मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से



वसंत के बिना
– धर्मवीर भारती


अब नहीं, अब तो जीवन जैसे एक चिरन्तर पतझर का मौसम बनता जा रहा है। पर कुछ ही दिनों पहले तक यह आलम था कि वसन्त आते ही मन कुछ-कुछ बदलने-सा लगता था। धुला-धुला सा, तरोताजा, कुछ अनजान जंगली फूलों की महक के समान बसा हुआ। उन फूलों का कोई नाम होता था। उनकी पहचान भी भूल गयी है। पर बचपन में देखे और बटोरे हुए फूलों की महक कहीं मन में पुराने दर्द की तरह बसी हुई है, जो मौसम आते ही पिरा उठती है।

तब केवल कवि-कलाकार ही नहीं, हम जैसे सामान्य लोग भी मौसमों से जुड़े हुए थे। खासतौर से वसन्त से और वर्षा से। हमारे इलाहाबाद में कड़ाके की सर्दी पड़ती थी। कई महीने तक हाथ-पाँव बर्फानी गलन में जकड़े रहते थे, दोपहर तक गाढ़ा कोहरा छाया रहता था। और माघ की अमावस्या के आसपास एक कँपकँपाने वाली बारिश भी हो जाती थी। कभी-कभी ओले भी। पर पंचमी आते-आते कोहरे को चीर कर हल्की सुनहरी धूप के रेशे झिलमिलाने लगते थे। खेतों की मेड़ों पर पीले, गुलाबी, हल्के नीले छोटे-छोटे जंगली फूल खिलने लगते थे, एक दिन तोतों का झुण्ड उड़ता हुआ आ निकलता। ऋतु तो आ गयी। पंचमी से शुरू हो कर चलती थी पूरे माघ, पूरे फागुन और आधे चैत तक। यानी फरवरी, मार्च और लगभग आधा अप्रैल।

हमारी हिन्दी कविता व्यापक तौर पर जुड़ी थी प्रकृति से और ऋतुओं से। मध्यकाल के षड्ऋतु वर्णन तो एक प्रकार से रूढ़ि बन चुके थे। सावन-भादों में सभी नायिकाएँ विरह में तड़फड़ाने लगती थीं, और वसन्त में मुग्धा नायिका अपनी ही विकसित होती हुई देह को देख कर लजाती घूमती थी। उस काव्य में भी अपना आकर्षण था, लेकिन प्रकृति की सहज स्वाभाविक गन्ध नहीं थी।

भारतेन्दु काल से एक परिवर्तन आना शुरू हुआ। लेखक लोग सीधे अपने गाँव, कस्बों की प्रकृति से जुड़े। उनकी अनुभूतियाँ बहुत गहरी नहीं थीं, भाषा भी सादी चमत्कार-विहीन वर्णनात्मक मात्र थी। फिर भी पता नहीं क्यों उस काल की प्रकृति-कविताएँ आकर्षित करती थीं। प्यारी लगती थीं।

बचपन की याद है। एक कविता थी, पाँचवें-छठे दर्जे की अनेक पाठ्यपुस्तकों में अवश्यमेव रहती थी। श्रीधर पाठक को महत्त्वपूर्ण प्रकृति-प्रेमी कवि माना जाता है, पर यह कविता उनसे भी पहले की थी। भारतेन्दु गोष्ठी के प्रख्यात निबन्धकार बालमुकुन्द गुप्त की। सीधी-सादी पर बाल मन को छूनेवाली। आज तक मन में बसी हुई है।

आ आ प्यारी वसन्त, सब ऋतुओं में न्यारी
तेरा शुभागमन सुन फूली केसर-क्यारी
सरसों तुझको देख रही है आँख उठाये
गेंदे ले ले फूल खड़े हैं सजे सजाये

आगे कविता में वर्णन था कि पेड़ हाथ उठा कर डालें हिला कर वसन्त को बुला रहे हैं। नीबू, नारंगी वातावरण को महका रहे हैं। अनारकलियों की दूरबीन लगा कर वसन्त की बाट रहे हैं, आगे जनजीवन का चित्रण था। लड़के-लड़कियाँ किस तरह जंगली फूल बटोरते घूम रहे हैं। ढाक (पलाश) के पेड़ पर चढ़ कर बच्चे झूला झूल रहे हैं। किसान मिल कर खेतों पर जा कर सरसों के फूल तोड़ रहे हैं।

पर कवियों की यह सम्पृक्तता केवल वसन्त ऋतु तक सीमित नहीं थी। श्रीधर पाठक ने हेमन्त ऋतु का कैसा प्यारा चित्रण किया-

बीता कातिक मास, शरद का अन्त है
लगा सकल सुखदायक ऋतु हेमन्त है
ज्वार बाजरा आदि कवि केकट गये
खलिहानों से सभी किसान निबट गये
सुघर सौंफ सुन्दर कुसुम की क्यारियाँ
सोपा पालक आदि विविध तरकारियाँ।

बहुत सादा, आलोचक गण कहेंगे कि इतिवृत्तात्मक वर्णन है यह, लेकिन पता नहीं क्यों मेरे जैसे शहरी मनवाले व्यक्ति को भी यह वर्णन तरोताजा कर जाता था।

इस इतिवृत्तात्मक दौर के बाद आया छायावाद का दौर। एक सुमित्रानन्दन पन्त को छोड़ कर छायावाद के अन्य कवियों ने रहस्यवादी प्रभाव के कारण पकृति को प्रतीकात्मक रूप में ही लिया। रजनी, पारिजात, सूर्यास्त, तारे सभी कवि की तथाकथित छायावादी एवं रहस्यवादी भावनाओं को अभिव्यंजित करने लगे। गेंदे के फूल या तरकारियों का ज़िक्र तो कल्पित ही नहीं किया जा सकता था। छायावाद काल के बाद के गीतकारों पर भी लगभग वही प्रभाव रहा। हाँ, कहीं-कहीं अपवाद जरूर मिल जाते हैं।

सहज स्वाभाविकता की ओर पन्त जी ही लौटे अपनी काव्य रचना के उस दौर में जब उन्होंने ‘ग्राम्या’ लिखी, ‘ग्राम श्री’ की कुछ पंक्तियाँ सुनिये-

महके कटहल मुकुलित जामुन, जंगल में झरबेरी झूली
फूले आड़ू, नींबू, दाड़िम, आलू, गोभी, बैंगन, मूली
पीले मीठे अमरूदों में अब लाल लाल चित्तियाँ पड़ीं
कर गये सुनहले मधुर बेर, अँवली ने तरु की डाल जड़ी
लहलह पालक, महमह धनिया, लौकी औ सेम फली फैली
मखमली टमाटर हुए लाल, मिरचों की बढ़ी हरी थैली

इसके कुछ ही समय बाद शूरू होता है नयी कविता का दौर। आधुनिकता के शोर-शराबे और सैद्धांतिक उठापटक के बावजूद प्रकृति-कविता की ओर नयी कविता फिर सहजता और वैविध्य के साथ लौटी। अज्ञेय, गिरजाकुमार माथुर, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर, और केदारनाथ सिंह की कविताएँ अभी पाठकों के जेहन में ताजा होंगी। नयी कविता आन्दोलन और तीनों सप्तकों से अलग मध्यप्रदेश के रामविलास शर्मा अवश्य प्रकृति से जुड़े रहे। लेकिन किस तरह वह सन्दर्भ छठे दशक में धुँधला पड़ने लगा, यह अभी ताजा बात है। सातवें और आठवें और आठवें दशक में तो कविता पर एक महानगरीय शहरी आतंक छा गया और प्रकृति से अनुप्रेरित हो कर लिखना एक गँवारू, रोमांटिक बात समझी जाने लगी। दूसरी ओर एक अन्य विचारधारा की आक्रामक शब्दावली एक रूढ़ि बन कर कविता पर छा गयी।

वर्तमान कविता को देखिए। पचास पत्रिकाएँ उठाइए। लघु पत्रिकाएँ भी और बहु प्रसारवाली लोकप्रिय पत्रिकाएँ भी। कविता का वही नीरस, बौद्धिक, बड़बोला अन्दाज़। जो मन को तरोताज़ा कर जाय, मौसम की खुमारी दे जाय, ऐसी कविताएँ ढूँढ़ने पर भी शायद ही मिलें, एक-दो मिल जायें तो बड़ी बात समझिए।

आखिर हुआ क्या? क्या हिन्दी के काव्य-संसार में अब आम नहीं बौराते? क्या डालें फल-फूल से नहीं लदतीं, क्या खट्टी-मीठी खुशबुएँ दोपहर की हवा में नहीं बह कर आतीं?

या आज भी यह सब होता है पर कवि का मन कहीं सहज रसग्राही नहीं रहा। सहज स्वाभाविक अनुभूतियों से अनुप्राणित होने के बजाय बेचारा कवि या तो अफसरशाही की काव्य शैली की नकल करने या अपनाने या चन्द वामपक्षी आलोचकों से अनुकूल फतवे पाने की चिन्ता में जवानी आने के पहले ही बूढ़ा होने लगता है। कारण सचमुच मेरी समझ में नहीं आता। पर इतना जरूर स्पष्ट है कि हिन्दी कविता में इधर कितने ही वर्षों से वसन्त ने आना बन्द कर दिया है।

१ फरवरी २०१७

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।