जापान में वसंत1
पुकारते हैं
साकुरा आओ
–रीतारानी पालीवाल
यों तो वसंत का
आगमन भाँति-भाँति के सुन्दर फूलों से सजता है, लेकिन साकुरा
जापानियों का अत्यंत प्रिय फूल है। खिलते ही एक विशिष्ट उल्लास
की चहल-पहल सी दिखाई देती है प्रकृति में भी और जीवन में भी।
इसका कारण है कि पतझड़ के बाद नंगे खड़े वृक्षों में सबसे पहले
साकुरा ही वसंत की सूचना देता है और फिर वसंत को चारों ओर बगरा
देता है। अचानक ही हमें पद्माकर की पंक्ति याद आ जाती है-’बनन
में बागन में बर्ग्यो बसंत है’।
मार्च के आखिर और अप्रैल के आरंभ में साकुरा के वृक्ष फूलों से
लद जाते हैं। पहाड़ियों, घाटियों, झरनों, सरोवरों के तटों,
उद्यानों, भवनों, सड़कों के किनारों और घरों के बगीचों में
साकुरा की भूरी गुलाबी फूलों से लदी डालियाँ वसन्ती हवा के
झोकों से झूम उठती हैं और फूलों की नाजुक पँखुरियाँ झर उठती
हैं। चारों ओर हल्की गुलाबी मोती की सी आबदार पँखुरियाँ हवा
में तैरती दिखाई देती हैं। लहराती और पँखुरियाँ गिरातीं इन
डालों पर फूल ही फूल होते हैं, पत्तियाँ नहीं। पतझड़ के बाद
साकुरा में पहले फूल आते हैं, फिर पत्तियाँ। चारों ओर का
वातावरण एकदम गुलाबी होता है लेकिन वसंत की यह बहार जितने
उत्साह से आती है, उतनी ही जल्दी बिखर कर तार-तार भी हो जाती
है। तेज हवाएँ झोंकों की झड़ियों से डालों को लगातार झकझोरती
हुई फूलों को झाड़ती रहती हैं और फिर प्रशांत महासागर से उठते
बादलों की घिरती घटाएँ तेज बौछारों की मार से साकुरा की नाजुक
पँखुनियों को बेरहमी से उधेड़ डालती हैं।
साकुरा खिलते देख कर जापानी मानस राग और उल्लास से भर जाता है।
इसकी शांत नाजुक सुकुमारता को सराहते हुए वह अपने मन में समेट
लेना चाहता है। लोग घरों से बाहर निकल पड़ते हैं, ’हानामी’ के
लिए। पर्वतों, उद्य़ानों, झीलों के किनारे जाकर साकुरा के
वृक्षों के नीचे बैठते हैं, प्रियजनों के साथ बैठकर फुरसत के
क्षणों का आनन्द लेते हैं, छुट्टी मनाते हैं।
प्राचीन राजधानी नारा के निकट योशिनो पहाड़ियों पर उगने वाले
बनैले साकुरा वृक्षों से सैंकड़ों किस्में विकसित हुईं। इनमें से
१९वीं शताब्दी में तोक्यों में उगाई गई ’सोमेई-योशिनो’ किस्म
की प्रजाति आज जापान का क्लासिक साकुरा मानी जाती है। साकुरा
पुष्प की सांस्कृतिक वंशावली पौराणिक राजकुमारी ’कोनोहाना नो
साकुरा’ से शुरू होती है। राजकुमारी साकुरा का विवाह सूर्य
देवी आमातरेसु के पौत्र राजकुमार निनिगी से हुआ था। राजकुमार
निनिगी जब विवाह के लिए जापान की भूमि पर उतरे तो अपने हाथ में
आमातरेसु के बगीचे के धान के पौधों की एक गठरी भी लाए जिसे
जापानी भूमि पर रोपा गया और देश धन-धान्य से सम्पन्न हुआ। यह
भी माना जाता है कि राजकुमारी के नाम ’साकुरा’ से ही इस वृक्ष
को ’साकुरा’ नाम मिला है और साकुरा वृक्ष में राजकुमारी की
आत्मा का निवास है। क्योतो में एक उत्सव मनाने की पुरानी
परम्परा है जिसमें मन्दिरों के भिक्षु साकुरा वृक्ष की आत्मा
से यह प्रार्थना करते हैं कि साकुरा के फूल दीर्घजीवी हों-
ज्यादा से ज्यादा दिन खिले रहें। यह माना जाता है कि यदि फूलों
के खिलते ही तुरंत बादल-वर्षा से पँखुरियाँ झर जाएँ तो यह
भविष्य संकेत अथवा पूर्व- सूचना होती है कि धान की फसल अच्छी
नहीं होगी।
साकुरा को प्राचीन हेइके राजवंश कालीन भव्य कलाओं का मूलभूत
तत्व कहा जा सकता है। कवि साइग्योओ ने इसके अनिंद्य सौन्दर्य
के गीत गाए और चित्रकारों ने ’यामाकों-ए-चीरकों’ (वस्त्र पर
अंकित चित्र चीरक) और चिकों (बाँस की सींकों से बने चीरकों) पर
इसके कुसुमित पुष्प-पुंज को उकेरने में अपनी साधना की पूर्णता
मानी। आगे चलकर समुराई युगों से पारम्परिक दाय स्वरूप प्राप्त
इस साकुरा आसक्ति को समुराई योद्धाओं ने अपने ढंग से सँजोया-
अपने अस्त्रों और कवचों को साकुरा की फूल-पत्तियों के डिजाइनों
से सज्जित करके।
इस प्रकार, थोड़े से दिनों में खिल कर तार-तार हो झर जाने वाला
साकुरा फल प्राचीनकाल से ही लोगों का अत्यंत दुलारा और ’मोनो
नो आवारे’ (दया का पात्र) रहा है- जीवन की नश्वरता और
क्षणभंगुरता के सुमधुर-उदास सुख- दुखात्मक बोध के प्रतीक के
रूप में। पुराने समय से ही चित्रकार उसे अपनी तूलिका से उकेरते
रहे हैं और कवि अति-सुकुमार सौन्दर्य का गान करते हुए उसकी लय
को अपनी शब्द- लय में उतारने का प्रयास करते रहे हैं। साकुरा
की क्षणभंगुरता उन्हें सताती- सालती रही है, जैसे दसवीं
शताब्दी के कविता संग्रह ’कोकिंशु’ (प्राचीन और नवीन कविताएँ)
में संकलित इन कविताओं में-
नरम धूप में नहाया हुआ
वसंत का यह शान्त दिवस-
मेघ रहित स्वच्छ आकाश!
फिर क्यों साकुरा के फूल
इतने अधीर हो झरते जाते हैं ? (की नो तोमोनोरी)
साकुरा फूलों का खिलना इतना सुखद लगता है कि उनका झर जाना
चित्त को सालता है। लगता है काश कुछ और समय के लिए तो खिले ही
रहें। किन्तु फिर जीवन की अनित्यता का बोध होता है और मान लेते
हैं कि यही नियति है। नवीं शताब्दी के कवि फुजिवारा योशिफुसा
(८०४-८७२) की जर्जर होती काया में वसंत की लय नया उत्साह पैदा
करती है-
उम्र के ढलान पर आकर अब,
वाकई बूढ़ा हूँ मैं
कोई दो राय नहीं इसमें
फिर भी
देखता हूँ जब इन फूलते साकुरा वृक्षों को
कितना युवा हो उठता है मेरा मन !
वहीं अठारहवीं सदी के कवि कामो नो माबुची (१६९७-१७६९) साकुरा
को खिलते देख इतने आल्हादित और विस्मित हैं कि संसार-भर के
लोगों को अनिर्वचनीय साकुरा का अनिंद्य सौन्दर्य दिखा देना
चाहते हैं। वे महसूस करते हैं कि कितना भी बताया-सुनाया समझाया
जाए, जब तक लोग अपनी आँखों से देख नहीं लेंगे वे नहीं समझ
पाएँगे कि साकुरा से लदे पहाड़ कितने सुन्दर होते हैं-
काश! धरती पर रहने वाले, सभी लोग
हमारी इस भूमि पर आते
इन योशिनी पहाड़ियों पर पहुँचते
और फूले हुए साकुरा को देख पाते!
उन्नीसवीं शताब्दी के दाते चिहिरो (१८०३-१८७७) साकुरा फूलों की
सहन- शक्ति पर मुग्ध हैं जो आँधी- पानी के थपेड़ों की मार से
अपना जीवन खोकर भी मन मैला नहीं करते।
खिले और बिखर गए
हवा और वर्षा की मर्जी पर अपने को सौंप कर,
शेष नहीं रहे साकुरा के फूल अब!
पर चित्त उनका शान्त है सदा।
जापानी साहित्य और पुरावृत्त साकुरा के बिम्बों और प्रतीकों से
भरे पड़े हैं। ’मान्योओशु’ (प्राचीन दस हजार गीति कविताओं का
संग्रह) की कविताओं में प्रेम के कोमल भावों को साकुरा पुष्प,
पवन, चन्द्रमा, पंछी आदि के प्रकृति बिम्बों द्वारा अभिव्यक्ति
मिली है। कोमल और सुकुमार की अभिव्यक्ति के लिए अक्सर साकुरा
की उपमा दी गई है। सुप्रसिद्ध काबुकी नाटकों के
शीर्षक-’योशित्सुने सेन बॉनजाकुरा’ (योशित्सुने और हजार साकुरा
वृक्ष) हैं तथा ’सुकेरोकु युकारी नो ऐदो जाकुरा’ (एदो का
साकुरा पुष्प सकेरोकु) क्रमशः दोनों नायकों- योशित्सुने और
सुकेरोकु की सुकुमारता और लोकप्रियता के परिचायक हैं, सुकेरोकु
अपने सुकुमार यौवन और अनूठे सौन्दर्य के कारण एदो के गेइशा
समाज में अतिप्रिय हैं। योशित्सुने अपने शौर्य- पराक्रम के
बाबजूद अत्यंत सुकुमार हैं, साथ ही मानवीयता से परिपूर्ण भी।
अतः उसकी युद्ध कथाएँ साकुरा से जुड़ी है।
गेंजी- हेइकेई युद्ध गाथाओं में हेइके वंश के किशोर राजकुमार
आत्सुमोरी की कथा में आत्सुमोरी को साकुरा की भाँति सुन्दर,
सुकुमार और मनोहर योद्धा कहा गया है। इसी कथा पर आधारित
’कुमगाई जिन्या’ (कुमागाई युद्ध शिविर) नाटक में योशित्सुने तब
अपने सेनापति कुमागाई को आदेश का संदेश भेजता है कि हेइके वंश
के एकमात्र उत्तराधिकारी के प्राण बचाए जाएँ जो प्रतीकात्मक
भाषा में कहता है- ’’जो कोई भी साकुरा की एक डाल काटेगा उसे
इसकी कीमत चुकानी होगी।’’ सेनापति कुमागाई अपने स्वामी की इस
भाषा को समझ लेता है और आत्सुमोरी के जीवन की रक्षा स्वयं अपने
पुत्र का बलिदान करके करता है। स्वामी के समक्ष उसकी आज्ञापालन
का प्रमाण प्रस्तुत करता है- शब्दों में नहीं साकुरा की डाल
दिखाकर और फिर कठोर कर्तव्य-पालन की वेदना को झेलता हुआ समुराई
बाना त्याग कर बौद्ध भिक्षु हो जाता है।
लेकिन जापान का इतिहास क्षत्रिय योद्धाओं का इतिहास रहा है-
शौर्य और वीरता का, बलिदान को आदर्श मानने के उत्साह और
कर्मठता का इतिहास। साकुरा का झरना, कोमल सुन्दर का जल्दी से
बीत जाना, अक्सर मन में विराग का उद्रेक करता रहा है। जीवन की
नश्वरता, अनित्यता के बोध को जगाकर सांसारिक वैभव को त्यागने
का सन्देश देता रहा है।
प्राचीन जापानियों को मनोहर लगने वाला साकुरा पथरीली चट्टानी
भूमि पर पाया जाने वाला बनैला पहाड़ी साकुरा (यामा-जाकुरा) था।
पतझड़ से नंगे हुए यामाजाकुरा वृक्ष (पहाड़ी साकुरा के वृक्ष )
अप्रैल का महीना शुरू होते ही ललछौंही कोंपलों और हल्के गुलाबी
फूलों से लद जाते थे। आजकल जो साकुरा जापान में हर जगह दिखाई
देता है- कहना चाहिए, ब्रह्म की तरह सर्वव्याप्त है- वह
अपेक्षाकृत नई किस्म का साकुरा है जो १८७२ में तोक्यो की सोमेई
नर्सरी में विकसित किया गया था। ओशिमा-जाकुरा और एदो हीगान से
विकसित इस किस्म की विशेषता यह है कि यह जल्दी और विपुल
प्रचुरता में फलती है। यही कारण है कि इस पर फल पहले आते हैं
कोंपलें बाद में। पूरा पेड़ हल्के गुलाबी फूलों से भरभरा कर लद
जाता है हफ्ता दस दिन के लिए। एक-एक करके पंखुरियाँ झरती जाती
हैं और नई पत्तियों की कोंपलें फूटती जाती हैं।
अप्रैल का दूसरा हफ्ता उतरते-उतरते फूल कम ललछौंही पत्तियाँ
अधिक दिखाई देती हैं और तीसरे- चौथे सप्ताह में वही वृक्ष पूरी
तरह विकसित पत्तियों से भर कर बिल्कुल हरा दिखाई देता है।
’ओशिमा साकुरा’ के फूलों के झड़ चुकने के बाद साकुरा की दूसरी
नस्ल ’हिदारे साकुरा’ (झूलता साकुरा) खिलती है। इसे झूलता
साकुरा इसलिए कहा जाता है कि इसकी फूलों से लदी डालियाँ बरगद
की शाखाओं की तरह नीचे लटकी रहती हैं और इसकी पँखुरियाँ वर्षा
की टप-टप बूँदों की तरह लगातार नीचे झरती हैं। इसका रंग भी
ओशिमा साकुरा से थोड़ा-सा ज्यादा गुलाबी होता है। साक्यो
जुनिचिरो तानाजाकि के उपन्यास ’सासामेयुकी’ में क्योतो इलाके
के हेइके राजवंश द्वारा निर्मित देवालय के विशिष्ट
हिदारेजाकुरा को चित्रित किया गया है। इसकी पतली-पतली फूलों
भरी और नीचे की ओर झूलती हुई टहनियों से लगातार पँखुरियाँ झरते
रहने के कारण इसे अंग्रेजी में वीपिंग चेरी ब्लासम कहते है।
साकुरा दर्शन-हानामी: वसंत में साकुरा के खिले फूलों को देखना
’हानामी’ कहलाता है। ’हाना’ का अर्थ है फूल और ’मी’ का अर्थ
है- देखना, निरखना। ’हानामी’ और ’मोमिजी’ दोनों ही जापानियों
को इतना रिझाते हैं कि वे हर शरद और वसंत के इस प्राकृतिक वैभव
को अपने जीवन में उतारने का भरसक यत्न करते हैं एक तरह से
जापान का राष्ट्रीय उत्सव सा हो जाता है जिसमें हर कोई शामिल
होता है मानो प्रकृति से तादात्म्य और सामंजस्य का स्वर मिलाते
हुए लोग निकट मित्रों, साथियों या परिवारों को लेकर, न्यौता
देकर इकट्ठे हो रहे हों। पार्कों, झीलों, पहाड़ों पर बने
देवालयों और मन्दिरों के बगीचों में सैकड़ों-हजारों की तादाद
में लोग पहुँचते हैं। बड़ी तादाद में लोग कैम कॉर्डर और डिजिटल
कैमरा लिए दिखते हैं- हवा के झोकों से झूमती कुसुमित डालियों
की लय को, झरती हुई पँखुरियों की नाजुक नफासत को, धरती पर
बिखरी हुई और पानी पर तैरती पँखुरियों की चादर को कैमरे में
दर्ज करते हुए।
अब जमाना टैक्नोलॉजी का है, तेज रफ्तार का है। कविता लिखने से
ज्यादा अब तेज आवाज में ’कराओके’ गाने की ध्वनि रिझाती है।
ताली बजाते, गाते ’साके’ (जापानी धान से बनी शराब ) के घूँट और
सिगरेट का कश खींचते लोग बतियाते हुए धीरे-धीरे झरती पँखुरियों
के बीच भोजन और गप-शप का आनन्द उठाते हैं; झीलों, तालाबों,
खाइयों में नौका बिहार करते हैं- गुलाबी वसंत से तदाकार होते
हुए, उसके क्षणभंगुर, श्रंगार की कथा कहती पँखुरियों की तैरती
हिलती चादर को चम्पू से चीरते हुए। ’हानामी’ में सभी शामिल
होते हैं- बच्चे, बूढ़े, जवान, प्रेमी-युगल, स्कूली
छात्र-छात्राएँ, देशी-विदेशी सभी। अति बुजुर्ग लोगों को उनके
परिवारीजन अथवा परिचर व्हील चेयर पर ’हानामी’ के लिए लाते हैं।
जापानी लोगों की औसत आयु दुनिया में सबसे अधिक है। बड़ी तादाद
में मौजूद इन बुजुर्गों का यह अपने पुराने परिचितों से मिलने
और हवा खाने का अवसर होता है।
वसंत के आगमन की निश्चित तारीख नहीं होती। साकुरा की कलियाँ
शान्त- नीरव आकाश में धीरे-धीरे चिटकना शुरू होती हैं, पहले
दक्षिणी जापान में क्युशू क्षेत्र में। शनैः शनैः वसंत दक्षिण
से उत्तर की ओर बढ़ता है- क्युशू से शुरू होकर उत्तर में
होक्काइदो तक। मौसम विभाग बड़े उत्साह से टेलीविजन पर रिपोर्ट
देता है- ’क्यूशू में साकुरा दस प्रतिशत खिल उठा है। बुधवार तक
यह बीस प्रतिशत खिला होगा और अगले सोमवार दोपहर तक वह
’मान्काई’ होगा यानी पूरी तरह खिल उठेगा।’ और तब जापानी लोगों
को लगता है कि ’हानामी’ के बहाने कुछ देर प्रकृति के समीप
पहुँचा जाए, उसके साथ जी लिया जाए।
विभिन्न स्थानों पर साकुरा उत्सव ’हाना मात्सुरी’ आयोजित होते
हैं। रंगारंग कार्यक्रमों के रूप में, मेलों के रूप में,
दावतों के रूप में। बहुत से मन्दिरों में भगवान बुद्ध का
जन्मदिन ’हाना मात्सुरी’ (पुष्पोत्सव ) के रूप में मनाया जाता
है। इस अवसर पर बुद्ध की माता को ’सफेद हाथी’ के दर्शन और
बुद्ध अवतार की कथा का बच्चों द्वारा मंचन किया जाता है।
काबुकी नाट्य- अभिनेता इस मौसम में साकुरा के वृक्षों के नीचे
प्राकृतिक परिवेश में ’साकुरा काबुकी’ का मंचन करते हैं।
’उताइमोन सान’ द्वारा यह मंचन काफी प्रयोगशील और मनोहर होता
है। क्योतो के निकट ओहारा संजेइन मन्दिर के प्रांगण में
मुक्ताकाश के नीचे वृक्षों के परिवेश में एक किनारे पर जलते
अलाव के प्रकाश में काबुकी मंचन किया जाता है। यहाँ प्राकृतिक
परिवेश के साथ मिलकर काबुकी में पहले से ही विद्यमान
रम्याद्भुत तत्व और ज्यादा आकर्षक हो जाता है।
शिजुओका के कॉम्पिरा देवालय के निकट स्थित ’कानामारुजा’ जापान
की सबसे पुरानी रंगशाला है। १८३५ में निर्मित इस रंगशाला में
आज भी एदो युगीन परिवेश में ही मंचन होता है। मंचन वर्ष में
तीन माह होता है जिसकी शुरूआत अप्रैल
में
साकुरा खिलने के दिनों में होती है। बाहर वृक्षों से लगातार
झरती हुई साकुरा की पँखुरियों की बहार को रंगशाला के भीतर कागज
और प्लास्टिक की साकुरा पँखुरियाँ बिखराते हुए पुनः सृजित किया
जाता है।
जापान में वैसे तो बहुत छोटे- छोटे घर बनाए जाते हैं लेकिन
छोटी-सी जगह का विराट इस्तेमाल करने में जापानियों का सानी
नहीं मिलेगा। लोगों का प्रयास रहता है कि अपने घर के आसपास
थोड़ी-सी जगह निकाल कर साकुरा रोप दिया हाए। एक बार लगा लिया तो
फिर क्या कहना।
१८ जून २०१२ |