सुबह-सुबह जब हमें मीठी चाय के स्थान पर पत्नी की कड़वी झिड़की मिली तो हमने भी ताव
में आकर घर के पिछवाड़े से मोहल्ले की चाय की दुकान की ओर कदम बढ़ाया। रास्ते में
डर भी रहे थे कि रामभरोसे चाय वाला पुराने उधार का तकाज़ा और सुबह-सुबह बोहनी का
बहाना बनाकर उधार देने से इंकार ही न कर बैठे। हमने भी लंबा साँस भरकर साहस बटोरा,
अपनी 30 इंच की छाती फुलाई और उसकी दुकान में जा धमके।
चेहरे पर नकली मुस्कान चिपकाकर हमने रामभरोसे को एक ज़ोरदार नमस्कार दाग़ा। उसकी
लंबी, चौड़ी और भैंस की सींगों जैसी ऊपर उठी हुई मूँछों को देखकर हमने कहा, "चाचा,
तुम्हारी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। इस महँगाई के ज़माने में मूँछों को तुम्हीं
ऊँची रख सकते हो।"
रामभरोसे ने दो-तीन बार मूँछों को सहलाया, उन्हें मरोड़ा और फिर उन्हें यथास्थित
में लाते हुए बोला, "दरअसल बात यह है बाबू साहब कि मूँछे-वूँछे पालने का हमें
कोई शौक नहीं हैं। लेकिन बात यह है कि मेरी एक भैंस थी। पक्का 12 किलो दूध एक टैम देती
थी। उसे मच्छर बहुत परेशान करते थे। मच्छरों से निजात दिलाने के लिए मैंने एक दिन
उसके शरीर पर डी. डी. टी. मल दिया। मूरख भैंस ने उसे चाट डाला। कमबख़्त भगवान को
प्यारी हो गई। क्या सींग थे उसके! आज तक ऐसे सींग न देखे।" रामभरोसे थोड़ा मायूस और
फिर बोला, "उसी की याद में मूँछे पाल ली हैं।"
रामभरोसे ने मूँछों को सहलाया और फिर बोला, "चाय पिओगे? हमने विजयी भाव से हाँ की
और एक स्टूल पर बैठ गए।
चाय बनने में प्रत्यक्ष देर जानकर हमने कमरे में आजकल के मानसिक खाद्य अर्थात
अख़बार ढूँढ़ने की चेष्टा की। कुछ दिखाई न दिया। आदत के अनुसार हमने लंबे बेंचनुमा
मेज़ के नीचे झाँका तो हमारी दृष्टि पकौड़ों के महँगे तेल से अपने को पवित्र एवं
धन्य करते एक हस्तलिखित काग़ज़ पर पड़ी। हमने जिज्ञासावश उसे उठाया। ध्यान पूर्वक
देखा तो किसी को पत्र लिखा गया लगता था। स्थान और तारीख धुँधला गई थी।
चाय की बात भूलकर हमने पत्र पढ़ना आरंभ किया। लिखा था -
"प्रिय सखी, रामनिहोरी,
आशा है तुम जीजाजी और मुन्नी के साथ कुशल होगी। दिवाली से ही तुम्हें पत्र लिखने की
सोच रही थी लेकिन काफ़ी व्यस्त रहने के कारण लिख न सकी। ठंड भी थी। आलस भी रहा।
यहाँ मार्च आया है। वहाँ फागुन पहुँच गया होगा। धूप में तेज़ी आ गई है। हमने
स्वेटरें बुनना और धूप में बैठना बंद कर दिया है। हीटर भी पैक कर दिए हैं। पंखों पर
ग्रीस लगा दी है। गर्म कपड़ों को धो-सुखाकर फिनायल की गोलियों के साथ बक्सों में
बंद कर दिया है। थोड़ा फ़ुर्सत हो गई है, सोचा तुम्हें पत्र ही लिख दूँ।"
"गाँवों में बसंत आ गया होगा। सोए-अलसाए पेड़ नई पत्तियों और फूलों से अपना
श्रृंगार कर रहे होंगे। कोयल की कूक गूँज रही होगी और फागुनी बयार मंद-मंद बह रही
होगी। धूप की कुनकुनाहट अब गरमाहट में बदल गई होगी। यहाँ भी बसंत आ गया है, यह बात
हमने टी. वी. पर सुनी। एक दिन हमने टी. वी. पर मुगल गार्डन के रंगबिरंगे फूलों की एक
झलक देखी तो विश्वास हो गया कि वाकई बसंत आ गया है। यहाँ फागुन कभी नहीं आता। यहाँ
मार्च ही आता है।
"ये भी आजकल रात को देर से घर आते हैं। कहते हैं,
मार्च आ गया है और दफ़्तरों में मार्च का बड़ा महत्व है। पुराना सामान 'राइट ऑफ़'
कर नया ख़रीदा जाता है। 'राइट ऑफ़' किया गया सामान साहबों और बाबुओं के घरों की शोभा बढ़ाते हैं। बजट हो तो नया
फ़र्नीचर भी ख़रीदा जाता है। पुराने की मरम्मत कर वार्निश की जाती है। काग़ज़ कलम
नए ख़रीदे जाते हैं। कुछ नई सड़कें और गलियाँ नई बनती दिखाई देती हैं। जो पुरानी
होती हैं, उनकी मरम्मत कर ली जाती है। ये काम कुछ वास्तव में होते हैं और जो वास्तव
में नहीं होते वे फ़ाइलों पर हो जाते हैं। इमारतों पर चूना लगता है। कुछ सरकार पर
ही चूना लगाने की सोचते हैं। कुछ तेज़तर्रार लगा भी लेते हैं।
"इधर शहर में मक्खियाँ भिनभिनानी आरंभ होती
हैं और उधर बजट खर्च करने के धूम में सरकारी, अर्धसरकारी दफ़्तरों में मनुष्यों की
भिनभिनाहट अपनी चरम सीमा पर होती है। महीने भर चलने वाले इस उत्सव का समापन ''31 मार्च'' को होता है। उस दिन दफ़्तरों के
बाबू, अफ़सर, ठेकेकार सभी अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार अंग्रेज़ी, देशी, कच्ची-पक्की
पीते हैं और अपने को धन्य समझते हैं।"
"आजकल खुशामदी कर्मचारी और अधिकारी अपने-अपने बॉस की दफ़्तर में मन और घर में तन
तथा धन से आराधना करने में व्यस्त हैं। ईमानदार कर्मचारी अपने क्षमता दिखाने के लिए
अतिरिक्त कार्य कर रहे हैं। वे मार्च के अंत में सी. आर. रूपी कर्म-कुंडली में अपने
वर्षफल को सजाने-सँवारने के लिए व्यग्र, व्यस्त एवं अपने-अपने ढंग से प्रयत्नशील
हैं।"
"री, सखी, यहाँ पेड़ तो होते नहीं, इसलिए फूल भी कम खिलते हैं। हाँ, लोगों की
बाँछें, जहाँ कहीं भी ये होती हैं, अवश्य खिलती हैं। ठेकेदार की बाँछें खिल रही हैं
क्यों कि उसे विश्वास है कि ठेका पूरा हो न हो, उसका पेमेंट ज़रूर होगा। अफ़सर और
इंजीनियर की बाँछें कमीशन की रकम कैलकुलेट कर पुलकित हो रही है। दुकानदारों की
बाँछें कुटिल मुस्कान से खिल रही हैं। उनके मन में लड्डू फूट रहे हैं कि होली का
त्यौहार है, मिलावट का भरपूर मौका है। अध्यापक के दिल की कली टयूशन-राशि प्राप्ति
की सुखद आशा से प्रस्फुटित हो रही है। जो अध्यापक ट्यूशन नहीं करते उनकी बाँछें
शिष्यों के(अस्थायी)अनुशासन और भक्ति-भाव से ही मुदित हैं। निष्कर्ष यह है कि सब
की बाँछें किसी न किसी कारण, किसी न किसी न रूप में खिल रही हैं।"
"भारतीय संस्कृति के कुछ अनुयायी अभी भी यहाँ
शेष बचे हैं। उन्होंने पुराने वर्ष की भावभीनी विदाई का पूर्ण प्रबंध कर लिया है।
चैत्र मास से आरंभ होने वाले नए वर्ष
के स्वागत के लिए उन्होंने पलक पाँवड़े बिछा रखे हैं। कुछेक ने नव वर्ष के बधाई
पत्र भी प्रकाशित करवा लिए है। फागुन के जाते न जाते वे इन्हें डाक विभाग को
समर्पित कर देंगे।"
"बाबू साहब, चाय!" रामभरोसे की आवाज़ सुनकर हमारे पढ़ने का क्रम भंग हो गया। उसने
काग़ज़ के ऊपर ही चाय का गिलास रखते हुए टोका, "पता नहीं क्या पढ़ते रहते हो। भला
इस गंदे काग़ज़ में भी कोई पढ़ने की चीज़ हो सकती है।" वह और भी कुछ कहता रहा जिस
पर हमने ध्यान नहीं दिया। हमने चाय की बड़ी-बड़ी घूँट लीं। गिलास रखने से काग़ज़ पर
चाय से वृत्त का एक निशान भी बन गया था जिससे गंदे काग़ज़ की शोभा द्विगुणित हो गई।
फिर भी हमने पढ़ना जारी रखा -
"यहाँ शहर में टेसू के फूल तो किसी ने देखे नहीं। कई लोगों ने तो इसका नाम तक नहीं
सुना है। इसलिए यहाँ होली में इसके रंग का उपयोग एक पौराणिक बात है। होली के लिए
लोगों ने अपने-अपने ढंग से अलग-अलग रंगों का प्रबंध कर रखा है। मुहल्ले के
श्यामबिहारी एक ऑफ़िस में दफ़्तरी हैं। वह दफ़्तर से एक शीशी डुप्लीकेटिंग स्याही
ले आया है, होली मनाने के लिए। पी. डब्ल्यू. डी. के एक छोटे ठेकेदार ने एक डिब्बा
तारकोल सँभालकर रख लिया है। वह कच्चे रंगों में विश्वास नहीं करता। अबकी बार रंग
लगाने की उसकी ऐसी योजना है कि सब उसे याद रखें। बाकी लोग बाज़ारू रंगों पर निर्भर
हैं। कई शरारती बच्चों ने पानी की गेंदें इकठ्ठा करना प्रारंभ कर दिया है।
"होली आए और कवि सम्मेलन न हो, यह दूसरे शहर की
रीत होगी हमारे शहर की नहीं। शहर के कुछ कवि-सम्मेलन छाप कवियों ने चुटकुलों को
तथाकथित रंग-बिरंगा चोला पहना दिया है। अब वे उन चुटकुलों से श्रोताओं को मोहने का प्रयास करेंगे। हास्य रस के एक पुराने
कवि खंखार-खंखार कर अपना गला साफ़ कर रहे हैं और अपनी पुरानी रचनाओं को नए अंदाज़
में पेश करने का रियाज़ कर रहे हैं। कुछ कवि दूरदर्शनी प्रतिभाओं से भी
संपर्क कर रहे हैं ताकि जनसामान्य उनके फ़ोटोजेनिक चेहरे और मधु कंठ से वंचित न रह
जाएँ। नए कवि और लेखक लिख-लिखकर काग़ज़ की बिक्री बढ़ा रहे हैं। उनकी पत्नियाँ उनकी
रचनाओं के पोथों को सँभाल-सँभाल कर रख रही है क्यों कि होली आ रही है। घी बहुत
महँगा है। घी की जगह ये ही रचनाएँ होलिका-दहन में काम आएँगी।"
"बच्चों की भी परीक्षाएँ सिर पर हैं। बच्चे अपने-अपने ढंग से इसकी तैयारी कर रहे
हैं। छोटी बबली तो आधी रात से ही किचन में खड़-खड़ की आवाज़ कर चाय बनाती है और फिर
सूरज निकलने तक पाठ रटती रही है। बड़ा बबलू बड़े आराम से दिन चढ़े तक सोता रहा है।
दिन में या तो अपने दोस्तों के साथ मटरगस्ती करता है या गली के सामने खुले में
मुहल्ले के आवारा लड़कों के साथ क्रिकेट खेलता रहा है। एक दिन उससे पड़ोस के गुप्ता
जी का सिर फूटते-फूटते बचा।"
"पापा, उठो। मम्मी आ रही है।" हमें झकझोरते हुए हमारी बिटिया ने कहा। इतना कहते ही
वह ओझल हो गई। पत्र काफ़ी लंबा था और पढ़ने को शेष था। हमने घर के रास्ते की ओर आँख
उठाकर देखा तो रौद्र रूप में श्रीमती जी हमारी ओर आती दिखाई दी। हमने काग़ज़ को जेब
के हवाले किया। रामभरोसे को पुराने और नये उधार, दोनों का भुगतान शीघ्र करने का
भरोसा देकर हमने उससे आनन-फ़ानन में विदा ली और दुकान के पिछवाड़े से लंबे-लंबे डग
भरते हुए घर की ओर लपके।
पीछे-पीछे कुड़कुड़ाती-बड़बड़ाती श्रीमती जी भी धमकीं। आदतन उसने अपना ओजस्वी भाषण
सुनाया। पत्र के ध्यान में मगन और परंपरा का निर्वाह करते हुए हमने कुछ नहीं सुना,
कहा। हमने जल्दी से कपड़े बदले और नाश्ता कर नौकरी पर चले गए।
शेष पत्र पढ़ने की उत्सुकता में दिन भर काम में मन नहीं लगा। घर आते ही हमने वह
पत्र वाला जेब टटोला। लेकिन यह क्या! जेब फटी हुई मिली और पत्र ग़ायब। पत्र जिस
रहस्यमय ढंग से चाय की दुकान पर मिला, उससे भी अधिक रहस्यमय ढंग से जेब से ग़ायब हो
गया। संभवत: पोस्टमैन की असावधानी से वह पत्र गंतव्य से भटक कर रद्दी की शोभा बढ़ाता
हुआ चाय की दुकान पर पहुँचा हो। किंतु हम यह सोच-सोच कर दुबले हो रहे हैं कि क्या
पत्र को जेब खा गई, धरती लील गई या फागुनी बयार बहा ले गई?
आपको यह पत्र मिले तो हम तक पहुँचाने की कृपा अवश्य कीजिएगा।
९ मार्च २००६
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