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ललित निबंध

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आओ व्यक्ति का वसंत खोजें
- परिचय दास


बसंत पर निबंध लिखने का अर्थ है अपने समय की ऊर्जा को महत्व देना, तरुणाई को मान देना, यथास्थिति को बदल देना और सकारात्मक परिवर्तन की दिशा की ओर बढ़ना। बसंत का तात्पर्य है फूलों में पल्लवन, वनस्पतियों में प्रमोद और धरती का शृंगारमय रचाव। बसंत हमारे मन का हरियाला क्षेत्र है। जितनी उल्लासमय श्रेष्ठताएँ हमारे भीतर व बाहर हैं, वे बसंत का ही रूपक हैं। बसंत को अनंग का मध्याह्न कहा जाता है। यह हमारे सृजन, चिंतन व अग्रसरण का भी मध्याह्न है। यही वह समय है, जब न केवल वन-उद्यान में पुष्प खिल जाते हैं, वरन हम अपनी आँखों और किसी अन्य की आँखों में भी पुष्प खिलते हुए देखते हैं।

बसंत एक रंग है, जो छूटता नहीं। वह भाव-अनुभाव है। बसंत हमें अभिभूत करता है, क्योंकि बसंत प्रेम का पर्याय है। किंतु प्रेम विद्रोही भी होता है और टेसू के आरक्त विप्लव वाला बसंत भी विद्रोही है। जिस तरुणाई में विद्रोह नहीं, वह अकारथ है। यह विद्रोह मात्र प्रतिरोध के लिए नहीं होता। यह होता है गतिशीलता की अभिकेंद्रिता को अर्थगर्भित करती मनुष्यता की यात्रा के लिए। इस गतिमयता में बसंत के प्राणतत्व सहृदयता का आधारिक पक्ष होता है। जीवन के हर क्षण, हर पंक्ति में यही जीवन-प्रेम, आत्मीयता प्रकट होती है या होनी चाहिए। बसंत की गतिमयता होनी चाहिए हमारे पर्यावरण में।

आज बसंत ललित नहीं, क्रोध ललित है। क्रोध बढ़ रहा है, व्यवस्थाहीनता बढ़ रही है। व्यवस्था की ज्यामिती बदलने के लिए आँदोलनों की बाढ़-सी आ गई है। यह अलग बात है कि हर हलचल सकारात्मक नहीं होती, न ही मुठ्ठी-भिंची हर आवाज प्रामाणिक। फिर भी इतना स्पष्ट है कि ध्वनियों, अनुगूँजों, प्रतिसंवादों का बहुलता भरा उभार है और वह 'सही जगह से स्थगित किए जाने के रोष' से उपजा है। जो लोग इसे नहीं देख पा रहे, उन्हें सामान्य मनुष्य की बेचैनी को महसूस करना चाहिए। उन्हें विश्व के समकाल की नब्ज पर उँगली रखनी चाहिए।

फूल-पत्तों से होते हुए बसंत अखबारों के शीर्षकों तक प्रतिबिंबित हो रहा है। बदलता भाषाई-विन्यास बसंत के नए रूपांतरण को दर्शाता है। हम इस बहाने शब्दों के अर्थ और उनके अर्थभेद की गंभीरता को समझ पा रहे हैं। हम समझ पा रहे हैं कि भाषा केवल शब्दों का जाल नहीं और बसंत केवल पंचमी तक सीमित नहीं। यह एक अवसर है, जहाँ से हम वाक् की शक्ति को ग्रहण करने के लिए आधार पा लेते हैं। यह शक्ति शब्दों के शब्दकोषीय अर्थों से सर्वथा भिन्न होती है। यही वह बात है, जहाँ बसंत के माध्यम से बिंबों और प्रतीकों के जरिए हमें नई दृष्टि मिलती है, जिसका अपना सौंदर्य होता है।

बसंत पंचमी को मात्र आनुष्ठानिकता से जोड़ देना वाक् और बसंत की अनुगामिता का उल्लंघन है। यहीं हमें नया विश्वास व नया संकल्प चाहिए। 'श्री' सौंदर्य है और ऐश्वर्य भी। यह सौंदर्य हजारों ग्रामीण, आदिवासी, शहरी दरिद्रताओं तक लाना होगा विद्या के माध्यम से। पीले कपड़े पहनकर हम बाहरी वातावरण जरूर बना सकते हैं, लेकिन असली उल्लास तो उन चेहरों पर लाना होगा, जिनके घरों में रोजगार नहीं है। बसंत के वास्तविक फूल तो वे बच्चे हैं, जिन्हें स्कूल जाना है। व्यक्तिगत प्रार्थना को संकल्प में बदलकर समूहवाची संकल्प तक जाना होगा।

देवी-देवता हमारे जीवन में हों, अच्छी बात, किंतु हमें उन्हें सामान्य व्यक्ति में ही देखना होगा। व्यक्ति को ही इतनी प्रतिष्ठा देनी है कि वह वाक् बन जाए, बसंत बन जाए। व्यक्ति-विभेद को निरंतर कम करना बसंत के और निकट जाना है। जितनी समरसता बढ़ेगी, श्रेणीकरण कम होगा, हमें लगेगा कि फूलों में गंध बढ़ रही है, उनकी खूबसूरती बढ़ रही है। व्यवस्था में विकट असंतोष की एक वजह ऊँच-नीच का विभेदीकरण भी है। एक तरफ रोज-रोज रोटी के लाले तो दूसरी तरफ बड़ी कंपनियों, बड़ी संस्थाओं और सिस्टम में पैसे बहाए जाने की वीभत्स लालसा। यह दूर किया जाना चाहिए, वरना दुनिया में आग लगे रहने की स्थिति जारी रहेगी। साहित्य और कला का बसंत हूबहू राजनीति का बसंत नहीं। अब जो नए किस्म की राजनीति आ रही है, वह साहित्य व कलाओं की तरह संवेदनशील बनाई जानी चाहिए। यह आएगी सृजनात्मक अनुभूति से। मूल्य-चेतना से। आज राजनीति सर्जना का विषय नहीं, मात्र सत्ता का हेतु है। उसे प्रामाणिकता पूर्वक मानुष मन के यथार्थ का स्थापत्य बनाया जाना चाहिए, ताकि हमारा बसंत उभर सके।

बसंत जीवन को समारोह बनाता है, उत्सव बनाता है। रोजमर्रा का जीवन जीते-जीते समाजों में एकरसता आती है और व्यक्तियों में भी। इसीलिए जड़ता को तोड़कर अंधकार को हटाकर उत्सवों की हरियाली आवश्यक है। यही अवसर है- स्वप्न देखने का, फैंटेसी बुनने का, फूलों की आभा में खो जाने का, चिड़ियों के पंख फैलाने का। बसंत में इसीलिए आवेगमयता बढ़ती है, ऐंद्रिक अनुभूतियों का विस्तार होता है, गहनता आती है। सहज वृत्तियों की शक्ल से उत्पन्न मनोभावों के प्रतिमानों और भावनाओं के तीव्र मिलन से स्मृति को स्वतंत्रता मिलती है और संपूर्ण अनुभवात्मक प्रतिमानों का निर्माण होता है। यही बसंत का हेतु है। यही बसंत अनेक बार प्रतिमान बनाता है, फिर तोड़ देता है।

आज जीवन आनंदहीन-प्रेमहीन प्रतीत होता है। इसीलिए वह आवेगरहित होता गया है। जैसे जीवन से मादकता बिछुड़ गई हो, लगता है उसके पास स्वयं व समाज को देने के लिए प्रगाढ़ता बची नहीं है। बिना प्रगाढ़ता मनुष्यता का अर्थ क्या? जहाँ नैकट्य ही न रह जा पा रहा, विलगन बढ़ता जा रहा, वहाँ नीरसता, रंगहीनता छाएगी ही। वहाँ वर्चुएलिटी होगी। वास्तविक व आत्मीय मित्र कम होंगे। बसंत के उल्लास व विद्रोह को पहले जीवन के आवेग में लाएँ, परिवर्तनशीलता का वाहक बनाएँ, साथ-साथ वर्चुएलिटी की ओर जाएँ। वरना आप इंद्रधनुष नहीं देख सकते, जो ठीक आपके सिर के ऊपर आकाश में है, आप चंद्रमा की शीतलता नहीं महसूस कर सकते, जो दूधिया शक्ल में आपके आसपास बिखरी हुई है। तारों की अनुगूँज नहीं अनुभव कर सकते, जो आपके बचपन में भात-दाल खाते टिमटिमाया करते थे।

बसंत का पौरुष- स्त्री का सम्मान, भाषा की बहुलता, अंतिम आदमी की पीड़ाहरण का हेतु है, सेतु है। वह इस दुनिया तथा गुनगुनी हरियाली धूप में नहाए उपहारों के लिए एक प्रेमी का आवेग है, जैसा अन्य कहीं न हुआ होगा। अन्य कहीं न होने का अर्थ बसंत की अनन्यता है। जो बसंत अनन्य नहीं, उसका तात्पर्य क्या? प्रेम में अनन्यता, बसंत में अनन्यता, विद्रोह में अनन्यता। प्रेम व बसंत में वह तरुण आवेग है, जो अमानवीयता के विरुद्ध जुगुप्सा पैदा करे, व्यक्ति के खून में उबाल लाए, बराबरी के लिए संघर्ष करे, जीवन की पवित्रता और सादगी को सम्मान दे। जीवन पवित्र है, जादूभरा है, चमत्कार है, यही प्रतिबिंबन हम अपने समय व भविष्य के बसंत में देखते हैं। जादू और चमत्कार साधारण मनुष्य की पसीने की गंध से आते हैं। आज का बसंत असाधारण को साधारण की इसी निगाह से देखने का प्रबल आवेग है।

१५ मार्च २०१६

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