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ललित निबंध

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वसंती पत्र पर लिखा निसर्ग का काव्य
- श्रीराम परिहार


वसंत आ गया है। भारतवर्ष में इस साल ई.सन् २००० कहीं सूखा है, कहीं बाढ़। एक सूखे से अकाल है। दूसरा पानी से अकाल है। लेकिन काल के भाल पर वसंत, फूलों का कुंकुम और सुगंध के अक्षत लगा रहा है। इस वर्ष केवल अनावृष्टि या अतिवृष्टि के कारण ही प्रकृति कुछ असामान्य-सी हुई हो, ऐसा नहीं है। प्रकृति पूरी तरह अनखाई-सी हो गई है। पौष के महीने में आमों में बौर आ गए हैं। चलो आम्र-बौर तो एक महीने पेश्तर ही आए, पर जब यह देखा कि पौष में महुआ झरने लगा, तो बुद्धि अचकचा गई। प्रकृति भी सूखे की मार से भ्रमित हुई है या मनुष्य की प्रकृति-विरोधी करतूतों के कारण ये दिन देखने पड़ रहे हैं? मुझे तो दूसरा कारण ही ज्यादा सही लगता है। महुआ फागुन-चैत में फूलता है। पर दो महीने पहले ही प्रकृति का फूलकर निफूला हो जाना, प्रकृति की क्रोधित प्रतिक्रिया है या ग्रीष्म की भयानकता से पूर्व ही अपने शृंगार की मोहकता? या धरती की छाती फटने से पूर्व उसे दी जाने वाली सुमनों की सांत्वना?

प्राचीन काल में दंडक वन में कोई अरजा कन्या थी, जिसके साथ किसी राजा ने बलात्कार किया। हमारे यहाँ कन्या को देवी का स्वरूप माना जाता है। वह कन्या अरजस्वला थी। अबोध थी। उसके शाप से पूरा देश रसमयता से हीन हो गया। लताएँ सूख गईं। पौधों पर फूल आना बंद हो गए। पेड़ों ने फल देने से मना कर दिया। प्रकृति दुःखित हो उठी। यह पृथ्वी ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ नहीं है। यह वत्सला है। यह माँ है। भोग से वात्सल्य ऊँचा होता है। मातृत्व अधिक स्थायी, गहरा और व्यापक होता है। भोग, भोग और भोग उचित नहीं। इससे वस्तुओं से पटे हुए बाजार और कचरे से भरे हुए महानगर ही प्राप्त होंगे।

वसंत कामदेव का सखा है। काम का अर्थ वासना नहीं है। काम का अर्थ ‘इच्छा’ है। इच्छाएँ तो अनंत हैं। सबकी पूर्ति होना संभव नहीं है। फिर भी वसंत कुछ इच्छाओं की पूर्ति हेतु अनुकूल और उल्लासपूर्ण वातावरण निर्मित करता है। वसंत की उत्फुल्लता में भी रमणेच्छा से अधिक प्रबल सिसृक्षा होती है। धरती की कामनाएँ किसलयों में, पुष्पों में, फलों में चहकती हैं। यह प्रकृति के द्वारा उस परमचेतना की अभ्यर्थना है, जो ‘स्मर’ रूप में चराचर में व्याप्त है। प्रकृति के वासंती पत्र-पत्र पर लिखा गया निसर्ग का यह अकलुष काव्य "त्रैलोक्य मोहाय विद्महे, स्मराय धीमहि, तन्नोविष्णु प्रचोदयात्" की ही स्तुति है। समुद्र से गहरे हृदय में उसी से मिलने की वाडवाग्नि जल रही है। पर्वत-पर्वत खिले फूलों भरे आकाश में उसी का रूप उद्भाषित हो रहा है। पक्षियों के कलरव में उसी के गान प्रस्फुटित हो रहे हैं। सरिताओं की गति में वही गतिमान है। यह प्रकृति की कामनाओं का वह स्तर है जो अंतर के अविकसित को विकसित करता है। सह मात्र ‘रमण तृषा’ का हेतु नहीं, बल्कि मातृत्व का उदात्त रूप है, जो सर्जना में आनंद का आस्वादन करता है।

प्रकृति की उपर्युक्त आत्मउत्थित ‘भाव स्मरता’ की तृप्ति का रूपांतरण भारतीय (((वाङ्मय))) के भक्ति काव्य में मिलता है। जयदेव का गीत गोविंद राधाकृष्ण की मान-मनुहार और रति केलि से पूरित मात्र शब्दचित्र नहीं है, बल्कि वह रस, चिद् और आनंद की त्रिवेणी की धार है। 'सद्' इच्छाशक्ति के संदर्भ में ‘रस’ ही हो जाता है। इसीलिए रस और ईश्वर का स्वरूप-साम्य निदर्शित करते हुए कहा गया है - ‘रसौ वै सः’। विष्णु का स्वरूप कृष्ण है। कृष्ण ही ‘स्मर’ हैं। रस की प्रतिपूर्ति हैं। रस हैं। संपूर्ण वैष्णव काव्य ‘रस’ की दिव्यानुभूति से भरा हुआ है। जयदेव गीतगोविंद की पहली ही अष्टपदी में वसंत का अनुपम वर्णन करते हैं-

ललित लवंगतापरिशीलन, कोमल मलय समीरे।
मधुकरनिकरकरंबि कोकिल कूजित कुञजकुटीरे।।
विहरति हरिरिह सरसवसंते।
नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरंते।।

(सखी राधा से कहती है- राधे! सुंदर दिखनेवाले पुष्पों से लदी बेलों के स्पर्श से मादक बनी, मंद प्रवाहित होते मलय समीर के साथ, भौरों की पंक्तियों से गुंजित तथा कोयलों के संगीत से कूजित कुंजों वाले तथा वियोगियों को संतप्त करनेवाली इस वसंत ऋतु में प्रियतम श्रीकृष्ण तरुणी गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं)

विशेष बात यह है कि उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित नृत्य शरद का ‘महारास’ नहीं है। वह वसंत का ‘रास’ है। शरद के ‘महारास’ में भराव होता है। वह किशोर मन की इच्छाओं का संपुंजन होता है। वसंत का ‘रास’ आत्मोत्सर्ग होता है। वह यौवन का आत्मदान होता है। राधा से यही संकेत सखी कर रही कि राधा! मान छोड़ दे। यह समय सबकुछ श्रीकृष्ण को अर्पण करने का है। आत्मोत्थान का है। ‘रसराज’ श्रीकृष्ण के साथ नृत्य की ताल, लय, स्वर, गति सबकुछ बन जाने का है। ‘माधव’ हो जाने का है। ‘मधु’ हो जाने का है। जीवन का परिपक्व होकर पुष्पित और फलित होने का है। इसीलिए वसंत के ‘रास’ में एक अविकल रागिनी बजती है। एक अटूट लय संपूर्ण वानस्पतिक चेतना में समाकर उमग-उमग जाती है। रस की गागर छलकने लगती है। धरती फूलों की हो जाती है। आकाश फूलों का हो जाता है। हवा में गंध फूलों की भर जाती है। जल का तारल्य फूलों में मधु बनकर रमता है। चारों तरफ उर्ध्वचेतन की अग्निशिखाएँ जलने लगती हैं। जीवन समय के वृंत पर मुकुलित और उत्फुल्लित हो उठता है।

मुझे तो वसंत के महाभाव में वैष्णव काव्य की उदात्त भूमि पत्र-पत्र और शब्द-शब्द के हाथों में फूल और नयनों में समर्पण लिए प्रतीत होती है। भारतीय काव्य में ईश्वर के प्रति आकर्षण और अनुरंजन अपने आत्मदान की हद तक जाता है। अपने को खोकर ही उसे पाया जा सकता है। यह खोना अपने परम से मिलना है। अपने मनचाहे से मिलना है। अपने मनचीते में समाकर अनश्वर बन जाना है। यह फ्रायड महाशय का ‘लिबिडो’ नहीं है। फ्रायड ने गधे-घोड़ों को एक ही लाठी से हाँका है। उन्होंने ‘काम’ को ही सारे संसार का संचालक मान लिया। भारतीय संदर्भ में ‘काम’ मात्र ऐंद्रिक संवेदन नहीं है। यह दमित वासना की काल्पनिक तुष्टि से आगे का सर्जनात्मक आवेग है। इस आवेग में थोड़ा मान, थोड़ा समर्पण, थोड़ा गर्व, थोड़ा आकर्षण और सर्वस्व दान समाया है। वसंत में वृंत-वृंत से पुष्पस्तबकों के रूप में वानस्पतिक जगत में निहित रस-चिन्मय-आनंद का ही प्रस्फुटन होता है। यही रस-चिन्मय-आनंद भक्तिकाव्य से निर्झर की भाँति झर रहा है। मीरा गाती है-

सुनी हौ मैं हरि आवन की आवाज।
म्हैले चढ़ी-चढ़ी जोऊँ सजनी, कब आवै महाराज।।

यह कातर पुकार ‘काम-तृप्ति’ की अंतर-वेदना का विस्फोट नहीं है। यह प्रीति, पारस्परिकता, सुकोमलता, रसज्ञता, श्रेष्ठता के संवेदनों की उर्ध्वचेतन स्थिति है, जो आह्लादन के शिखर तक जाती है। "कब आवै महाराज" में जो प्रतीक्षा की चिरंतनता और अंतहीनता है, वह जीवन की रागात्मक वृत्ति की ध्वन्यात्मकता का सौंदर्य है। इस राग में देह की सीमाएँ चुक जाती हैं। यहाँ तक कि ‘मन’ की देहरी भी लाँघ ली जाती है। यह हृदयका भावानुप्रवेश है, जहाँ अनुभव होता है कि बियाबान जंगल में भटकते हुए जीव को खुली और कलरव-कूजित स्थली मिल गई हो। लगता है कि घोर अँधेरी राह में चलते कहीं दूर टिमटिमाता दीपक दिखाई पड़ गया हो। रेत के ढूहों के बीच भागते-हाँफते मृग को मरुद्यान मिल गया हो। यह लोकोत्तर होते हुए लोकोत्तर भूमि पर प्रवेश का आमंत्रण है। यह धरती के हरे-हरे पन्नों पर रोशनी की स्याही से लिखी पुष्पों की कविता है। यह निसर्ग का काव्य जीवन के धरती-आकाश में स्वर्णबेला को बाँध देने का मधुर विहान है।

इस स्तर से नीचे उतरने पर प्रकृति के वासंती-निबंध में से हमें दो-चार बजरबट्टू ही हाथ लगेंगे। प्रकृति भोग के लिए नहीं है, वह जीव-सृष्टि के लिए प्राणत्व और शक्ति का अक्षय स्त्रोत है। अतः उसकी रक्षा में ही पक्षियों की उड़ान और साँसों की आवा-जाही संभव है। जब दोहन होगा, और दोहन भी अंधत्व भरा होगा, तो निधि कितनी ही विपुल हो, उसकी इति होना ही है। यह धरती, यह प्रकृति तो बड़ी उदार है, लेकिन इसका अतिशय-अनवरत दोहन इसकी क्रुद्धता का कारण भी बनता है। इस वर्ष का सूखा, प्रकृति के क्रोध-रूप का ही ग्यारहवाँ ‘रुद्र’ है। यह रुद्र जब विकराल होता है, तो धरती पर बवंडर खड़ा हो जाता है। उसका रूप- सूखा, अतिशय वर्षा और अंधड़ तीनों ही हैं। प्रकृति संतुलन के मूलाधार पर स्थित है। एक भी तत्व की मात्रा कम-ज्यादा होती है तो प्रकृति उसके संतुलन की दिशा में तेज दौड़ती है। उसी दौड़ के झपाटे में वे परिणाम प्राप्त होते हैं, जो सूखा और बाढ़ और हिमपात के रूप मे इस वर्ष मिल रहे हैं।

यह कल्याणी सृष्टि आकर्षण से भरी है। ऐसा नहीं है कि केवल मनुष्य को ही प्रकृति की चाह होती है। प्रकृति भी मनुष्य को पाने की, उसे अपने साथ, अपने पास रखने की चिन्मय अभिलाषा से भरी हुई है। दिक्कत यह हुई कि प्रकृति की अभिलाषा में तो सम-भाव और सम-आवेग है, लेकिन मनुष्य का आकर्षण, मोह में और फिर लालसा में बदल गया है। लालच डुबो देती है। प्रकृति के उद्दाम दोहन की मनुष्य की कुंठाग्रस्त लालसा ही मनुष्य के लिए आत्मक्षयी बन गई। प्रकृति का रस सूख चुका है। सूखे और तप्त भू-भागों के लोगों का बचपन जल्दी बीत जाता है। जवानी एक झटके से आती है और दूसरे झटके में उतर जाती है। जीवन मुट्ठी की रेत-सा खिसकता जाता है। जीवन का आवेग कब ढुरककर सूख गया, पता ही नहीं चल पाता है। सूखे भू-भागों की वनस्पति की भी दशा ऐसी ही हो गई है। प्रमाण हमारे सामने है कि पौष में आम बौरा गए हैं और महुआ झर रहा है। जबकि आम माघ में वसंत-पंचमी पर बौराता है, महुआ फागुन में।

मेरा मस्तिष्क रह-रहकर एक बात और सोचता है कि उस प्रकृति-सी स्वच्छंद विचरण करती अरजा कन्या के साथ भोग का शाप ही उभरकर इस अकाल और सूखे में मूर्तिमान हुआ है। प्रकृति में निहित कन्यात्व भाव का अप्राकृतिक दोहन मनुष्य का जघन्य अपराध बन गया है। अभिशापित दिनों में कई चीजें उलट-पुलट होती हैं। बहुतकुछ असामान्य-सा भी होता है। तब फिर आम और महुए में वसंत का समयपूर्व आगमन, अप्राकृतिक भोग और बाजारवाद को खबरदार करने का प्रकृति-संदेश है। प्रकृति-वैभव से भरा अमंद हास है।

१ फरवरी २०१७

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