्रींटिंग
कार्ड की दुकान पर खड़े होकर देखा है, इठलाती युवतियाँ
हमेशा सुंदर फूलों, बाग-बग़ीचों और हरियाली वाले कार्ड
ही पसंद करती हैं। ऐसा नहीं लगता है कि इनके भीतर भी
कोई वसंत है, जो इस पसंद के रूप में बाहर आ रहा है।
ऐश्वर्यशाली लोगों के घरों में तो वाल पेंटिंग के रूप
में हरियाला वसंत पूरी मादकता के साथ लहकता रहता है।
ये सारे तथ्य बताते हैं कि वसंत है, यहीं कहीं है,
हमारे भीतर है, हम सबके भीतर है, बस,
ज़रा-सा दुबक गया है और हमारी आँखों से ओझल हो
गया है। अगर हम अपने भीतर इस वसंत को ढूँढ़े, तो उसे
देखते ही आप अनायास ही कह उठेंगे- हाँ यही है वसंत,
जिसे मैं और आप न जाने कब से ढूँढ़ रहे थे। वसंत जीवन
का संगीत है, ताज़गी की चहक और सौंदर्य की खनक है,
परिवर्तन की पुकार और रंग उल्लास का साक्षात्कार है।
जहाँ कहीं ऐसी अनुभूति होती है, वसंत वहीं है। वसंत
कहीं नहीं खोया है। मेरे और आपके अंदर समाया वसंत अभी
भी अपना उजाला, ताज़गी, सौंदर्य पूरी ऊर्जा के साथ
चारों ओर फैला रहा है। बस खो गई है वसंत को परखने वाली
हमारी नज़र। अब तो मिल गया ना हमारे ही भीतर हमारा
वसंत। तो विचारों को भी यहीं मिलता है बस अंत।
९ फरवरी
२००९
१ फरवरी २०२१ |