हास्य व्यंग्य | |
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शहर में वसंत
की तलाश |
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वसंत को देखे कई साल गुज़र गए, यह भी याद नहीं कि उसे
आख़िरी बार कब देखा था। बहुत दिनों से मेरा मन वसंत से मिलने के लिए मचल रहा है। पर
वसंत है कि अपने हर ठौर-ठिकाने से गायब है, वैसे ही जैसे सरकारी अस्पतालों से दवा
और डॉक्टरों के दिल से दया गायब रहती है। इस ज़माने में जवानी से बुरी कोई चीज़ नहीं, वह आती है तो जीवन की बहुत-सी अच्छी चीज़ें छीन लेती है। पहले जवानी आती थी तो जीवन में बहुत कुछ आता था। प्रेम आता था, कविता आती थी, फूल आते थे, संगीत आता था। मतलब जवानी वसंत लेकर आती थी। जब जवानी आती है तो बेरोज़गारों का पतझर लाती है। विश्वविद्यालयों की अर्थहीन डिग्रियाँ लाती हैं। रोज़गार दफ्तरों की लंबी कतारें लाती हैं। युवाओं की इश्क की उम्र अब रोज़गार की तमन्नाओं में गुज़रने लगी है। लड़कियों के कॉलेज के चौराहे सूने दिखाई देते हैं। मजनुओं की नस्ल समाप्त होती जा रही है। पार्क रिटायर्ड बूढ़ों से भरे रहते हैं। शहर से रोमांस जैसे निर्वासित हो गया है। जवानी अब भूख लाती है, हताशा लाती है, आत्महत्या का ख़याल लाती है। मुझे किसी बच्चे को जवान होते देख बड़ी दया आती है। आशीष देने की इच्छा होती है कि वह हमेशा बच्चा ही बना रहे, कभी जवान न हो! हमारे देश में बेरोज़गारी, बाधा दौड़ की तरह है। अच्छी डिग्रियाँ होने पर भी पचासों बाधाएँ सीना ताने खड़ी रहती हैं। नौकरी पाने के लिए कुछ कर्मकांड अनिवार्य हैं। योग्यता यहाँ खोटा सिक्का है। नौकरी की एक शर्त है, सिफ़ारिश। सिफ़ारिश के लिए राजनीति के खलीफ़ाओं की चौखट पर नाक रगड़नी ज़रूरी है। नाक तब तक रगड़ना पड़ता है, जब तक उसका खंडहर शेष न रह जाए। नाक रखते हुए आप नौकरी नहीं पा सकते। नौकरी के लिए नाक की शहादत ज़रूरी है। नाक रगड़ने की कला के बाद दफ्तर के देवताओं को प्रसन्न करने का विज्ञान जानना ज़रूरी है। दफ्तर के देवता चढ़ावे से प्रसन्न होते हैं। इनका पेट महासागर होता है। दोहन की कला के ये सिद्धपुरुष होते हैं। तात्पर्य यह है कि देश में नौकरी पाने की एक पूरी टेक्नोलॉजी विकसित हो गई है। इस टेक्नोलॉजी के कारण अनेक हयादार युवाओं को अपने मनुष्य होने पर शर्मिंदगी महसूस होने लगती है। वे मानव योनी से मुक्त होने के लिए नींद की गोलियाँ, सल्फास, सीलिंग फैन, रेल की पटरियाँ आदि की शरण तलाश लेते हैं। बेरोज़गारी की पीड़ा से मुक्ति के लिए इन आविष्कारों का योगदान अमर रहेगा। युवाओं की जो शक्ति भ्रष्टाचार पर फल-फूल रही व्यवस्था को बदलने में लगनी चाहिए थी, वह नौकरी के जुगाड़ में लग रही है। सरकारें बड़ी चतुर होती हैं। वे युवाओं को रोज़गार के संघर्ष में व्यस्त कर देती हैं। फिर इतमीमान से घोटालों में लिप्त हो जाती हैं। युवा जान ही नहीं पाते कि देश भ्रष्टाचार का महासागर बन गया है। बेरोज़गारी से मैंने भी लंबा संघर्ष किया। इस कोल्हू में जीवन का सारा रस निचुड़ गया। सारे रंग हवा हो गए। बड़ी मुश्किल से सफलता मिली। बेरोज़गारी बुरी चीज़ है। अच्छे-अच्छे शूरवीरों को चित कर देती हैं। संभावनों के कई शीर्ष शिखर धराशायी हो जाते हैं। ऐसे शिखर जो कला, साहित्य, संस्कृति में नई ज़मीन तोड़ सकते थे। रोज़गार मिला तो मुझे दुनिया का होश आया। बेकारी ने घर-आँगन, यार-दोस्त, पास-पड़ोस, सैर-सपाटे, चाट-चटनी सबसे बेगाना कर दिया था। रोज़गार की संजीवनी से मुझे नया जीवन मिला। वर्षों बाद भोर बहुत सुहानी लगी। पेड़ पर फुदकती गिलहरी को देख मैं अर्से बाद मुस्कराया। तार पर बैठे कौओं की कव्वाली सुन महीनों बाद हँसा। मस्ती में मैंने सूरज को सैल्यूट मारी और कहा, कामरेड! देखो मैं फिर गुनगुना सकता हूँ। हँस सकता हूँ। खुश हो सकता हूँ। बेरोज़गारी के कारण मैं हँसी, चाँद-तारे, इंद्रधनुष, भोर, गिलहरी, खुशबू, प्यार, परिंदे आदि सबसे हाथ धो बैठा था। रोज़गार मिला तो वसंत का ख़याल आया। लगा, बहुत कीमती चीज़ खो बैठा हूँ। मन का मरुस्थल हरा होते ही मैंने वसंत की तलाश शुरू कर दी। निश्चय कर लिया कि वसंत से अवश्य मिलना है। घर पर वसंत का मिलना मुश्किल था। पानी की किल्लत के कारण घरेलू बगिया कब की सूख चुकी थी। वसंत के बकवास में हमारे नगर निगमों का बड़ा योगदान है। वे पीने का पानी मुश्किल से देते हैं, नहीं चाहते कि नागरिक बाग-बगिया लगाकर पानी की फिजूलखर्ची करें। वे नागरिकों से वसंत की निकटता के विरोधी हैं। फूल उनकी दृष्टि में क्षणभंगुर चीज़ हैं। सुबह खिलकर शाम को मुरझा जाने वाले। नगर निगमों का वश चले तो वे 'पुष्प प्रतिबंध अधिनियम' बना दें, जिसमें फूल उगाने पर पाँच मास के सश्रम कारावास का प्रावधान किया गया हो। मेरी बगिया अवशेष मात्र रह गई थी। फिर भी गुलाब का
एक पौधा अर्धजीवित था। वह किसी खैराती अस्पताल के टीबी ग्रस्त रोगी की तरह लग रहा
था, जो डॉक्टरों की देख-रेख में दम तोड़ना चाहता है। मैंने उससे पूछा, ''वसंत की
कोई ख़बर है?'' मुझे गहरा अफ़सोस हुआ। आदमी की सोहबत से फूलों की
सभ्यता भी ख़तरे में पड़ गई है। मैं सोचने लगा, फूलों की नस्ल यदि खत्म हो गई तो
क्या होगा? मुहल्ले से निराश हो मैं नगर में वसंत खोजने निकल पड़ा। नगर में पहला साक्षात्कार निगम की नालियों से हुआ। वे गंदगी से लबालब भरी थीं। मच्छर शिशु उनकी रज में लोट-लोटकर बड़े हो रहे थे। मक्खियों का वहाँ अखंड आरकेस्ट्रा बज रहा था। नालियाँ नाना प्रकार के कीड़े-मकोड़ों की मेट्रोपोलिस सिटी नज़र आ रही थी। मुझे मितली आने लगी। लगा कि यह नालियाँ नहीं, मच्छरों की नर्सरियाँ हैं। भारतीय मच्छरों की गुणवत्ता विश्वप्रसिद्ध है। संभवतः निर्यात हेतु निगम इनकी खेती कर रहा था। विश्राम की मुद्रा में लेटे एक वयोवृद्ध केंचुए ने मुझे देखकर कहा, ''अखबार वाले हो क्या भइया? निगम वालों तक हमारा आशीष पहुँचा देना। पिछले एक दशक से उन्होंने यहाँ कोई सफ़ाई कर्मचारी नहीं भेजा। उनकी कृपा से हम बड़े मज़े में हैं। हमें वोट देने का अधिकार मिल जाए तो सारे मच्छर-मक्खियाँ वर्तमान पदाधिकारियों को ही वोट देंगे। भगवान ऐसे काबिल अफ़सर सभी निगमों को दे।'' इस गंदगी में वसंत की खोज व्यर्थ थी। यहाँ तो
दुर्गंध का अखंड साम्राज्य था। मनुष्य और मच्छर-मक्खियों का अनोखा सहअस्तित्व यहाँ
दिखाई दिया। दोनों आदर्श पड़ोसियों की तरह भ्रातृत्व से रह रहे थे। द्वार खुला, नगरकवि प्रकट हुए। चहक कर बोले, ''आओ
मित्र, आओ। मैं श्रोता का ही इंतज़ार कर रहा था। दस मिनट पहले ही एक उत्कृष्ट कविता
लिखी है।'' नटखट जी ने मुझे हिकारत से देखा, बोले, ''आप समय
से बहुत पीछे चल रहे हैं। १९वीं सदी वसंत की थी, २०वीं सदी परमाणु बमों की रही और
२१वीं सदी मीडिया और मल्टीमीडिया की है।'' मुझे याद आया। वारदाना व्यापारी बाबू खोटेलाल के
सपूत श्रीयुत बाबूलाल! वे एक मंत्रालय पाकर संतुष्ट नहीं थे। असंतुष्ट होकर
उन्होंने सरकार गिरा दी। अब नई सरकार में तीन-तीन मंत्रालय पर कब्जा किए बैठे हैं। मेरी कल्पना में एक दृश्य उभरा, वसंत ज़मीन पर चित पड़ा है। महाकवि नटरवरलाल 'नटखट' उसकी छाती पर सवार हैं। वे वसंत का गला दबाकर कह रहे हैं, अबे भाग! तेरी जगह बाबूलालों ने ली है। अब कुर्सी पे, कलान में, कवि के कलाम में, कीर्तन में, कानून में, सारे कल्चरान में, बैठ्यो बाबूलाल है। या नदी में डूब मर या पहाड़ से कूद जा,,, फिर मनहूस मुँह मत दिखाना... नगरकवि की बाबूलाल-भक्ति से मैं घबरा गया। किसी
तरह जान छुड़ा कर वहाँ से भागा... नदी रोने लगी। किनारे पर खड़े चमड़े के कारखाने की
ओर इशारा किया, बोली, ''उसने मुझे कोढ़ी बना दिया है। मुझसे दूर रहो, बाबू।'' वहाँ सचमुच वसंत विराजमान था। चारों ओर फूल ही फूल
थे। खुशबू ही खुशबू बिखरी थी। मैंने लाला जी को बधाई दी। कहा, ''सारे शहर में वसंत
आपकी कोठी पर ही मिला। इतने सारे फूल और इतनी भीनी-भीनी सुगंध! मन मस्त हो गया।'' मैं फिर निराश हुआ। परंतु मैंने लाला जी के
वसंत-प्रेम की सराहना करते हुए कहा, ''जो भी हो, ऋतुराज वसंत के स्वागत में आपने
उत्सव तो आयोजित किया। वसंत के कद्रदानों की तो नस्ल ही लुप्त हो रही है।'' बजट के अंदेशे से दुबले होने वाले सज्जन के जाने
के बाद एक फटेहाल पागल-सा व्यक्ति पास आ कर बैठ गया। उसके हाथ में एक गुलाब का फूल
था। वह उसे बच्चे की तरह छाती से चिपकाए था। मैंने पूछा, ''वसंत का पता बता सकते
हो?'' अचानक वह व्यक्ति उठा। मुझे सैल्यूट दागा और एक
देशी पिल्ले को पुचकारता हुआ आगे बढ़ गया। पौराणिक शंकर ने कामदेव को भस्म कर दिया था। मैंने अनुभव किया, आधुनिक सभ्यता के शंकरों ने वसंत की हत्या कर डाली है। ११ फरवरी २००८ |