सूफी दरगाहों में वसंत पंचमी
ओम प्रकाश कश्यप
वसंत
पंचमी का त्योहार बहुत से सूफी दरगाहों पर बड़ी
धूम-धाम से मनाया जाता है। यह जश्न आज भी सात दिनों तक
भक्ति और उत्सव के साथ जारी रहता है।
यह रिवाज तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में अमीर खुसरो
(१२५३-१३२५ ई. तक) ने दिल्ली में शुरू किया था, जो
चिश्तिया सूफी सिलसिले के संत हजरत निजामुद्दीन के
शिष्य थे।
इस परंपरा के पीछे एक दिलचस्प घटना है। हजरत
निजामुद्दीन को अपनी बहन के लड़के सैयद नूह से अपार
स्नेह था। नूह रूप और गुण दोनों ही दृष्टि से अनुपम
थे। वे बेहद कम उम्र में ही सूफीमत के विद्वान बन गए
थे और हजरत अपनी मृत्यु के बाद उन्हीं को गद्दीनशीन
करना चाहते थे। लेकिन नूह का आक्स्मिक देहांत हो गया।
इस से हजरत निजामुद्दीन को बड़ा आघात लगा और वे बेहद
उदास और गुमसुम रहने लगे। बस हर रोज अपने भांजे की
मजार पर जा कर गुमसुम बैठ जाते थे।
अमीर खुसरो अपने प्रिय गुरु की इस हालत से बड़े दुखी
थे और हर क्षण इसी कोशिश में रहते थे कि उनके मन बहलाव
का कोई साधन खोजा जाए। इसी बीच वसंत ऋतु आ गई। एक दिन
खुसरो अपने कुछ सूफी दोस्तों के साथ सैर को निकले।
रास्ते में हरे भरे खेतों में सरसों के पीले फूल ठंडी
हवा के चलने से लहलहा रहे थे। उन्होंने देखा कि
प्राचीन कलिका देवी के मंदिर के पास कुछ श्रद्धालु
मस्त हो कर गाते- बजाते नाच रहे थे। बहुत भीड़ व रौनक
थी।
इस दृश्य ने खुसरो का मन मोह लिया। उत्सुकता से
उन्होंने भक्तों से पूछा कि आप लोग क्या कर रहे हैं?
एक भक्त ने बताया, आज ज्ञान की देवी माँ सरस्वती का
पूजन महोत्सव वसंत पंचमी है, हम सब उन्हें खुश करने के
लिए उन पर पर सरसों के फूल चढ़ाने जा रहे हैं।
तब खुसरो ने कहा, मेरे देवता और गुरु भी उदास हैं।
उन्हें खुश करने के लिए चलो मैं भी उन्हें बसंत की
भेंट, सरसों के ये फूल चढ़ाऊंगा। खुसरो ने अपनी पगड़ी
को जरा तिरछी कर के उसमें सरसों के पीले फूल लगाए। फिर
सरसों और टेसू के पीले फूलों से एक गुलदस्ता बनाया
जिसे गढ़वा कहते हैं। उसे सिर पर रख कर अपने कुछ पीर
भाइयों, शिष्यों और कव्वालों के साथ वे सज-संवर कर
अपने पीर निजामुद्दीन की दरगाह की ओर चल दिए।
वहाँ पहुँच कर निजामुद्दीन औलिया के सामने खुसरो भी
खूब नाचे-गाए। उनके एकाएक गाने-नाचने की उस मस्त अदा
और विचित्र वेशभूषा को देख कर हजरत निजामुद्दीन की
हँसी लौट आई। फिर दल-बल लिए खुसरो के साथ कलिका मंदिर
जा कर उन्होंने भी देवी की मूर्ति पर फूल चढ़ाए।
तब से जब तक खुसरो जीवित रहे, वे बसंत पंचमी का
त्योहार मनाते रहे। असर यह हुआ कि खुसरो के स्वर्गवास
के बाद भी चिश्ती सूफियों द्वारा हर वर्ष यहाँ खुसरो
और उनके गुरु निजामुद्दीन की दरगाह पर वसंत पंचमी का
त्योहार मनाया जाने लगा। धीरे-धीरे हिंदुस्तान की
दूसरी दरगाहों पर भी वसंत पंचमी मनाई जाने लगी और उन
खानकाहों से जुड़े भक्तों के बीच यह पर्व लोकप्रिय हो
गया। आज न केवल भारत बल्कि विश्व के अनेक देशों में
सूफी धर्म का पालन करने वाले दरगाहों और घर में यह
उत्सव मानाते हैं। वसंत को लोकप्रिय बनाने में साहित्य
और संगीत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पाकिस्तान में
भी चिश्तिया दरगाहों पर मुसलमान इसे खूब उल्लास के साथ
मनाया जाता है।
आज भी वसंत पंचमी के दिन दरगाह में आने वाले भक्त
मजारों पर फूल चढ़ाते हैं। और ढोलक बजा कर नाचते हुए
अमीर खुसरो के लिखे हिंदी, फारसी और पंजाबी के
मिले-जुले वसंत गीत गाते हैं। इस दिन वे सभी पीले
वस्त्र पहनते हैं।
७ फरवरी
२०११ |