समकालीन कहानियों में भारत से
कमल कुमार
की कहानी-
वैलेन्टाइन डे
थकी आँखों से उसने मोटे शीशों का चश्मा ऊपर खिसकाया
था। कोट उतार कर कुर्सी पर रखा और हाथों के दस्तानें निकाल कर नीचे टोकरी में फेंके
थे। वाशबेसिन में हाथ धोए दो बार-तीन बार। आँखों पर ठंडी हथेलियों का स्पर्श सुहाया
था। अपना बैग उठाकर बाहर आया था। ड्राइवर ने उसे देखते ही उचक कर उसके हाथों से बैग
लिया। गाड़ी का दरवाज़ा खोला। उसका बैग रखा और दरवाज़ा बंद करके अपनी सीट पर बैठ गया।
स्टार्ट की थी।
'साब घर चलूँ?'
'हाँ भाई।'
उन्होंने घड़ी देखी, 'दस' बज चुके थे। अब और कहाँ जाएगा?
वैसे भी कहाँ जाता है वह। उसने सोचा था। इतना लंबा दिन, पाँच
घंटे का कांप्लीकेटेड ऑपरेशन। उफ! सारा दिन खड़े-खड़े उनकी
टाँगें दुख रही थी। सिर और आँखें पथरा-सी गई थीं। जल्दी से घर
पहुँच कर सोया जाए। भूख भी अब तो मर चुकी थी।
झटके से अचानक गाड़ी रुकी तो उन्होंने आँखें खोली थीं।
आगे...
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अशोक गौतम का
व्यंग्य-
चल वसंत घर आपणे
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दामोदर पांडेय का साहित्यक निबंध
लेकिन मुझको फागुन चाहिये
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श्याम नारायण वर्मा
का आलेख- मादक
छंद वसंत के
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श्रीराम परिहार का ललित निबंध
अभिसार उत्सवा पृथ्वी और फागुन
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