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							 1 
					अभिसार उत्सवा 
					पृथ्वी और फागुन- श्रीराम 
					परिहार
 
 
							फागुन पूरे साज-बाज से फिर आ गया। बसंत के पन्ने पर 
							लिखे गेहूँ की 
							पक्की बालियों के आखर धरती का बेटा बाँचने लगा। सेमल, 
							पलाश, कचनार,
							वसंती, गुलाब की टोली एक ओर सजी-धजी खड़ी है, तो दूसरी 
							ओर चना, 
							मसूर, अलसी, धनिया, मटर का समूह पूरी गदराहट के साथ 
							उत्सव-प्रसवा-सा
							बिछा है। फगुनौटी हवा, धीरे-धीरे सबके भीतर से गुजरती 
							है और अपूर्व 
							सरसराहट पैदा कर जाती है। धरती का माथा अबीर हो गया, 
							गाल गुलाल हो
							गये और आँखें लाल। गाँव की गलियों में माटी की बेटियाँ 
							गाती हैं. 
 भरि पिचकारी बदन पर डारी, भीजि गयी राधा प्यारी।
							पूछो रे यशोदा के कुँवर से, होरी किन्न मचायी।
							
							भारतीय पर्वो-त्योहारों में राधा-कृष्ण शाश्वत मिथक के 
							रूप में व्याप्त हैं। 
							सोचता हूँ, राधा-कृष्ण की यह अवधारणा होली पर्व के 
							माध्यम से अनेक 
							स्तरों पर भारतीय संस्कारों में रिसती रहती है। वास्तव 
							में होली 
							अभिसार-क्षणों की वह एकात्मक और एकान्तिक अन्विति है, 
							जिसमें 
							स्थूलता, रंगों की सूक्ष्मता द्वारा रूपायित होती है। 
							मांसलता और दैहिक 
							गंध की समाप्ति के आगे की यह यात्रा होती है, जिसमें 
							गाँव की किशोरी 
							किशोर की, राधा कृष्ण की, हो ली। आत्मा परमात्मा की हो 
							ली और यह 
							धरती सूर्य की हो ली. धरती और सूर्य के बीच रंगों की 
							धूम मनुष्य के 
							इतिहास की शुरुआत से भी पूर्व की कथा है। गाँव के 
							छोरा-छोरी फागुन के 
							आँगन में फगुआ खेलकर अपने मिलन-क्षणों को रंगमयता देते 
							हैं।
 
 राधा-कृष्ण की होली तो जग-जाहिर है। ब्रज की गलियों 
							में होली की 
							मचमचाहट से तन्तु-तन्तु सराबोर हो जाता है। 
							कृष्ण-प्रिया राधा अपने 
							स्वरूप की सार्थकता ही कृष्ण की प्रीत के रंग से 
							प्राप्त करती है। 
							आत्मा-परमात्मा के बीच की होली तो अध्यात्म और दर्शन 
							की गलियों से 
							गुजरती हुई ब्रजमंडल (ब्रह्मांड) में समाप्त होती है। 
							जहाँ ब्रह्मरंध्र रूपी 
							पिचकारी से अमृतरूपी रंग टपकता है और आत्मा पूर्णरूपेण 
							रँग जाती है। 
							इस स्थिति को कोई-कोई पहुँचता है। होली के क्षण, मिलने 
							के क्षण हैं। 
							आत्म-बोध के क्षण हैं। स्वयं परिचय के क्षण हैं। द्वैत 
							से अद्वैत की 
							स्थिति पाने के क्षण हैं।
 
 मेरा मन रह-रहकर पृथ्वी के इस फागुनी रूप पर अटक जाता 
							है। फागुनी 
							रस से गदबदायी धरती आसन्न अभिसारिका है। पूरे वर्ष में 
							एक बार वह 
							अभिसार के लिए प्रस्तुत होती है, सजती है, सँवरती है। 
							जिस तरह ब्रह्म 
							से अलग होते ही जीव उसे पाने के लिए व्याकुल रहता है, 
							अपने मूल से 
							मिलकर ही उसे आत्मतोष मिलता है, धरती भी अपने आधार को 
							पाने की 
							ललक सहेजे घर से निकल संवत्सर के चौगान तक आ पहुँचती 
							है। वर्ष 
							समाप्ति के अंतिम दिनों में वह अपने प्रियतम से भुजभर 
							भेंटने और जीभर
							होली खेलने को आकुल है।
 
 पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है। सूर्य से ही 
							ब्रह्मांड के सारे ग्रह-नक्षत्र 
							उत्पन्न हैं। वे सब सूर्य की अँगुलियों पर नाच रहे 
							हैं। सूर्य केन्द्र है और 
							ग्रह-नक्षत्र वृत्त। सूर्य कृष्ण हैं ग्रह-नक्षत्र 
							गोपियाँ। उन गोपियों में केवल 
							राधा ही कृष्ण से आत्मीय और भक्तिसिक्त है। यह वसुधा, 
							राधा है, जो 
							अपने कृष्ण से मिलने के लिए फागुन के माध्यम से आ खड़ी 
							है। आकाश 
							वीथी में पैर रखते ही सूर्य ने अपनी सतरंगों वाली 
							पिचकारियाँ मुखरित कर
							दीं। प्राची के आँगन में रंगों की कीच मच गयी। देखते 
							ही देखते परी धरा
							लजा-लजाकर रँग गई, भींज गयी। वसुंधरा, उत्सवा बन गयी। 
							रोयें बने 
							हजारों-हजार पेड़-पौधे लता, सुमन, तृण सब रंग गये। 
							धरती, जो स्वयं रसा 
							है, रस गृहणी बन गयी।
 
 सूर्य और धरती के बीच होली अनादिकाल से चली आ रही है। 
							समय ने 
							मनुष्य के व्यवहार को प्रभावित कर उत्सव प्रक्रियाओं 
							को मोड़ा है, लेकिन 
							सविता-वसुधा के बीच के इन रंगमय बंधनों को काल छू नहीं 
							सका। 
							पुराकाल से आज तक यह प्रेमाभिसिक्त धरित्री इसी तरह 
							अभिसार के लिए 
							प्रस्तुत होती रही। युग की बेरुख हवाएँ उसके चरित्र का 
							रूप नहीं बदल सकीं।
							सूर्य भी इन दिनों सम पर आ जाता है। न धरती से अधिक 
							दूर, न अधिक
							पास। वह धरती के मध्य भाग में प्रवेश करता है, जिसे 
							भूमध्य क्षेत्र कहते
							हैं। धरती का यह मध्य देश संपूर्ण वर्ष एवं ऋतुओं का 
							केन्द्र है।
 
 ऋतु-चक्र का नियामक सूर्य है। रात और दिन की धरती की 
							वेदना फागुन में 
							सम हो जाती है। रात-दिन बराबर हो जाते हैं। सुख-दुःख 
							का समन्वयात्मक 
							दर्शन लेकर सूर्य बरस बरस जाता है- रंगों की 
							पिचकारियों के साथ। भूखा 
							हृदय आनंदोल्लास से भर गा उठता है- कोयल के स्वर में। 
							वन- प्रान्तर 
							खड़खड़ा उठते हैं और ताबड़तोड़ अपनी-अपनी पोशाकें पहनना 
							शुरू कर देते 
							हैं। आम की डाली महक उठती है। खेत झूम- झूम जाते हैं। 
							नीड़ों में कलरव 
							जाग पड़ता है। धरती-सूर्य के अभिसार-क्षणों की 
							उद्घोषणा भौंरे दिशा-दिशा 
							में करने दौड़ पड़ते हैं। यह होली अद्भुत है, जिसमें 
							धरती पूरी तरह अपने 
							अहम् का विसर्जन कर आत्मविस्मृति की स्थिति में पहुँच 
							गयी है। सब कुछ 
							और ही हो गये हैं-
 
 "औरे रस, औरे रीति, औरे राग, औरे रंग
							और तन, और मन, औरे बन हो गये।"
 भारत की ज़मीन पर्वों की उर्वरा भूमि है। पर्व जीवन 
							में उल्लास का उपहार 
							लाते हैं। जीवन में क्रियाशीलता और गति लाने के लिए 
							उत्साह आवश्यक है।
							पर्व उत्सवधर्मी होते हैं। पर्व चेहरों की उदासी 
							पोंछते हैं। पर्व खरोंचों को 
							सहलाते हैं। पर्व घावों को पूरते हैं। पर्व आदमी को 
							पुनः आदमी बनाते हैं। 
							पर्वों के माध्यम से हम अपनी जमीन के सम्पन्न संसार 
							में लौटते हैं। जीवन
							से जुड़ते हैं। विश्व को अपनी पहचान देते हैं।
 
 होली इस देश की मिट्टी का उत्सव है। यहाँ की मिट्टी और 
							पानी मिलकर 
							आदमी का वेश निर्मित करते हैं। पानी का रंग नहीं होता, 
							उसमें जैसा रंग 
							घोल दीजिए, पानी वैसा ही हो जाएगा. भारत की धरती और 
							भारत के व्यक्ति 
							का स्वभाव भी पानी सरीखा है। इस भारत-भूमि पर अनेक 
							जातियों और धर्मों
							के रंग घुले-मिले हैं। इस देश में आर्य आये। शक आये। 
							हूण आये। कुशाण 
							आये और इस देश के हो गये। एक हो गये। अनेक-अनेक 
							जातियों और धर्मों
							से मिलकर इस देश की गौरवशाली परम्परा का निर्माण हुआ 
							है। यह इसी 
							तरह से है, जिस तरह विविध रंगों की बौछारों और 
							पिचकारियों से होली का
							पर्व।
 
 होली के विभिन्न रंग एक उत्सव को अभिव्यक्ति देते हैं। 
							यह उत्सव आत्मा
							के स्तर पर होता है। किसी त्यौहार से यदि आत्मिक भाव 
							से नहीं जुड़े तो 
							उसका गाढ़ा रंग आप पर चढ़ेगा नहीं। होली का प्रत्येक 
							रंग अपना संदर्भ 
							लिए हुए है। लाल रंग प्रीति का है। गुलाबी रंग से 
							उत्साह झलकता है। हरा 
							रंग प्रसन्नता का प्रतीक है। पीला या वासंती रंग 
							सम्पन्नता का संदेश देता है
							। सफेद पवित्रता का पर्याय है। काला और बैंगनी वर्जित 
							हैं। ये पाप और 
							मलिनता के प्रतीक माने जाते हैं। प्रारंभ के पाँच 
							रंगों से होली खेली जाती है। ये रंग ही व्यक्ति की 
							विविध वर्णी भावनाओं के संवाहक हैं। जब ये रंग एक साथ 
							बरसते हैं तो व्यक्ति का वेश-देश-केश सब एक रंगी हो 
							जाते हैं। समूचा आदमी रंगों का मिला-जुला पुंज बन जाता 
							है और सारी धरती पर्व हो जाती है।
 
 व्यक्ति की जाति नहीं होती। खून की जाति नहीं होती, 
							भूख और पेट की 
							जाति नहीं होती। रंगों की जाति नहीं होती। होली की 
							जाति नहीं होती। 
							रंगों की जाति से मेरा तात्पर्य सूर्य की किरणों से ही 
							रंगों का आभास होता है
							। सारे ही रंग सूर्य में से निकले हैं। एक सूर्य में 
							से निकलकर वे धरती के 
							द्वार-द्वार निद्व भाव से पहुँचते हैं. हर जाति, धर्म, 
							वर्ण वाले व्यक्ति को 
							रँगते हैं। उनके पास भेद-भाव नहीं। सूर्य प्रकाश-पुंज 
							होने के साथ ही साथ 
							रंगों का चितेरा है। वह निरन्तर धरती और धरतीवासियों 
							से होली खेलता 
							रहता है। सबको निधड़क रँगता रहता है। भिगोता रहता है।
 
 अभिसार-उत्सवा पृथ्वी और रंगशिल्पी दिवाकर के बीच 
							होली-भीगे लम्हों को 
							अपने भीतर अनुभव करता हूँ। पाता हूँ, अंदर भी एक जमीन 
							है, जो होली के
							रंग से अभी तक अनभींगी है। आदमी का कैसा दुर्भाग्य है 
							कि उसके अन्तर 
							को होली का रंग नहीं छू पाता। उसका सफ़ेद-पोश अहम् और 
							थोथी बन्दर 
							घुड़की आदमीयत के रंग को भी नहीं स्पर्श कर पाती। जीवन 
							के कितने फागुन 
							बीत जाने पर भी उत्सव-आकुला हृदय की धरती सूखी पड़ी रह 
							जाती है। 
							बार-बार इसे सजाने, सँवारने, रसोन्मुखी कर अभिसारिका 
							बनाने का उपक्रम 
							करता हूँ, लेकिन घर, आँगन, द्वार, पौरी पर ही अटक कर 
							रह जाता हूँ।
 
 क्यों नहीं हम भी सूरज के प्रकाश के समान ही सहज भाव 
							से प्रेम के रंग 
							में भींग पाते? जाति, धर्म, सम्प्रदाय की दीवारों को 
							तोड़ने के लिए ही होली 
							जैसे पर्व आते हैं। होली के रंग में डूबकर हम अरूप 
							बनें। अनाम बनें। 
							भारतीय बनें। शरीर को होली के रंग से रँगते बहुत समय 
							बर्बाद कर दिया। 
							अब तो आत्मा को रँगने की बेला है. आदमी का खून बहुत 
							महँगा है। इससे 
							होली खेलकर तो हम मानव-सृष्टि को ही नाश के कगार पर 
							पहुँचा देंगे। 
							खून की होली बंद होनी ही चाहिए। प्रेम के रंग में 
							तरबतर होकर एक बार 
							फिर धरती के आँगन में एकता का उत्सव मना सकें। मानवता 
							नाच उठे।
 
					१ फरवरी २०२० |